शुक्रवार, 21 जुलाई 2023

भाषा की नैसर्गिक प्रवृत्ति और मूल्य चेतना -* *©डॉ चंद्रकांत तिवारी*

 *भाषा की नैसर्गिक प्रवृत्ति और मूल्य चेतना -*

©डॉ. चंद्रकांत तिवारी

उत्तराखंड प्रांत 

भाषा सामाजिकता का सेतु है और समाज संस्कृति का हेतु है।

समाज सामाजिक संबंधों का एक जाल है। भाषा संगीत, सुर, लय, ताल है। समाज में रहते हुए ही हम सब संस्कृति और सभ्यता के समन्वय से मानव समाज का एक आधार स्थापित करते हैं। जीवन की प्रत्येक घटना, परिघटना और समाज का ढांचा सब के मूल में भाषा ही विद्यमान होती हैं। 

जीवन-जगत की इसी दिनचर्या को आत्मसात करते हुए मानव समाज को परस्पर एक-दूसरे को जोड़ने एवं भावनात्मक स्तर पर जीवन यापन करने के लिए भाषा के बारे में जब भी सोचता हूंँ, जब भी कभी समाज के यथार्थ से साक्षात्कार करता हूंँ तो एक शोधात्मक दृष्टिकोण एवं शब्दमाला-सी तैयार हो जाती है और मन मस्तिष्क में एक ऐसी परिकल्पना का निर्माण हो जाता है जिसका उद्देश्य और जिसका लक्ष्य समाज में रहकर, समाज का होकर ही भावनात्मक स्तर से सामाजिक जीवन यापन करना है।

समाज की सबसे छोटी इकाई परिवार है। परिवार में रहकर ही बालक अपनी प्राथमिक पाठशाला के रूप में, अपनी माता के आंँचल में रहकर मातृभाषा को सीखता है और बोलता है। परिवार से दूर जब एक समाज का निर्माण होता है तो समाज में रहकर विद्यार्थी धीरे-धीरे सामाजिक प्रक्रिया के अंतर्गत स्वयं में कई प्रकार के बदलाव महसूस करता है। यह बदलाव उसको सामाजिक, धार्मिक, सांस्कृतिक और मनोवैज्ञानिक रूप से प्रभावित करते हैं। 

एक ऐसा समाज जहांँ रहकर व्यक्ति मनोवैज्ञानिक रूप से लोगों को समझता है और भावनात्मक रूप से लोगों के साथ जुड़ाव महसूस करता है। इन सब कार्यों में भाषा का सामर्थ्य और भाषा की शक्ति मानवीय गुणों में सर्वोपरि स्थान रखती हैं और अमृत-सी शक्ति प्रदान करती है। 

कुछ इस प्रकार के ही बिंदुओं को ध्यान में रखते हुए भाषा की शक्ति और सामर्थ्य से मानवीय मूल्यों का विकास, संस्कृति का उत्थान और पतन और एक सफल राष्ट्र का निर्माण जिसकी नींव में माननीय सामर्थ्य विद्यमान है। 

मानव सभ्यता एवं प्राणी-जगत अपना जीवन यापन करते हुए एक दूसरे से सामाजिक, आर्थिक, नैतिक, धार्मिक और सांस्कृतिक कारकों के रूप में जुड़ा रहता है और जीवन जगत के विविध भावात्मक स्तरों से गुजरते हुए अपने लक्ष्य की ओर कुछ निश्चित उद्देश्यों को लेकर अग्रसर है।

समाज की संस्कृति और संस्कृति का समाज, लोक की बोली और बोलियों का लोक, लोक की संस्कृति और संस्कृति का लोक, भाषाई शक्ति, सामर्थ्य और साहित्य की संचित जमा पूंँजी को भक्तिकल के विभिन्न संदर्भों में समझाने का प्रयास किया जा सकता है। जीवन एक व्यापक दिशा दृष्टि प्रदान करता है। वास्तविकता से विमुख यथार्थ जीवन कई संभावनाओं एवं घटनाक्रमों को लेकर सम्मुख उपस्थित है। इस व्यापक जीवन को जीने के लिए मानवीय मूल्यों का सृजन और निर्माण करने के साथ-साथ भावनात्मक रूप से वस्तुओं को सहेजने का भाव भी जीवन जगत के विभिन्न संदर्भों में दर्शाया गया है। मानवीय शाखा एवं सामाजिक जीवन के यथार्थ को मनोवैज्ञानिक रूप से समझने के लिए यह शोधकर्ताओं ने जननायकों द्वारा महत्वपूर्ण कार्य किया गया। मानवीय मूल्यों के लिए उनका यह कार्य स्वयं में आत्मानुशासन सर्वोच्च कोटी का स्थान रखता है। इस शोध आलेख में भाषा की प्रासंगिकता की उपादेयता विभिन्न मौलिक सूक्ति वाक्यों द्वारा निर्मित की गई है।

साहित्य जनता की चित्तवृत्तियों का इतिहास होता है। इतिहास किसी भी समय की भौगोलिक, सामाजिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक, धार्मिक एवं साहित्यिक गतिविधियों को बताते हुए भविष्य की ओर दिशा संकेत प्रदान करता है। तो वहीं दूसरी ओर समाज के सम्मुख युगबोध की स्थिति को बताते हुए संभावनाओं को विभिन्न क्षेत्रों का रूप धारण करते हुए बताता है।

जीवन की विभिन्न गतिविधियों को सामाजिक ताने-बाने को समाज में रहकर ही महसूस किया जा सकता है। समाज से दूर जाकर ना भाषा का विकास होगा, ना संस्कृति का। न ही सभ्यता की रक्षा हो पाएगी और न ही मानवीय मूल्यों का सृजन हो पाएगा। इसलिए भाषा और संस्कृति समाज के धरातल पर निर्मित, पल्लवित, पुष्पित और प्रवाहित, परिशोधित होती रहती हैं। सृजन और निर्माण का श्रोत यहां जीवन भर चलता रहता है। नदी की धारा की तरह जीवन की गति की दिशा बहता रहता है, जीवन का श्रमकण । बह जाती है जीवन की कथा की लघु सरिता अखंड हिमालय के श्री चरणों से।

हालांकि भाषा जीवन के व्यापक क्षेत्र को जोड़ती है। हर वर्ग के व्यक्ति को जीवन जीना भी सिखाती है। साहित्य समाज का दर्पण होने के साथ-साथ एक ऐसा प्रतिबिंब है जिसमें प्रत्येक व्यक्ति अपना चेहरा देखता है। साहित्य पढ़ने से व्यक्ति का मानसिक क्षितिज व्यापक स्तर पर पहुंँच जाता है। जीवन-जगत के सभी दृश्यों का आंँकलन और मूल्यांँकन साहित्य जगत में साक्षात दिखता है। कोई भी व्यक्ति और कोई भी समाज साहित्य से अछूता नहीं है। भाषा तो माध्यम का विषय होने के साथ-साथ मूल विषय भी है। भाषा ही साहित्य को व्यापक आधार प्रदान करती है। 

नैतिक चरित्र और मानवीय मूल्य एक दूसरे को औद्योगिक एवं व्यावसायिक रूप से, भाषा के संदर्भों में, समाज के संदर्भों में, संस्कृति के संदर्भों में, रहन-सहन, परिवेश, प्रेरणा, राष्ट्रवाद एवं स्वप्रेरित, नैतिक चरित्र के साथ-साथ सांस्कृतिक एवं धार्मिक रूप से भी व्यक्ति से समाज को और समाज से राष्ट्र को, राष्ट्र से परिवार को और परिवार से प्रत्येक देशवासी को जोड़ता है। यही जीवन की कथा है। कथा में कई व्यथा है। परंतु कथा निरंतर और अनवरत चलती जा रही है। एक हिमालय से निकलने वाली नदी की धारा की तरह, शीतलता प्रदान करती जा रही है।

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