"मैं मेरे देश के लिए"
(©डॉ चंद्रकांत तिवारी )- उत्तराखंड प्रांत
भारतीय संस्कृति और भारतीय परंपरा की नींव में राष्ट्रवाद, राष्ट्र के प्रति मरने का भाव, सर्वस्व निछावर करने का भाव और विश्वविजय बनने का भाव, भारतीय संस्कृति, परंपरा और आधुनिकता को भाषा, साहित्य और संस्कृति के आचरण में ढालने का भाव और वैश्विक स्तर पर अपना स्थायित्व बनाने का भाव ही "मैं मेरे देश के लिए" विषय पर लोगों को प्रेरित कर सकता है। हमें अपनी प्राचीन संस्कृति को अक्षुण्ण रखते हुए, आधुनिक समाज की विकास यात्रा के साथ आगे बढ़ना होगा। हमें अपने आप को पहचानना होगा-
''हम कौन थे,क्या हो गये और क्या होंगे अभी,
आओ विचारें आज मिलकर,ये समस्याएँ सभी।
यद्यपि हमें इतिहास अपना प्राप्त पूरा है नहीं,
हम कौन थे, इस ज्ञान को, फिर भी अधूरा हैं नहीं।''
राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त ने ‘भारत-भारती’ में मर्मान्तक वेदना का अनुभव करते हुए उपर्युक्त पंक्तियां लिखी हैं। हम कौन थे? हमारा अतीत गौरवशाली और समृद्ध था। हम चरित्र के धनी थे।
देश भक्त वीरों मरने से नेक नहीं डरना होगा
प्राणों का बलिदान देश की वेदी पर करना होगा।
नाथूराम शर्मा शंकर 'शंकर सर्वस्व' अपने काव्य संग्रह में देश पर सर्वस्व बलिदान निछावर करने की प्रेरणा देते हुए भारतीय जनमानस से आवाह्न करते हैं।
कवि गया प्रसाद शुक्ल ' स्नेही ' राष्ट्र सेवा के लिए प्राणों की बाज़ी लगा देने वाले ऐसे वीरों का आवाह्न करते हैं जो मातृभूमि पर भावनात्मक रूप से जुड़ते हुए देश सेवा के लिए हमेशा अग्रिम पंक्ति में रहते हैं। ऐसे वीरों धुरंधरों का आवाह्न देश को तरक्की और प्रगति की राह पर लेकर चलने वाला होता है। अगर देश का विकास करना है तो प्रत्येक व्यक्ति को अपना शत-प्रतिशत योगदान देना होगा। मातृभूमि पर सर्वस्व निछावर करने का भाव रखते हुए आगे बढ़ना होगा । कुछ इस प्रकार से अपने भावों को व्यक्त करते हैं और कहते हैं कि -
जो भरा नहीं है भावों से , बहती जिसमें रसधार नहीं
वह हृदय नहीं वह पत्थर है , जिसमें स्वदेश का प्यार नहीं।
राष्ट्रीय सांस्कृतिक भावना एवं सांस्कृतिक जागरण के प्रवर्तक कवि जयशंकर प्रसाद अपने नाटक चंद्रगुप्त में देश के जांबाज युवाओं से आवाहन करते हैं कि देश सर्वोपरि है राष्ट्र सर्वोपरि हैं अगर आप इस मिट्टी से बने हो तो इस मिट्टी के कर्ज को चुकाने के लिए सर्वस्व निछावर करने के भाव से आगे बढ़ो हिमालय जोकि सभ्यता संस्कृति और समाज के साथ-साथ अपार धैर्य रखते हुए वीरता का आदि पुरुष है उसका आवाहन करते हुए भारत के पुत्रों मातृभूमि पर सर्वस्व निछावर करने का संकल्प लेते हुए आगे बढ़ते रहो।
यह एक आवाह्न गीत है और युद्ध भूमि में चंद्रगुप्त मौर्य की सेनाओं द्वारा दुश्मनों पर प्रहार करने वाला प्रयाण गीत है। जिसे जयशंकर प्रसाद जी ने अपने 'चंद्रगुप्त ' नाटक में उद्धृत किया है। प्रसाद जी कहते हैं कि -हे भारत के वीर पुत्रों मैं मेरे देश के लिए इस भाव को लेकर आगे बढ़ो विश्व की विरासत तुम्हारा इंतजार कर रही है-
हिमाद्रि तुंग शृंग से प्रबुद्ध शुद्ध भारती
स्वयं प्रभा समुज्ज्वला स्वतंत्रता पुकारती
'अमर्त्य वीर पुत्र हो, दृढ़- प्रतिज्ञ सोच लो,
प्रशस्त पुण्य पंथ है, बढ़े चलो, बढ़े चलो।'
कवि रामधारी सिंह दिनकर स्वप्रेरणा, स्वअनुशासित और आत्मसंस्कारित प्रेरणा को प्रदान करने वाली आत्मिक चेतना जो मां मातृभूमि और मातृभाषा से अनुशासित होते हुए संगठन की विकास यात्रा में सहायक होती है का आवाहन करते हुए विषम परिस्थितियों में भी प्रसन्न रहकर राष्ट्र के लिए सर्वस्व निछावर करने के भाव को लेते हुए कहते हैं कि-
लोहे के पेड़ हरे होंगे , तू गान प्रेम का गाता चल
नम होगी यह मिट्टी ज़रूर , आंँसू के कण बरसाता चल।
"मैं मेरे देश के लिए" क्या कर सकता हूं ? जिससे मेरा राष्ट्र, मेरी मातृभूमि, मेरी मातृभाषा और जन्म देने वाली मेरी मांँ विगत कई युगों तक भारतीय समाज में स्मरण की जाए। अगर राष्ट्र को तरक्की एवं विकास की राह में आगे लेकर जाना है तो प्रत्येक व्यक्ति को लोहे की एक छोटी सी कड़ी के समान मजबूत होना पड़ेगा। तभी एक मजबूत ज़ंजीर का निर्माण हो पाएगा। जिससे हम किसी भी कार्य को आसानी से कर सकते हैं। एक ऐसी जंजीर जिसे हम आत्मरक्षा के साथ-साथ अपने दुश्मनों पर बचाव के लिए साधन के रूप में इस्तेमाल कर सकते हैं।
राष्ट्र की प्रगति एवं विकास के लिए प्रत्येक व्यक्ति का शत प्रतिशत योगदान आवश्यक है। अनुशासन और संगठन प्रत्येक व्यक्ति की विकास यात्रा को सहायता प्रदान करेगा।
डॉ चंद्रकांत तिवारी
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