*संस्कृति का यथार्थ-*
©डॉ. चंद्रकांत तिवारी
उत्तराखंड प्रांत
*सभ्यता के नगर
संस्कृति की डगर
पद चिन्हों पर चलकर
परंपरा का आधुनिक शहर
बहुत दूर नहीं वैभव-संस्कृति की नगरी
आत्ममंथन - आत्मचिंतन - स्वएकांत
प्रकृति अमृत कलश - जीवनदायिनी शक्ति
यत्र-तत्र-सर्वत्र भर लें अमृतसर गगरी ।*
(स्वरचित)
मध्य हिमालय की उपत्यकाओं के मध्य, प्रकृति की परिधि के मध्य, मनुष्य की समाधि की परिधि की गहराइयों से, एकांत का केंद्रीयकृत नैसर्गिक आकर्षण, युगबोध की संस्कृति का अमर-जयघोष, जीवन संस्कृति के मूल्यांकन की गहराईयों की सभ्यताओं से निकला हुआ, अमृत मंथन के समान अमृत कलश भारतीय चिंतन परंपरा का स्वाभाविक विकास है। यह एकांत की संस्कृति का जयघोष है और प्रकृति का नाद् -मय सौंदर्य। एकांत के गर्भ से उपजा हुआ जीव मात्र की चिंतन धारा का स्वाभाविक विकास। यह किसी ग्रंथ का आधार नहीं अपितु संपूर्ण विश्व के आदि ग्रंथ इसी एकांत की संस्कृति के आधार ग्रंथ हैं। यही मानवता का सच्चा विकास है। यही अद्वैतवाद की संस्कृति का नाद् -मय सौंदर्य चित्रण भी है। यही भारतीय चिंतन परंपरा का स्वाभाविक विकास भी और यही भारतीय चिंतन की प्रक्रिया का मूल मंत्र भी।
गाय, गंगा , गीता और गांव की आधार संस्कृति का यथार्थ भी।
साहित्य जनसमूह के हृदय का विकास है। एक ऐसा विकास जो मनुष्य को मनुष्य बने रहने की शिक्षा देता है। यह मौखिक भी हो सकता है और लिखित भी। परंतु वास्तविकता यह है कि साहित्य का लिखित रूप मानव जीवन की संचित राशि का कोश है और ऋषि मुनियों की आजीवन तपस्या का सकारात्मक प्रतिफल भी है। जो मानव सभ्यता को प्रकृति के साथ मिलाकर रहने की भावना का विकास भी कराता आया है। अर्थात मानव और प्रकृति का तादात्म्य स्थापित करता है। प्रकृति की गोद में बैठकर ही भूत, भविष्य और वर्तमान तीनों कालों का चिंतन किया जा सकता है। जब से प्रकृति का निर्माण हुआ है, यह धरती ने अपना अस्तित्व इस समस्त आकाशगंगा के परिदृश्य में स्थापित किया है। तब से प्राणी जगत की उत्पत्ति और उसके विकास के कथा का चिंतन, जन्म मरण का चिंतन, यश और वैभव का चिंतन, वीर और कायर का चिंतन, अपने और पराये का चिंतन, मानव सभ्यता का चिंतन, सजीव और निर्जीव का चिंतन, प्राणी जगत की उत्पत्ति का चिंतन, और इस समस्त भूमंडल का चिंतन, एक छोटे सा कण जो उदासीन बनकर इस भूमंडलीय परिदृश्य पर विचरण करता है, उसका चिंतन उदासीन पड़े मानव जीवन की भांति ही उस सूक्ष्म कण का वैज्ञानिक एवं दार्शनिक रूप से चिंतन, यह सब बिंदु चिंतन परंपरा की उत्पत्ति एवं विकास की प्रक्रिया के सतत विकासात्मक गति की चिंतन प्रक्रिया के ही कई आयाम है। इन आयामों से गुजरते- गुजरते मानव सभ्यता भी कभी रामायण तो कभी महाभारत के दृश्य दिखाती है। कभी इस धरती पर अपने आराध्य देव को बुलाने पर मजबूर हो जाती हैं। स्थिति इस जग की कुछ ऐसी है। जब- जब मानव सभ्यता बुरी आत्माओं के वशीभूत होकर मानवों का ही विनाश करने पर हावी हो जाती है तो ईश्वर को स्वयं धरती पर अवतारी पुरुष के रूप में प्रकट होना पड़ता है।यह गीता का उपदेश है जो स्वार्थ पर परमार्थ का, यथार्थ पर निहितार्थ का, असत्य पर सत्य का, मरहम बन कर सामने आता है और शीतलता प्रदान करता है। यही मानव सभ्यता का इतिहास है। यही कुरुक्षेत्र की विभीषिका की विध्वंसलीला का प्रमाण भी है। यही धरती पर अपने आराध्य देव को बुलाकर समर्पण का भाव भी दर्शाता है। जब -जब इस धरती पर धर्म पर अधर्म हावी होता है, तब -तब प्रभु स्वयं धरती पर अवतरित होकर मानव के कल्याण के परमार्थ का कारण बनते हैं।
यह जीवन एक ऐसा रण क्षेत्र है जहांँ हर कुशल योद्धा निहत्था रह जाता है और उसकी नियति निहत्था बनकर युद्ध करने की रह जाती है। प्रभु स्वयं अपनी अमर वाणी से मानव सभ्यता का कल्याण करते हैं। यह जीवन एक कुरुक्षेत्र का रणक्षेत्र है। इस रणक्षेत्र में अपने आप में सक्षम होने के बावजूद भी अर्जुन जैसा योद्धा थी श्रीकृष्ण की दिव्य वाणी से अपने आप को ताजा महसूस करता है और गांडीव लेकर युद्ध करने को तत्पर होता है। बिना गुरु के ज्ञान संभव नहीं। स्वयं प्रभु श्रीकृष्ण जो मानव धर्म के प्रजा पालक हैं, लोक कल्याणकारी हैं, संपूर्ण जगत में धर्म की स्थापना करने के लिए अवतरित हुए हैं और कुरुक्षेत्र के रण क्षेत्र में महाभारत के नायक अर्जुन को कर्म की शिक्षा देते हैं। स्वयं उसका सारथी बनकर रणक्षेत्र में गीता के ज्ञान की अपार राशि लुटाते हैं। यह एक ऐसा गहरा चिंतन है जिसके मूल में ऋषि-मुनियों की तपस्या का फल प्रतिबिंबित होता है। यही भारतीय चिंतन की परंपरा का प्रतिफल है और मानव जीवन के कल्याण का सकारात्मक प्रयत्न भी। यह एक ऐसा पद है जिस पर सरलता एवं सहजता से मानव सभ्यता का इतिहास अपने स्वर्ण अक्षरों में लिखा गया है। भारतीय चिंतन की परंपरा में सनातन धर्म पद्धति सबके कल्याण की भावना और वसुधैव कुटुंबकम् का मंत्र समाहित होते हुए, अतिथि देवो भव का भाव भी प्रतिबिंबित होता है। भारतवर्ष का इतिहास यहां का रहन-सहन यहां की सामाजिक, सांस्कृतिक, धार्मिक स्थितियों के साथ-साथ राजनीतिक एवं भौतिक परिवेश भी उपर्युक्त कई बिंदुओं को प्रभावित करने वाले कारक के रूप में प्रकट होता है। यह भारतीय चिंतन की परंपरा का आदि स्रोत है और भारतीय चिंतन की वैश्विक स्तर पर ख्याति का आधार स्तंभ भी है। एक ऐसी परंपरा जिसे जानने के लिए इतिहास के प्राचीन स्रोतों को चिंतन एवं मनन के स्तर पर समझने एवं समझाने की आज वर्तमान समय में महत्वपूर्ण आवश्यकता है।
सिंधु घाटी सभ्यता के इतिहास के काल खंडों को लेकर आज वर्तमान समय तक इतिहास एवं साहित्य के काल खंडों के अतीत का अध्ययन करते हुए उसका दार्शनिक मूल्यांकन एवं आंकलन किया जाए तो सब के मूल में संपूर्ण भारतीय संस्कृति, समाज, भाषा, सभ्यताएं अपना नवीन मार्ग तय कर रही हैं। यही भारतीय संस्कृति की चिंतन परंपरा का आदि स्रोत है। भारतीय चिंतन परंपरा का वैश्विक आधार भी इन्हीं प्रमुख बिंदुओं में प्रकट होता है। हमारा साहित्य हमें वैश्विक स्तर पर चिंतन के विभिन्न आयामों को स्थापित करने की शक्ति एवं बल देता है। चारों वेद ग्रंथ, वेदांग, उपनिषद, धर्म-ग्रंथ और भारत के आदि विश्वविद्यालय, भारतीय संस्कृति, समाज, सभ्यता एवं भाषाओं के साथ-साथ क्षेत्रीय बोलियां भी हमारी सभ्यता एवं संस्कृति का जयघोष स्थापित करती हैं। सब के मूल में भारतीय चिंतन परंपरा का विकास है। यह साधारण बात नहीं स्वयं में असाधारण विषय है। इसीलिए कहा गया है कि साहित्य जनसमूह के हृदय का विकास है। संचित राशि का आदि कोष है। भारतीय चिंतन परंपरा का विकास है। यह भारतीय चिंतन परंपरा किसी एक व्यक्ति की निजी भावना नहीं अपितु संपूर्ण मानवीय सभ्यता की चिंतन धाराओं एवं सभ्यताओं का परंपरागत, नैतिक, अमूल्य, अनवरत, अनगिनत, अगणित, अव्याप्त, अतुलनीय, अनुपम, असंख्य आकर्षणों की चेतनाओं का चिंतन विकास है। अतीत के गर्भ से निकलने वाले अमृत कलश की बूंदों से नवयुग की लालिमा का विकास है। समुंद्र मंथन से निकलने वाले अमृत की बूंदों के मध्य विष को पीने वाले शिव अर्थात विष को भी सरलता एवं सहजता से प्राप्त करने वाले आदि पुरुष की चिंतन परंपरा है।
भारतीय चिंतन परंपरा को ढूंढने के लिए किसी पद एवं प्रतिष्ठा की कोई अभिलाषा नहीं होनी चाहिए। अगर उस चिंतन परंपरा को यथार्थ के धरातल पर ढूंढना है तो व्यक्ति एवं मानव सभ्यता को स्वयं के भीतर अपने ईश्वर को तलाश करना होगा। वह किसी रण क्षेत्र में नहीं मिलेगा और नहीं देवालय में मिलेगा। मंदिर, मस्जिद, गिरजाघर में नहीं मिलेगा। यह कोई वेद ग्रंथ या कुरान बाइबल या गुरु ग्रंथ साहब, अगर वह चिंतन परंपरा हम सबको प्राप्त होगी तो हमारी स्वयं की आत्मा एवं हमारे मन के भीतरी आवरण चित्र में दिखाई देगा। कहा भी गया है कि ईश्वर कण कण में विराजमान है। हिंदी साहित्य का भक्ति काल और संतों की आदि परंपरा जिसमें निर्गुण और सगुण दोनों ने ही अपने-अपने स्तर से अपने आराध्य देव को अपने स्वयं के भीतर ढूंढने का प्रयास किया। यही भारतीय चिंतन परंपरा का मूल है। जिससे अनपढ़ और बड़ा ज्ञानी व्यक्ति कबीर घट- घट में प्राप्त करता है। बंद आंखों से जिसे सूरदास जैसी कविता बाल लीलाओं का वर्णन करती है। प्रेम की पीर में मग्न कवि मलिक मोहम्मद जायसी जिसके मूल के अर्थों में ही स्वयं को पाता है और लौकिक-अलौकिक की जिज्ञासाओं को समझने का प्रयास करता है। स्वयं अपने को दास भाव से समर्पित पूजा अर्चन करने वाला कवि तुलसीदास प्रभु श्री राम के दिव्य अलौकिक रूप को रामचरित्र मानस में साकार करता है। यह सब भारतीय परंपरा का चिंतनीय विकास ही तो है। जिसे आधुनिक काल में कवि जयशंकर प्रसाद चिंता से आनंद लोक की अमर यात्रा का वर्णन करते हुए अपनी चिंतन परंपरा को समझने एवं समझाने का प्रयत्न कर रहे हैं। संपूर्ण हिंदी साहित्य भी अतीत एवं वर्तमान के काल खंडों से होते हुए सतत विकासात्मक नदी की तरह भारतीय चिंतन परंपरा के कई विविध आयामों को रेखांकित करता हुआ बढ़ रहा है।
गीता में कर्म योग का संदेश मनुष्य को भौतिक जगत में जीने की प्रेरणा देता है। आज संपूर्ण समाज के समक्ष अगर कोई व्यक्ति बुरी आत्माओं की परिधि में स्वयं कैद हो जाता है तो गीता का संदेश उसका मार्गदर्शन तय करता है। यह वही संदेश है जो अर्जुन जैसे गांडीवधारी वीर धुरंधर योद्धा को रणक्षेत्र में अग्निकुंड के समान वीर पुरुष बना देता है। यह भारतीय चिंतन परंपरा का ही ज्वलंत प्रमाण है कि व्यक्ति लक्ष्य विहीन होने के बावजूद भी सकारात्मक जीवन दृष्टि को धारण करते हुए अपने लक्ष्य को प्राप्त करने में सक्षम होता है। यह साधारण बात तो है परंतु इस साधारण बात के भीतर भारतीय चिंतन परंपरा की असाधारणता गहराई से अपनी जड़े जमाई हुई है।
हमारी भाषा एवं बोलियों में, संस्कृति एवं समाज में, तीज़ एवं त्योहारों में, तीर्थ स्थानों में, रहन-सहन, खान-पान, भाईचारे आदि बिंदुओं में भारतीय चिंतन परंपरा का विकास झलकता है। पर्वतीय प्रदेशों की सरलता एवं सहजता में, तराई क्षेत्र की जीवन शैली में, संपूर्ण जगत की चराचर सभ्यताओं में, भारतीय चिंतन परंपरा का स्थाई विकास अनवरत रूप से गतिमान है। हमारे देश में गाय, गंगा और गीता की पवित्रता में चिंतन धारा का सतत विकास अपना अजस्र स्रोत लिए हुए बह रहा है और संपूर्ण मानव जगत को कर्म योग की शिक्षा दे रहा है।
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