गुरुवार, 27 जुलाई 2023

आशा अमरधन स्वरचित कविता - डॉ चंद्रकांत तिवारी

आशा अमरधन

स्वरचित कविता - डॉ चंद्रकांत तिवारी 


"वह फूल ही क्या 

जिसमें मिट्टी के कण न हों 

वह जीवन ही क्या 

जिसमें दुख के क्षण न हों ।


मुश्किलें तो हर पल 

नए रास्ते दिखलाती हैं 

रास्तों पर दृढ़ होकर 

चलना ही जीवन है।"

©चंद्रकांत तिवारी 

शहीद स्मृति - डॉ चंद्रकांत तिवारी - उत्तराखंड प्रांत

शहीद स्मृति     

©डॉ. चंद्रकांत तिवारी - उत्तराखंड प्रांत 

 प्यारे नेता चले गए संस्कार अभी तक बांँकी है

हिंद देश के वासी हैं आजाद हिंद की खाकी है

सुनों युवा भारत के वासी नाम सुभाष का काफी है

शहीद हुए वह देश के खातिर जीवन उनका सन्यासी है

जो न लड़ सका देश के खातिर चेहरा उसका आभासी है

फिरंगी कूच कर गए वतन से स्वराज्य अपना अभिलाषी है

आजादी के अमर सेनानी यह विरासत अमृतवाणी है 

बंद तलवार रह गई म्यानों में सूर्योदय कहांँ कल्याणी है

जो रूधिर वसन में लिपट न पाया वह रूधिर नहीं वह पानी है

जो अपने वंश को बचा ना पाया

वह धर्म-चरित्र अज्ञानी है ।


उठ न सका अपने पैरों पर राष्ट्र भला बच पाएगा

किस घर जाकर ढूंँढ रहें हम

सुभाष क्या वापस आएगा

स्वराज्य हमारा - राज्य हमारा

हिंद-विरासत पूरी छोड़ गया

फौलाद इरादों का युग-बालक 

विरासत-उपवन छोड़ गया

भारतमाता-अमरकोश मिट्टी से रिश्ता जोड़ गया ।


ऊंँचे हों आदर्श युवा के पदचिन्ह सुभाष के बांँकी हैं 

हम कथनी-करनी का अंतर भूल गए

फिर किस बात की हमको मांँफी है 

जो नहीं कर सके रण-अभिषेक

भला युद्ध कहांँ वह जीतें हैं

न तिलक शहीदों की मिट्टी का

कब गंगाजल भर पीते हैं ।


जो अपने ही आंँसू को सैलाब बनाकर पीते हैं

निज रुधिर-रक्त की धारों में स्वाभिमान बनाकर जीते हैं

है राष्ट्र-वसन जिनका यश-वैभव कफन तिरंगा ओढ़ा है

ऐसे ही जांँबाज़ युवा ने फिरंगी का मस्तक तोड़ा है 

कण-कण खून बहाया अपना आजादी का बिगुल बजाया था

प्यारे सुभाष ने अपने रक्त से आजादी का स्वप्न सजाया था।


स्वरचित -

©चंद्रकांत तिवारी

बुधवार, 26 जुलाई 2023

भाग - एक *क्या अनिवार्य मिलिट्री सेवा से सेना का हित होगा ? पक्ष और विपक्ष* ©डॉ.चंद्रकांत तिवारी

*क्या अनिवार्य मिलिट्री सेवा से सेना का हित होगा ? 

पक्ष और विपक्ष*

©डॉ.चंद्रकांत तिवारी - उत्तराखंड प्रांत 


*पक्ष-*


"मुझे तोड़ लेना बनमाली, उस पथ पर देना तुम फेंक!

मातृ-भूमि पर शीश- चढ़ाने, जिस पथ पर जावें वीर अनेक!"


देश सेवा के भाव क्या होते हैं कवि माखनलाल चतुर्वेदी जी की उपर्युक्त कविता पुष्प की अभिलाषा से प्रकट होता है।     


भारतवर्ष की गौरव गाथा, यहां की सेना के जवानों की कार्यकुशलता वीरता से भरी पड़ी है। देश सेवा, राष्ट्रवाद और अनुशासन भारतीय सेना का मूल मंत्र है। विषम परिस्थितियों में भी भारतीय सैनिकों की कार्यकुशलता, साहस और मनोबल का विश्व स्तर पर सम्मान होता आया है। अगर हमें कुशल नेतृत्व मिल जाए तो हम विश्वविजय की दिशा में होंगे और यह सब हमारे देश के युवाओं की बदौलत संभव है। 


            गांव की सड़कों से दौड़ता हुआ भारत का युवा सेना में आकर अपने आप को गौरवान्वित महसूस करता है कि वह सेना का अभिन्न अंग है। उसकी वर्दी के सितारे उसकी किस्मत के सितारों से भी बढ़कर होते हैं। वह उनकी चमक कभी कम नहीं होने देता है। सांसे थम जाएं तो क्या? रक्त जम जाए तो क्या? फिर भी सेना का जवान कर्तव्य पथ पर अपने प्राणों की बाजी लगा देगा। ऐसे रणबांकुरे, धुरंधर योद्धाओं की जीत हमेशा पथ चूमती है। बुरा वक्त भी ऐसे जांबाज योद्धाओं के जीवन में यश लेकर आता है। वीरता की कुछ ऐसी परिभाषा भारतीय सेना के जांबाज योद्धा रणक्षेत्र में देते हैं।

"जो भरा नहीं है भावों से, बहती जिसमें रसधार नहीं

वह हृदय नहीं, वह पत्थर है, जिसमें स्वदेश का प्यार नहीं।"


कवि गया प्रसाद शुक्ल 'स्नेही' जी की यह पंक्ति स्वदेश प्रेम और राष्ट्रप्रेम को दर्शाती है। राष्ट्रवाद की इससे सच्ची परिभाषा और क्या हो सकती है कि सेना स्वयं राष्ट्रभक्ति का स्वर्णिम मौका दे रही है।


            आज देश का हर कोई युवा भारतीय सेना का अंग बनना चाहता है और इस वर्दी की चाह को पूर्ण करना चाहता है। देश सेवा के लिए भारतीय सेना में आकर तन-मन से राष्ट्र को समर्पित होता है। आज हमारी सरकार युवाओं के सपनों को पूरा करने के लिए और सेना को युवा सैन्य बल प्रदान करने के लिए प्रयासरत है। इसी व्यवस्था के तहत 'टूर टू ड्यूटी' का विकल्प लेकर देश की सरकार रक्षा मंत्रालय के साथ मिलकर भारतीय सेना में नए जोशीले रणबांकुरों की फ़ौज को कर्तव्य की नई दिशा और राष्ट्रवाद की परिभाषा सिखाने के लिए वचनबद्ध है और एक मजबूत आधार प्रदान करना चाहती है।

देश की हर मां अपने बेटे के बदन पर सेना की वर्दी देखना चाहती है। जब एक बूढ़ी मां अपने बेटे को देश की रक्षा के लिए घर से विदा करती है तो वह कहती है! जा बेटे.. कर्तव्य पथ पर.. भारत मां की रक्षा के लिए अगर प्राणों का भी उत्सर्ग करना पड़े तो कभी पीछे मत हटना बेटा.. हमेशा आगे बढ़ते जाना। मां से किए वादे को पूर्ण करने के लिए अपनी मातृभूमि की रक्षा के लिए देश का युवा, सेना में आने के लिए, सेना के तौर तरीके सीखने के लिए, अपना खून पसीना एक कर देता है और भारतीय सेना का अभिन्न अंग बन कर अपने आप को गौरवान्वित महसूस करता है कुछ इस प्रकार का है हमारे देश का युवा रक्त। जिसकी धमनियों में रक्त का तूफान एक सैलाब बनकर उमड़ रहा है। सेना का कुशल नेतृत्व और अनुशासित वातावरण ऐसे सैलाब को नई दिशा और गति देगा। यह सेना के लिए भी गौरव की बात है।


            परंतु कुछ लोगों को इस बात से आपत्ति है कि अगर अनिवार्य सैन्य सेवा विकल्प को भारत की सेना का अंग बना लिया जाएगा तो इससे हमारी सेना कमजोर पड़ जाएगी। क्योंकि 3 वर्ष का समय (शॉर्ट सर्विस) काफी कम है। परंतु महोदय ऐसे लोगों को मैं यह बता देना चाहता हूं कि भारतीय सेना में कार्य करने के लिए 1 दिन भी अपने आप में बहुत बड़ी अवधि है। भारत जैसे देश जहां बेरोजगारी का ग्राफ दिन प्रतिदिन बढ़ता जा रहा है, योग्यता और काबिलियत सड़कों पर बेरोजगार घूम रही है। ऐसे में कम से कम तीन वर्ष के लिए भारतीय सेना में युवाओं को नौकरी देना और उनको सैनिक गतिविधियों का प्रशिक्षण देकर देश को वैश्विक स्तर पर एक नई दिशा देना अपने आप में प्रभावी, कारगर, सटीक एवं प्रभावपूर्ण शुभ संकेत हैं। जिस पर तुरंत कार्य होना चाहिए। इससे हमारे देश को और हमारी सेना को फायदा ही होगा। कोई नुकसान नहीं होगा।


            प्रशिक्षण किसी भी साधारण व्यक्ति को असाधारण बना सकता है। मैं यह मानता हूं कि पेशेवर सैनिक ज्यादा कारगर एवं प्रभावी, सटीक एवं कुशल नेतृत्व, रणकौशल में पूर्ण होता है। परंतु 'अनिवार्य मिलिट्री सेवा' के अंतर्गत भी प्रवेश लेने वाला अधिकारी या जवान प्रशिक्षित, अनुशासित वीरता और विवेक को धारण करने वाला ही होगा। क्योंकि देश के युवाओं को आर्मी से जोड़ने का यह सुनहरा अवसर है। अभी यह व्यवस्था प्रारंभिक चरण में ही है। इस व्यवस्था से धीरे-धीरे संपूर्ण राष्ट्र में देशभक्त, देशभक्ति और राष्ट्रवाद का उदय होगा। यह व्यवस्था नए वॉलिंटियर्स को जन्म देगी। जिससे भविष्य का राष्ट्र, हमारा भारतवर्ष अपनी प्राचीन गौरवमयी परंपरा का अनुसरण करेगा। वर्दी की इच्छा रखने वाले युवाओं के लिए भी यह क्षेत्र नए विकल्पों को लेकर आएगा 'अनिवार्य मिलिट्री सेवा' के अंतर्गत 3 वर्ष के कार्यकाल में 9 महीने की मिलिट्री ट्रेनिंग के साथ-साथ प्रवेश परीक्षा और मानसिक एवं शारीरिक मापदंड पहले जैसे ही रहेंगे इस बात से तो कोई समझौता नहीं किया गया है।

इसका सकारात्मक पहलू यह रहेगा कि सेना का पैसा बच जाएगा। जैसे ग्रेच्युटी पेंशन नहीं मिलेगी। अभी वर्तमान में 10 साल में अधिकारी पर कम से कम 5 करोड़ रूपये खर्च आता है। और 14 वर्ष तक जो अधिकारी सेना में कार्य करता है एक अनुमान के तहत 7 करोड़ रूपये उस पर खर्च होते हैं। परंतु अब यह मात्र 3 वर्ष में अगर 'अनिवार्य मिलिट्री सेवा' के अंतर्गत 'टूर आफ ड्यूटी' 'शॉर्ट सर्विस' विकल्प को अपनाया जाता है तो केवल 85 लाख में 3 साल के लिए सेवा ली जा सकती है। इसका एक लाभ यह होगा कि अगर पैसा बचेगा तो वह सेना के अन्य संसाधनों में प्रयोग किया जाएगा। अभी व्यवस्था प्राथमिक चरण में ही है। जिसमें 100 अधिकारी और 1000 जवान प्रारंभिक व्यवस्था को स्थाई धरातल प्रदान करेंगे।

            हमें इजराइल, रूस, उत्तर कोरिया, दक्षिण कोरिया, ग्रीस, स्विजरलैंड, तुर्की, ईरान, क्यूबा, नार्वे आदि देशों से सीखना चाहिए। यहां पुरुष ही नहीं बल्कि महिला भी अनिवार्य रूप से सैन्य सेवा के लिए समर्पित हैं। यहां भी मात्र निश्चित समय के लिए ही जिसमें 1 वर्ष या फिर 2 वर्ष तक 'अनिवार्य मिलिट्री सेवा' दी जाती है। महोदय प्रत्येक देश की भौगोलिक, सामाजिक और राजनीतिक व्यवस्था उस देश की सांस्कृतिक मूल्यों के अनुरूप ही होती है। परंतु हम विकसित राष्ट्र का चोला पहनकर वास्तविकता से तो मुंह नहीं मोड़ सकते और वास्तविकता यही है कि हमें समय के साथ चलना चाहिए। वैसे भी महोदय युद्ध हमेशा ही नहीं होते। फिर भी हमें हमेशा युद्ध की तैयारियों के अनुरूप व्यवस्था और अभ्यास को बनाए रखना चाहिए। यह भी एक कटु सत्य है कि युद्ध से बढ़कर भी देश की व्यवस्था को बनाना और सामाजिक एवं मानवीय प्रबंधन स्थापित करना है। देश को चलाना यह बात भी अपने आप में महत्वपूर्ण है।


 कुछ आलोचक धार्मिक, वैचारिक वह राजनीतिक रूप से 'अनिवार्य मिलिट्री सेवा' विकल्प को लेकर परेशान नजर आ रहे हैं। ऐसे लोगों को मैं यह कहना चाहता हूं कि भारतवर्ष की सांस्कृतिक विरासत के मूल में राष्ट्रवाद निहित है। यहां सब धर्मों से बढ़कर राष्ट्रवाद का सूरज चमकता है। यहां सूर्य की पहली किरण जब हिमालय पर्वत पर पड़ती है तो उसके प्रकाश से संपूर्ण भारतवर्ष उज्जवल सितारे की तरह चमकता है। ऐसे में भारत के प्रत्येक नागरिक का यह कर्तव्य बन जाता है कि देश की सुरक्षा वह इस प्रकार करे जैसे वह अपने घर की सुरक्षा करता हो। 

यह देश भारत के प्रत्येक युवा के सपनों का देश है। इसलिए इस देश के विकास और प्रगति के लिए और रक्षा सुरक्षा के लिए सभी की सहभागिता अत्यावश्यक है। देश के युवाओं से अपेक्षा अधिक है। इतिहास इस बात का गवाह है कि कई विदेशी आक्रांता हमारे देश में आतंक के मकसद से आए और हमें नुकसान पहुंचाया। हमारी संपत्ति को नुकसान पहुंचाया। अगर हमारी सुरक्षा व्यवस्था और एकता बनी रहती तो हम अंग्रेजों के गुलाम न होते। हम भारतीयों ने उपनिवेशवाद की लंबी यात्रा के बाद अपनी निजी विकास की यात्रा स्थापित की है। इसलिए हम सब का परम कर्तव्य बनता है कि समाज और देश के विकास में, मानवता के विकास के लिए कोई भी छोटा या बड़ा कार्य हो, उसमें प्रत्येक नागरिक का अंशदान होना चाहिए। भारत सभी धर्मों का देश है और राष्ट्र की प्रगति, उन्नति, सुरक्षा के लिए मानवता सबसे बड़ा धर्म है। मानवता की रक्षा के लिए 'अनिवार्य मिलिट्री सेवा' विकल्प बहुत जरूरी है। भारत का प्रत्येक नागरिक प्रशिक्षित और सैन्य क्षमताओं से पूर्ण प्रशिक्षित हो ऐसी व्यवस्था को जमीनी स्तर पर उतारने की योजना का स्वागत करना चाहिए।

            कुछ आलोचकों द्वारा यह कहा जा रहा है कि अनिवार्य मिलिट्री सेवा के लिए 'समय बहुत कम है।' परंतु यह उतना महत्वपूर्ण नहीं कम समय में भी देश का युवा सेना को शत प्रतिशत योगदान दे सकता है। यह तो कार्यशैली पर निर्भर करता है कि किस तरह कम समय में सटीक एवं प्रभावपूर्ण नेतृत्व द्वारा देशहित के लक्ष्य को ध्यान में रखते हुए कार्य को पूर्ण किया जा सकता है। कम समय में अधिक से अधिक युवाओं को प्रशिक्षित करके देश सेवा के प्रति समर्पण का भाव जागृत हो सके यह ज्यादा महत्वपूर्ण है। यह भविष्य का शुभ संकेत है। इससे सेना का तो हित होगा ही साथ ही देश का, देशवासियों का भी हित संभव है।

हम भारतीयों ने उपनिवेशवाद की लंबी यात्रा के बाद अपनी निजी विकास यात्रा प्रारंभ की है। भारत विविधता में एकता, वसुधैव कुटुंबकम, सर्वधर्म समभाव की नीति अपनाने वाला राष्ट्र है, यहां मानवता श्रेष्ठ धर्म है।

दुश्मन राष्ट्र हमारी सरहद पर बैठा है। अनिवार्य मिलिट्री सेवा के विकल्प पर अगर अभी भी कोई तटस्थ रहता है तो वह अपराधी है। 

'क्योंकि

" समर शेष है नहीं पाप का भागी केवल व्याध 

जो तटस्थ हैं समय लिखेगा उनके भी अपराध।"

क्रमशः...... 

मंगलवार, 25 जुलाई 2023

भाग - दो *क्या अनिवार्य मिलिट्री सेवा से सेना का हित होगा ? पक्ष और विपक्ष* ©डॉ.चंद्रकांत तिवारी

 *क्या अनिवार्य मिलिट्री सेवा से सेना का हित होगा ? 

विपक्ष-* 

©डॉ चंद्रकांत तिवारी - उत्तराखंड प्रांत 


'यह गहन प्रश्न है कैसे रहस्य बताऊं 

पेशेवर सेना के गीत कैसे-कैसे बतलाऊं 

यहां सरहद पर खून की होली होती है 

आंसुओं से भीगा दामन और चोली होती है।'


यह कैसी विडंबना है? अनिवार्यता का कैसा यक्ष प्रश्न है? क्या यह बैठी हुई डाल को काटने के सामान न होगा? यह तो स्वयं के पैर को कुल्हाड़ी पर मारने के समान है। स्वरचित पंक्तियों के माध्यम से मैं अपनी बात कहना चाहता हूं कि बालक अगर अंगारों से खेलना चाहे तो उसे यह करने नहीं दिया जाता। हाथ बढ़ाकर आसमान के तारे नहीं तोड़े जाते हैं। हर लक्ष्य तक विजय प्राप्त करने के लिए एक कुशल रणनीति का होना अति आवश्यक है। और कुशल रणनीति के लिए अभ्यास के साथ-साथ समय की भी जरूरत होती है। कम समय में पेड़ की जड़े भी मजबूत नहीं होती और ना ही उसकी शाखाएं उतनी परिपक्व हो पाती हैं। जितनी कि हम उस पेड़ से अपेक्षाएं रखते हैं। कच्ची मिट्टी का घड़ा भी अधिक देर तक जल को संचित नहीं रख सकता है। जिन पत्थरों का एक निश्चित आकार नहीं होता वह नदी के बहाव की दिशा में बह जाते हैं। ऊंची इमारत बनाने में नींव के पत्थरों को भी समय देकर तराशा जाता है। छैनी और हथौड़े की एक-एक चोट से उसके आकार को साकार किया जाता है। तब जाकर एक मजबूत इमारत खड़ी होती है।

 ठीक उसी प्रकार मनुष्य भी है उसको भी वस्तुओं को सीखने में समय लगता है। जल्दबाजी में किया गया कार्य हमेशा गलत परिणाम ही देता है। क्रोध में मीठी बात भी बुरी लगती है महोदय। कार्य की सफलता उसके उद्देश्यों में ही निहित होती है।

            निश्चित अवधि के लिए सेना के द्वार नहीं खोले जा सकते। यहां इनकमिंग समर्पण, देश सेवा, राष्ट्रभक्ति, अनुशासन और भारत माता की जय से प्रारंभ होती है और जब एक सैनिक की आउटगोइंग होती है तो वह तिरंगे का दामन लपेट कर, परम विजयी होकर परमवीर चक्र विजेता कहलाता है।

            आज अनिवार्य मिलिट्री सेवा की जो बातें चल रही हैं इसमें सेना का विशेष हित नहीं दिखता। यह एक बिना उद्देश्य की योजना है। क्या पैसा बचाना उद्देश्य है? या एक कुशल सेना का गठन करना पहली प्राथमिकता होनी चाहिए? यह सोचने की बात है महोदय हम देश की सुरक्षा व्यवस्था से कोई समझौता नहीं कर सकते सरकार जो 'टूर आफ ड्यूटी' के विकल्प के साथ 'अनिवार्य सैन्य सेवा' को लेकर प्रस्ताव रख रही है यह अकुशल लोगों को सेना में प्रवेश दिलाकर सेना को कमजोर करने वाली बात होगी।

            अनिवार्य मिलिट्री सेवा के नाम पर देश के युवाओं को मात्र 3 वर्ष सेना में प्रवेश दिला कर क्या हम एक मजबूत सेना का गठन कर पाएंगे?

            'टूर आफ ड्यूटी' के विकल्प को अपनाकर हम क्या पूर्ण रूप से प्रशिक्षित सेना का निर्माण कर पाएंगे?

            मैं यह स्पष्ट रूप से कहना चाहता हूं कि भारतीय सेना कोई टूरिस्ट प्लेस नहीं है कि यहां तीन वर्ष आओ और जाओ..! सेना की रणनीति को समझने के लिए 3 वर्ष का समय ऊंट के मुंह में जीरे के समान है।

यूनिट में आकर ऑफिसर्स और सेना के जवान को कई कोर्स करने होते हैं। जैसे 'यंग ऑफिसर्स कोर्स' समय-समय पर कराए जाते हैं। केवल अकादमी में ही ट्रेनिंग नहीं होती है। अकुशल व्यक्ति को सेना में कम समय के लिए रखना एकदम खतरे का काम है। अनिवार्य मिलिट्री सेवा से तो बेहतर यह होगा कि वर्तमान में जो अधिकारी हैं उनसे ही काम लिया जाए या फिर नए पदों को भरने के लिए अधिक से अधिक विज्ञप्तियां निकाली जाएं।  

वर्तमान सेना की संख्या बढ़ाने के लिए राज्य स्तर, जिला स्तर, तहसील स्तर, ब्लॉक स्तर, विश्वविद्यालय, महाविद्यालय या फिर विद्यालय स्तर पर भर्ती रैली का आयोजन किया जाए। साथ ही विद्यालयी शिक्षा से लेकर विश्वविद्यालय शिक्षा तक रक्षा- सुरक्षा, डिफ़ेंस स्टडीज एवं मेकैनिज्म अनिवार्य विषय को पाठ्यक्रम के केंद्र में लाया जाए। मानसिक और शारीरिक रूप से युवाओं को मजबूत बनाने के लिए योगाभ्यास को अनिवार्य किया जाए। NCC और NSS से सहयोग लिया जाए। शिक्षा, चिकित्सा और कृषि के क्षेत्र में आत्मनिर्भरता के भाव पैदा किए जाएं। राष्ट्र सेवा के लिए उपर्युक्त तीनों विषयों में कई क्षेत्र खुले हैं। युवाओं को बस दिशा देने की देर है। देश में NCC और NSS की इतनी शाखाएं हैं कि यहां काम करने वाले वॉलिंटियर्स को सेना की मुख्य धारा से जोड़ा जा सकता है। अगर देशभक्ति, राष्ट्रवाद, देश सेवा की बात है तो मात्र 3 वर्ष के लिए ही क्यों ? या कम समय के लिए ही क्यों ? कम से कम 10 वर्ष या उससे अधिक क्यों नहीं?

अगर हम इजराइल, रूस, उत्तर कोरिया, दक्षिण कोरिया, नार्वे, स्विजरलैंड, तुर्की, ग्रीस, ईरान या क्यूबा जैसे देशों से अगर हम अपनी तुलना करने की सोच रहे हैं तो अनिवार्य सेना के विकल्प वाली बात समझ से परे है। भारत एक विकसित राष्ट्र नहीं है। हमारा देश अभी विकास कर रहा है। हमारा सामाजिक, राजनीतिक और भौगोलिक परिवेश हमें इस बात की इजाज़त नहीं देता कि हम सैन्य संसाधनों एवं सुरक्षा चक्रों की गोपनीयता को समाज के समक्ष लाकर अनिवार्य सैन्य विकल्प को प्रस्तुत करते हुए रक्षा सूत्रों को सांझा कर दें।

आर्मी की सर्विस 3 साल देकर क्या हम युवाओं को प्राइवेट इंडस्ट्रीज के लिए छोड़ दें? यह तो प्राइवेटाइजेशन को बढ़ावा देने वाली बात हुई। कम से कम हमें सेना को प्राइवेटाइजेशन से दूर रखना चाहिए। एक परिपक्व युवा को प्रशिक्षित अधिकारी बनने में बहुत लंबा समय लगता है और फिर शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य भी बहुत जरूरी है। क्या इन बातों से समझौता किया जा सकता है?   

            हम कैसे भूल गए कि हमने सन् 1962, सन् 1971, सन् 1999 और प्रत्येक दिन LOC/LAC पर प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से युद्ध के माहौल से गुजर रहे हैं? क्या ऐसे में यह सही रहेगा कि हम कम प्रशिक्षित लोगों को सेना की मुख्यधारा से जोड़ दें?

            'अनिवार्य मिलिट्री सेवा' विकल्प के तहत इस फार्मूले को देश की आंतरिक व्यवस्था सुधारने के लिए कुछ क्षेत्र में अपनाया जा सकता है। जैसे भूस्खलन प्रभावित क्षेत्र, बाढ़ प्रभावित क्षेत्र, भारत के तटवर्ती क्षेत्रों में, आपदा प्रबंधन, पर्यावरण संरक्षण, केंद्र तथा राज्य स्तर की पुलिस फोर्स के अकादमिक तथा कार्यालयी कार्यों में, राज्य लोक सेवा आयोग से संबंधित क्षेत्रों में, देश की बहुचर्चित इमारतों, मंदिरों की सुरक्षा आदि क्षेत्रों में इस फार्मूले को अपनाकर प्रभावी बनाया जा सकता है। उपर्युक्त इन सभी क्षेत्रों में देश का युवा वर्ग अपनी शत-प्रतिशत सहभागिता निभाएगा।

आज हमें सेना में सूचना तकनीकी को और अधिक सक्रिय एवं मजबूत करने की महत्वपूर्ण आवश्यकता है। इस दिशा में कुछ वर्षों की शॉर्ट सर्विस या 'अनिवार्य सैन्य सेवा' फार्मूले को नहीं अपनाया जा सकता है। क्योंकि सूचना एवं तकनीकी तंत्र देश की सुरक्षा का मामला है यहां समझौता करना ठीक नहीं। सूचना और तकनीकी के क्षेत्र में सेना को तो स्थाई रूप से मजबूत बनाना समय की मांग है। हमें 'अनिवार्य सैन्य सेवा' फार्मूले को वर्तमान की 'प्रादेशिक सेना' के विकल्प के रूप में अपनाना चाहिए।

वैसे भी देश के युवाओं को अगर राष्ट्र सेवा करनी है तो अन्य बहुत सी ऐसी संस्थाएं हैं, अन्य बहुत से ऐसे कार्य हैं, कई क्षेत्र हैं जहां 3 वर्ष क्या उससे भी अधिक वर्षों तक सेवा दी जा सकती हैं। देश का युवा मस्तिष्क अन्य कई क्षेत्रों में जैसे शिक्षा, चिकित्सा, कृषि में प्रयोग में लाया जा सकता है। जिससे ब्रेन ड्रेन जैसी समस्या का निवारण भी हो जाएगा। परंतु क्या महज 3 वर्ष देश के युवा को अनिवार्य सैनिक सेवा दिलाकर हम अपनी ही राष्ट्रीय सुरक्षा और आंतरिक व्यवस्था को कमजोर न कर देंगे। कम समय के लिए आने वाले युवा वर्तमान सैन्य अधिकारियों से कैसा समायोजन रख पाएंगे यह भी अपने आप में विचारणीय प्रश्न है। इस प्रकार से तो हम एक कमजोर व्यवस्था बना रहे हैं। जो देखने में तो अच्छी होगी परंतु कार्यकुशलता और नेतृत्व में दीमक खाई हुई लकड़ी की तरह होगी। जो ना मजबूत आधार दे पाएगी और ना ही एक मजबूत सुरक्षा चक्र स्थापित कर पाएगी। हमें एक मजबूत राष्ट्रीय सुरक्षा चक्र स्थापित करना है तो हमें कम से कम 10 से 15 वर्ष तक 'अनिवार्य मिलिट्री सेवा' के लिए देश के युवाओं का चयन करना होगा और शारीरिक, मानसिक मापदंडों में कोई समझौता नहीं करना होगा।

हमारे सामने अतीत की कई कड़वी यादें हैं। हम अतीत और आज वर्तमान में प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से आतंकवाद, नक्सलवाद से जूझ रहे हैं। क्या तीन वर्ष की सेवा लेकर इन युवाओं को प्राइवेट इंडस्ट्रीज के लिए छोड़ दें? क्या सुरक्षा चक्रों की गोपनीयता को साझा कर दें? क्या देश की सुरक्षा व्यवस्था के साथ यह उचित होगा?

क्या सरकार अपनी कलम से वीरों का भाग्य इस तरह लिखेगी? जिन वीर सैनिकों ने देश पर सर्वस्व लुटा दिया उनकी जगह अनुभवहीनों का चयन कहां तक न्याय संगत है? राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर की यह पंक्तियां ऐसे ही वीर भारतीय सैनिकों की जय बोलेगी जिनकी बदौलत हम आज यहां हैं-

'जला अस्थियां बारी-बारी 

चिटकाई जिनमें चिंगारी 

जो चढ़ गए पुण्यवेदी पर 

लिए बिना गर्दन का मोल

कलम आज उनकी जय बोल।'

___________________

©डॉ. चंद्रकांत तिवारी 

असिस्टेंट प्रोफेसर हिंदी- 

इंडियन मिलिट्री एकेडमी 

 ((वर्तमान  - राजकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय थलीसैंण, पौड़ी गढ़वाल- उत्तराखंड ))

देहरादून, उत्तराखंड, भारत

            


भारतीय चिंतन परंपरा एवं श्रीमद्भागवत गीता-- ©डॉ. चंद्रकांत तिवारी


 भारतीय चिंतन परंपरा एवं श्रीमद्भागवत गीता-- 

© डॉ. चंद्रकांत तिवारी ( उत्तराखंड प्रांत)

मध्य हिमालय की उपत्यकाओं के मध्य, प्रकृति की परिधि के मध्य, मनुष्य की समाधि की परिधि की गहराइयों से, एकांत का केंद्रीयकृत नैसर्गिक आकर्षण, युगबोध की संस्कृति का अमर-जयघोष, जीवन संस्कृति के मूल्यांकन की गहराईयों की सभ्यताओं से निकला हुआ, अमृत मंथन के समान अमृत कलश भारतीय चिंतन परंपरा का स्वाभाविक विकास है। यह एकांत की संस्कृति का जयघोष है और प्रकृति का नाद् -मय सौंदर्य। एकांत के गर्भ से उपजा हुआ जीव मात्र की चिंतन धारा का स्वाभाविक विकास। यह किसी ग्रंथ का आधार नहीं अपितु संपूर्ण विश्व के आदि ग्रंथ इसी एकांत की संस्कृति के आधार ग्रंथ हैं। यही मानवता का सच्चा विकास है। यही अद्वैतवाद की संस्कृति का नाद् -मय सौंदर्य चित्रण भी है। यही भारतीय चिंतन परंपरा का स्वाभाविक विकास भी और यही भारतीय चिंतन की प्रक्रिया का मूल मंत्र भी।

" गाय, गंगा, गीता और गांँव की आधार संस्कृति का यथार्थ भी।"

साहित्य जनसमूह के हृदय का विकास है। एक ऐसा विकास जो मनुष्य को मनुष्य बने रहने की शिक्षा देता है। यह मौखिक भी हो सकता है और लिखित भी। परंतु वास्तविकता यह है कि साहित्य का लिखित रूप मानव जीवन की संचित राशि का कोश है और ऋषि मुनियों की आजीवन तपस्या का सकारात्मक प्रतिफल भी है। जो मानव सभ्यता को प्रकृति के साथ मिलाकर रहने की भावना का विकास भी कराता आया है। अर्थात मानव और प्रकृति का तादात्म्य स्थापित करता है। प्रकृति की गोद में बैठकर ही भूत, भविष्य और वर्तमान तीनों कालों का चिंतन किया जा सकता है। जब से प्रकृति का निर्माण हुआ है, यह धरती ने अपना अस्तित्व इस समस्त आकाशगंगा के परिदृश्य में स्थापित किया है। तब से प्राणी जगत की उत्पत्ति और उसके विकास के कथा का चिंतन, जन्म मरण का चिंतन, यश और वैभव का चिंतन, वीर और कायर का चिंतन, अपने और पराये का चिंतन, मानव सभ्यता का चिंतन, सजीव और निर्जीव का चिंतन, प्राणी जगत की उत्पत्ति का चिंतन, और इस समस्त भूमंडल का चिंतन, एक छोटे सा कण जो उदासीन बनकर इस भूमंडलीय परिदृश्य पर विचरण करता है, उसका चिंतन उदासीन पड़े मानव जीवन की भांति ही उस सूक्ष्म कण का वैज्ञानिक एवं दार्शनिक रूप से चिंतन, यह सब बिंदु चिंतन परंपरा की उत्पत्ति एवं विकास की प्रक्रिया के सतत विकासात्मक गति की चिंतन प्रक्रिया के ही कई आयाम है। इन आयामों से गुजरते- गुजरते मानव सभ्यता भी कभी रामायण तो कभी महाभारत के दृश्य दिखाती है। कभी इस धरती पर अपने आराध्य देव को बुलाने पर मजबूर हो जाती हैं। स्थिति इस जग की कुछ ऐसी है। जब- जब मानव सभ्यता बुरी आत्माओं के वशीभूत होकर मानवों का ही विनाश करने पर हावी हो जाती है तो ईश्वर को स्वयं धरती पर अवतारी पुरुष के रूप में प्रकट होना पड़ता है।यह गीता का उपदेश है जो स्वार्थ पर परमार्थ का, यथार्थ पर निहितार्थ का, असत्य पर सत्य का, मरहम बन कर सामने आता है और शीतलता प्रदान करता है। यही मानव सभ्यता का इतिहास है। यही कुरुक्षेत्र की विभीषिका की विध्वंसलीला का प्रमाण भी है। यही धरती पर अपने आराध्य देव को बुलाकर समर्पण का भाव भी दर्शाता है। जब -जब इस धरती पर धर्म पर अधर्म हावी होता है, तब -तब प्रभु स्वयं धरती पर अवतरित होकर मानव के कल्याण के परमार्थ का कारण बनते हैं। 

यह जीवन एक ऐसा रण क्षेत्र है जहां हर कुशल योद्धा निहत्था रह जाता है और उसकी नियति निहत्था बनकर युद्ध करने की रह जाती है। प्रभु स्वयं अपनी अमर वाणी से मानव सभ्यता का कल्याण करते हैं। यह जीवन एक कुरुक्षेत्र का रणक्षेत्र है। इस रणक्षेत्र में अपने आप में सक्षम होने के बावजूद भी अर्जुन जैसा योद्धा भी श्रीकृष्ण की दिव्य वाणी से अपने आप को ताजा महसूस करता है और गांडीव लेकर युद्ध करने को तत्पर होता है। बिना गुरु के ज्ञान संभव नहीं। स्वयं प्रभु श्रीकृष्ण जो मानव धर्म के प्रजा पालक हैं, लोक कल्याणकारी हैं, संपूर्ण जगत में धर्म की स्थापना करने के लिए अवतरित हुए हैं और कुरुक्षेत्र के रण क्षेत्र में महाभारत के नायक अर्जुन को कर्म की शिक्षा देते हैं। स्वयं उसका सारथी बनकर रणक्षेत्र में गीता के ज्ञान की अपार राशि लुटाते हैं। यह एक ऐसा गहरा चिंतन है जिसके मूल में ऋषि-मुनियों की तपस्या का फल प्रतिबिंबित होता है। यही भारतीय चिंतन की परंपरा का प्रतिफल है और मानव जीवन के कल्याण का सकारात्मक प्रयत्न भी। यह एक ऐसा पद है जिस पर सरलता एवं सहजता से मानव सभ्यता का इतिहास अपने स्वर्ण अक्षरों में लिखा गया है। भारतीय चिंतन की परंपरा में सनातन धर्म पद्धति सबके कल्याण की भावना और वसुधैव कुटुंबकम् का मंत्र समाहित होते हुए, अतिथि देवो भव का भाव भी प्रतिबिंबित होता है। भारतवर्ष का इतिहास यहां का रहन-सहन यहां की सामाजिक, सांस्कृतिक, धार्मिक स्थितियों के साथ-साथ राजनीतिक एवं भौतिक परिवेश भी उपर्युक्त कई बिंदुओं को प्रभावित करने वाले कारक के रूप में प्रकट होता है। यह भारतीय चिंतन की परंपरा का आदि स्रोत है और भारतीय चिंतन की वैश्विक स्तर पर ख्याति का आधार स्तंभ भी है। एक ऐसी परंपरा जिसे जानने के लिए इतिहास के प्राचीन स्रोतों को चिंतन एवं मनन के स्तर पर समझने एवं समझाने की आज वर्तमान समय में महत्वपूर्ण आवश्यकता है। 

सिंधु घाटी सभ्यता के इतिहास के काल खंडों को लेकर आज वर्तमान समय तक इतिहास एवं साहित्य के काल खंडों के अतीत का अध्ययन करते हुए उसका दार्शनिक मूल्यांकन एवं आंकलन किया जाए तो सब के मूल में संपूर्ण भारतीय संस्कृति, समाज, भाषा, सभ्यताएं अपना नवीन मार्ग तय कर रही हैं। यही भारतीय संस्कृति की चिंतन परंपरा का आदि स्रोत है। भारतीय चिंतन परंपरा का वैश्विक आधार भी इन्हीं प्रमुख बिंदुओं में प्रकट होता है। हमारा साहित्य हमें वैश्विक स्तर पर चिंतन के विभिन्न आयामों को स्थापित करने की शक्ति एवं बल देता है। चारों वेद ग्रंथ, वेदांग, उपनिषद, धर्म-ग्रंथ और भारत के आदि विश्वविद्यालय, भारतीय संस्कृति, समाज, सभ्यता एवं भाषाओं के साथ-साथ क्षेत्रीय बोलियां भी हमारी सभ्यता एवं संस्कृति का जयघोष स्थापित करती हैं। सब के मूल में भारतीय चिंतन परंपरा का विकास है। यह साधारण बात नहीं स्वयं में असाधारण विषय है। इसीलिए कहा गया है कि साहित्य जनसमूह के हृदय का विकास है। संचित राशि का आदि कोष है। भारतीय चिंतन परंपरा का विकास है। यह भारतीय चिंतन परंपरा किसी एक व्यक्ति की निजी भावना नहीं अपितु संपूर्ण मानवीय सभ्यता की चिंतन धाराओं एवं सभ्यताओं का परंपरागत, नैतिक, अमूल्य, अनवरत, अनगिनत, अगणित, अव्याप्त, अतुलनीय, अनुपम, असंख्य आकर्षणों की चेतनाओं का चिंतन विकास है। अतीत के गर्भ से निकलने वाले अमृत कलश की बूंदों से नवयुग की लालिमा का विकास है। समुंद्र मंथन से निकलने वाले अमृत की बूंदों के मध्य विष को पीने वाले शिव अर्थात विष को भी सरलता एवं सहजता से प्राप्त करने वाले आदि पुरुष की चिंतन परंपरा है। 

भारतीय चिंतन परंपरा को ढूंढने के लिए किसी पद एवं प्रतिष्ठा की कोई अभिलाषा नहीं होनी चाहिए। अगर उस चिंतन परंपरा को यथार्थ के धरातल पर ढूंढना है तो व्यक्ति एवं मानव सभ्यता को स्वयं के भीतर अपने ईश्वर को तलाश करना होगा। वह किसी रण क्षेत्र में नहीं मिलेगा और नहीं देवालय में मिलेगा। मंदिर, मस्जिद, गिरजाघर में नहीं मिलेगा। यह कोई वेद ग्रंथ या कुरान बाइबल या गुरु ग्रंथ साहब, अगर वह चिंतन परंपरा हम सबको प्राप्त होगी तो हमारी स्वयं की आत्मा एवं हमारे मन के भीतरी आवरण चित्र में दिखाई देगा। कहा भी गया है कि ईश्वर कण कण में विराजमान है। हिंदी साहित्य का भक्ति काल और संतों की आदि परंपरा जिसमें निर्गुण और सगुण दोनों ने ही अपने-अपने स्तर से अपने आराध्य देव को अपने स्वयं के भीतर ढूंढने का प्रयास किया। यही भारतीय चिंतन परंपरा का मूल है। जिससे अनपढ़ और बड़ा ज्ञानी व्यक्ति कबीर घट- घट में प्राप्त करता है। बंद आंखों से जिसे सूरदास जैसी कविता बाल लीलाओं का वर्णन करती है। प्रेम की पीर में मग्न कवि मलिक मोहम्मद जायसी जिसके मूल के अर्थों में ही स्वयं को पाता है और लौकिक-अलौकिक की जिज्ञासाओं को समझने का प्रयास करता है। स्वयं अपने को दास भाव से समर्पित पूजा अर्चन करने वाला कवि तुलसीदास प्रभु श्री राम के दिव्य अलौकिक रूप को रामचरित्र मानस में साकार करता है। यह सब भारतीय परंपरा का चिंतनीय विकास ही तो है। जिसे आधुनिक काल में कवि जयशंकर प्रसाद चिंता से आनंद लोक की अमर यात्रा का वर्णन करते हुए अपनी चिंतन परंपरा को समझने एवं समझाने का प्रयत्न कर रहे हैं। संपूर्ण हिंदी साहित्य भी अतीत एवं वर्तमान के काल खंडों से होते हुए सतत विकासात्मक नदी की तरह भारतीय चिंतन परंपरा के कई विविध आयामों को रेखांकित करता हुआ बढ़ रहा है।

गीता में कर्म योग का संदेश मनुष्य को भौतिक जगत में जीने की प्रेरणा देता है। आज संपूर्ण समाज के समक्ष अगर कोई व्यक्ति बुरी आत्माओं की परिधि में स्वयं कैद हो जाता है तो गीता का संदेश उसका मार्गदर्शन तय करता है। यह वही संदेश है जो अर्जुन जैसे गांडीवधारी वीर धुरंधर योद्धा को रणक्षेत्र में अग्निकुंड के समान वीर पुरुष बना देता है। यह भारतीय चिंतन परंपरा का ही ज्वलंत प्रमाण है कि व्यक्ति लक्ष्य विहीन होने के बावजूद भी सकारात्मक जीवन दृष्टि को धारण करते हुए अपने लक्ष्य को प्राप्त करने में सक्षम होता है। यह साधारण बात तो है परंतु इस साधारण बात के भीतर भारतीय चिंतन परंपरा की असाधारणता गहराई से अपनी जड़े जमाई हुई है।

हमारी भाषा एवं बोलियों में, संस्कृति एवं समाज में, तीज़ एवं त्योहारों में, तीर्थ स्थानों में, रहन-सहन, खान-पान, भाईचारे आदि बिंदुओं में भारतीय चिंतन परंपरा का विकास झलकता है। पर्वतीय प्रदेशों की सरलता एवं सहजता में, तराई क्षेत्र की जीवन शैली में, संपूर्ण जगत की चराचर सभ्यताओं में, भारतीय चिंतन परंपरा का स्थाई विकास अनवरत रूप से गतिमान है। हमारे देश में गाय, गंगा और गीता की पवित्रता में चिंतन धारा का सतत विकास अपना अजस्र स्रोत लिए हुए बह रहा है और संपूर्ण मानव जगत को कर्म योग की शिक्षा दे रहा है।


Fb- chandra Tewari 

थलीसैंण - डॉ चंद्रकांत तिवारी-पौड़ी गढ़वाल

"थलीसैंण" - स्वरचित कविता - डॉ. चंद्रकांत तिवारी - स्वरचित कविता -

fb-Chandra Tewari 

पौड़ी - गढ़वाल-उत्तराखंड प्रांत 


 सुबह हो गई भोर तिलक-सा

प्रखर-रश्मियां स्वेत वसन-सा

मस्तक उज्ज्वल यश गाता है

विश्व मुकुट-सा हिमसागर सेमल

हिम-देवालय हेमल चमकाता है।


सिंधु धरा-सा दक्षिण सागर 

उत्तर विश्व हिमालय सागर

मध्य हिमालय का रचना खंड

दिव्य भाल-सा उत्तराखंड।


बहती नदियों की जल धारा

करती कल-कल गंगा धारा

मानस -केदार की मीठी बोली 

निर्झर-सी बहती दूधातोली।


दिव्य शिलाओं की चोटी से सूरज की किरणें अभिसार हुई

थलीसैंण के प्रांगण में मां सरस्वती की तान हुई

गूंँज उठी देवभूमि की धरती

पावन किरणें मनुहार हुई

ऊंँची पावन शीला पर दीबा देवी मंदिर की जयकार हुई ।


उर्मि रश्मियां धीरे-धीरे चौरीखाल से आती हैं 

शांत तिमिर-घाटी थलीसैंण को 

पलभर में चमकाती हैं

ऊंँचे-अडिग चीड़ों के वैभव 

देवदार की हरियाली

प्रहरी भूतल - गवाक्ष खड़े

निज प्रतिनिधि बीजों से बढ़े 

श्वेत हिम शिखरों की लाली

वसुधा बहती-पूर्वी न्यार

लहराती हरियाली खेतों में बाली

कंठ-शीतल कल-कल मृदु-मनुहार

क्षितिज परिधि थलीसैंण साकार

अपनी गंगा -पूर्वी न्यार ।


ऊंँचे पर्वत गांँव- गंगा की धार

हिमालय के गांँव ईगास-बग्वाल

थलीसैंण की घाटी-पौड़ी गढ़वाल 

दूधातोली पर्वत की सांँझ निराली

बाघों के जंगल बांँझ-वृक्ष हरियाली 

सड़कें छोटी सर्पीली - बर्फीली धार

पुण्य मिले यहांँ दीवा देवी बारंबार ।


हंसेश्वर-बिंदेश्वर शिव प्रदेश परिधि में मिलता 

थलीसैंण की घाटी में किरण सूर्य-सा खिलता 

दिव्य हिमालय की यह गाथा 

ज्ञान मनोहर की अभिलाषा

कंकड़ कंकड़ यश गाता है

पर्वत का मानस पुत्र यहांँ

श्रम कण का बरसाता है 

हे दिव्य हिमालय तेरी धरती 

निज कोना-कोना गाता है 

थलीसैंण की घाटी में 

सूर्य-कमल दल खिलता है 

चौरीखाल के जंगल में 

बाघों का डेरा मिलता है

असंख्य खग कुल का वैभव यहांँ 

निज दिव्य हिमालय ढलता है

सेमल-सा हेमलता हिम शिखरों का जल

जब धरा वसन मुख भरता है ।


है प्रखर ज्योति की उज्ज्वल आभा 

नदियों की कलकल धारा 

यह दुधातोली की पर्वतमाला

झरने का कलरव गाता है

थलीसैंण की घाटी-पौड़ी में 

किरण सूर्य-दल खिलता है।


पावन रज किरणों का रथ

जब धीरे-धीरे आता है

थलीसैंण का दिव्य भाल

धीरे-धीरे चमकाता है।


वीर चंद्र सिंह गढ़वाली की यश गाथा है

मध्य हिमालय का भूखंड थलीसैंण कहलाता है।

ऊंँचे ऊंँचे शैल खंड वीरों का मस्तक ऊंँचा करते

कलकल बहती नदियांँ तन शीतल मन हरते।


मातृभूमि-पुण्यभूमि तेरी जय हो 

थलीसैंण यश गायेगा

विवेक-ज्ञान, यश-वैभव का 

सूर्य हिमालय लायेगा।

उत्तराखंड के विकास के लिए - डॉ. चंद्रकांत तिवारी - उत्तराखंड प्रांत

 उत्तराखंड के विकास के लिए -  डॉ. चंद्रकांत तिवारी - उत्तराखंड प्रांत 

उत्तराखंड के विकास के लिए कई प्रमुख मुद्दों पर सरकार को कार्य करना चाहिए। जिनमें मुख्य रुप से शिक्षितों की बढ़ती बेरोजगारी, विद्यालय और उच्च शिक्षा में गुणवत्ता और सुधार, स्वास्थ्य और चिकित्सा के साथ-साथ महिलाओं की सुरक्षा, शहरी क्षेत्रों में प्रदूषण की गंभीर समस्या, कृषि एवं घरेलू उद्योगों को बढ़ावा दिया जाए, साथ ही एक गंभीर समस्या जो उत्तराखंड की है वह पलायन को लेकर है। यहां पलायन कुछ इस कदर है कि गांव के गांव खाली हो चुके हैं। आज तक कोई भी सरकार इस दिशा में कोई गंभीर प्रयास नहीं कर पायी है। अगर सरकार की ओर से कोई गंभीर प्रयास हो भी रहा है तो वह यथार्थ रूप से सामने नहीं दिखता। सरकार को शिक्षित बेरोजगारों को अपने ही क्षेत्र में रोजगार देकर, घरेलू उद्योगों को स्थापित एवं पुनर्जीवित करके, नए विद्यालय, विश्वविद्यालय बनवाकर, निष्पक्ष योग्य अभ्यर्थियों का चयन करके, उत्तराखंड की भौगोलिक स्थिति के अनुरूप, नई-नई योजनाएं लाकर पर्वतीय प्रदेशवासियों को आत्मनिर्भर के साथ-साथ आत्म सम्मान से अपनी संस्कृति और परिवेश से जोड़कर रखना है। यही उत्तराखंड के विकास का मूल मंत्र है। कि वह अपनी जड़ों से भी जुड़े रहें और अपने ही क्षेत्र में रोजगार भी करें। जिससे पलायन जैसी गंभीर समस्या का निदान हो सकेगा।

For the coming years, the government along with the teachers will have to continuously improve the standard of school education. For this, first of all, qualified teachers and continuous and active energetic teachers have to be selected in the education system. Such teachers who will have to dedicate their moral duty to the interest of the students and first of all the provision of material and educational resources to the school education system will have to be made 100% accessible by the administration.

In the technological age of ICT, teachers also have to be made proficient. For this, DIET, SCERT, NCERT at the district level for teacher training and in the field of higher education and school education, private institutions, NGOs, Teaching Learning Center can play an important role.

In the field of education, efforts should always be made for a better future at school, college and university level. With this hope and belief...

ग्रामीण क्षेत्रों को केंद्र बनाकर शिक्षा, चिकित्सा, कृषि और ग्रामीण क्षेत्रों में सड़कों का विकास करके पलायन जैसी गंभीर समस्या को दूर किया जा सकता है।

*विद्यालयी शिक्षा का मूल्यांकन-*इधर भी एक नजर अत्यावश्यक... डॉ चंद्रकांत तिवारी - उत्तराखंड प्रांत

 *विद्यालयी शिक्षा का मूल्यांकन-* इधर भी एक नजर अत्यावश्यक...

डॉ चंद्रकांत तिवारी - उत्तराखंड प्रांत 

इस कोरोना काल में सबसे अधिक नुकसान हमारे विद्यालय स्तर की शिक्षा को हुआ है। विद्यालय में भी मुख्य रूप से प्राथमिक स्तर के विद्यार्थी जो पहले से ही पढ़ने में कमजोर थे उनकी शिक्षा व्यवस्था तो पटरी पर आ गई। पर्वतीय क्षेत्रों के विद्यालयों का तो क्या कहना क्योंकि वह भौतिक एवं शैक्षणिक दोनों ही संसाधनों की कमी से जूझ रहे थे, कोविड-19 महामारी ने तो इसे और बुरी तरह से क्षतिग्रस्त किया। देश में विद्यालयी शिक्षा बहुत विचारणीय बिंदु है। विद्यालयी शिक्षा की बात करते हैं तो मूल्यांकन और प्रश्न पत्र के ढांचे एवं उनके बीच का अंतर स्पष्ट रूप से ज्ञात होना चाहिए। क्योंकि पहले से अधिक प्रतिशत में विद्यार्थी स्कूली शिक्षा में अच्छे अंको से पास हुए हैं। यह तो मूल्यांकन पद्धति पर प्रश्न उठता है। साथ ही विद्यालयी शिक्षा की व्यवस्था को भीतर से खोखला भी करता है।

विद्यार्थियों को अच्छे अंको से पास करना यह मूल्यांकन पद्धति का विचारणीय बिंदु है। हालांकि दूसरी ओर हमारे अध्यापकों ने इस बीच ऑफलाइन और ऑनलाइन के अंतर को भी समझा और डिजिटल की नई दुनिया में प्रवेश भी किया। परंतु यह ऑनलाइन का विकल्प भारत जैसे देश में सभी विद्यालयों में कारगर एवं सटीक रूप से लागू न हो सका। बहुत सारे विद्यालय तो पिछले 2 वर्षों में अधिकांश तो बंद ही रहे। अगर एक आंकलन किया जाए तो कम से कम डेढ़ वर्ष तो पूरी तरह विद्यालय बंद ही रहे हैं। इतने लंबे समय का अंतराल विद्यार्थियों को मनोवैज्ञानिक रूप से, शैक्षिक रूप से एवं अकादमिक रूप से एवं पाठ्यचर्या संबंधी गतिविधियों एवं उपलब्धियों से भी कमजोर बनाता है। वर्तमान प्रतिस्पर्धा में ऐसे अंको का क्या महत्व रह जाता है। जो बढ़ा-चढ़ाकर विद्यार्थियों को दिए गए हैं।

हमारे देश में तो स्कूलों की शिक्षा व्यवस्था का स्तर एवं उसकी गुणवत्ता का स्तर पहले से ही चिंता का विषय बना हुआ है। इसको कोविड ने और भी बुरी तरह से प्रभावित किया है। कहीं ना कहीं तो सिस्टम की भी कमी रही है। आनी वाले कुछ वर्षों तक सरकार को अध्यापकों के साथ मिलकर लगातार विद्यालयी शिक्षा के स्तर को सुधारना होगा। इसके लिए सबसे पहले योग्य अध्यापकों का और सतत एवं सक्रिय उर्जावान शिक्षकों का शिक्षा व्यवस्था में चयन करना होगा। ऐसे अध्यापक जिनको अपना नैतिक कर्तव्य विद्यार्थी के हितार्थ समर्पित करना होगा और शासन- प्रशासन के द्वारा सर्वप्रथम विद्यालयी शिक्षा व्यवस्था को भौतिक एवं शैक्षणिक संसाधनों की पूर्ति को शत-प्रतिशत सुलभ करना होगा। आईसीटी संबंधी तकनीकी युग में अध्यापकों को निपुण भी बनाना होगा। इसके लिए अध्यापक प्रशिक्षण की भी जिला स्तर पर डाइट, एससीईआरटी, एनसीईआरटी एवं उच्च शिक्षा के क्षेत्र में टीचिंग लर्निंग सेंटर महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है।

21 फरवरी-अंतर्राष्ट्रीय मातृभाषा दिवस की स्मृति (डॉ चंद्रकांत तिवारी - उत्तराखंड प्रांत)

 विशेष कार्यक्रमों में भाषा का महत्व-- (डॉ चंद्रकांत तिवारी - उत्तराखंड प्रांत)

*(21 फरवरी)-अंतर्राष्ट्रीय मातृभाषा दिवस की स्मृति* के अवसर पर-


यूनेस्को मातृभाषा को विशेष स्थान देता है। यह 21 फरवरी को मातृभाषा दिवस के रूप में मनाता है। (यूनेस्को) संयुक्त राष्ट्र शैक्षिक, वैज्ञानिक एवं सांस्कृतिक संगठन प्रतिवर्ष 21 फरवरी को भाषाई सांस्कृतिक कार्यक्रम विविधता पूर्ण विषयों के साथ-साथ बहुभाषावाद संबंधी विषयों को भी बढ़ावा देने के साथ-साथ जागरूकता फैलाने का कार्य भी करता आ रहा है। अंतर्राष्ट्रीय मातृभाषा दिवस की घोषणा यूनेस्को द्वारा नवंबर 1999 में की गई थी। अंतर्राष्ट्रीय मातृभाषा दिवस के लिए इस वर्ष अर्थात 2022 का विषय *'बहुभाषी शिक्षण के लिए तकनीकी का प्रयोग- चुनौतियां और अवसर'* रखा गया है। इस बात को कहने में अतिशयोक्ति न होगी कि संयुक्त राष्ट्र ने वर्ष 2022 से 2032 के बीच की (10 वर्षों की) समयावधि को स्वदेशी भाषाओं के अंतर्राष्ट्रीय दशक के रूप में चिह्नित किया है।


इस बात में कोई भी शक नहीं कि किसी भी देश की शक्ति उसकी भाषा में निहित होती है। अपने देश की भाषा, स्वदेशी, क्षेत्रीय एवं आंचलिक अर्थात मातृभाषा बोलने वालों के क्रियाकलापों-गतिविधियों की सतत, संवेदनाओं में निहित होती हैं। जो देश अपनी भाषा का सम्मान करता है, वही देश अपनी भाषा की जीवंतता को भी वास्तविक स्तर पर आत्मसात करता है। वह राष्ट्र अपनी जड़ों से हमेशा जुड़ाव महसूस करते हुए अपने पैतृक स्थान से पलायन नहीं करता अपितु अपनी बोली के साथ-साथ अपने लोगों को भी प्रेम करता है। यह प्रेम अपनी मातृभाषा के प्रति समर्पण के भाव रखने का एकमात्र विकल्प दर्शाता है। वह राष्ट्र सर्वशक्तिमान होता है जो अपनी मिट्टी से गहराई से भावात्मक स्तर पर जुड़ा हुआ होता है। ऐसा राष्ट्र हमेशा मातृभूमि की लड़ाई अपनी मातृभाषा में लड़ने का सामर्थ्य रखता है। सच्चा मातृभाषी-राष्ट्रवादी-राष्ट्रभक्त-राष्ट्रसैनिक जब दुश्मन पर अपनी तलवार से प्रहार करता है तो वह पहला प्रहार मातृभूमि की रक्षा के लिए मातृभाषा द्वारा ही करता है। उसकी मातृभाषा द्वारा किया गया कार्य जोश एवं उत्साह से भरपूर शक्ति से संपन्न होता है। मातृभाषा द्वारा किया गया यह प्रहार और कर्तव्य-पाठ का पुनर्पाठ, स्वराष्ट्र की विजयश्री का जयघोष स्थापित करने वाला, शंखनाद की भांति कीर्तिश्री का विजय स्तंभ स्थापित करता है। मातृभाषा की शक्ति और सामर्थ्य अतुलनीय है। अपनी भाषा के प्रति प्रेम, सद्भाव, अपनत्व, सम्मान और समर्पण का भाव ऐसा हो कि जिस तरह जड़ों का मिट्टी से और हिमालय का नदियों से लगाव होता है। मातृभाषा के पुष्प का आदर और व्यावहारिक स्तर पर जीवंतता, शिक्षण स्तर पर प्रयोजनमूलकता एवं रोजगार के अवसर अन्य भाषा से अलगाव करके नहीं अपितु सद्भाव की भावना के साथ, अपनी मातृभाषा को विकसित और पल्लवित-पुष्पित करके प्राप्त किया जा सकता है।


वर्तमान में हिंदी भाषा शिक्षण की समस्याएं/ चुनौतियां--

1-उद्देश्य प्राप्ति में बाधाएं

2-हिंदी भाषा एवं साहित्य के प्रति अभिरुचि का अभाव

3-हिंदी शिक्षण, स्थानीयता और मानवतावादी दृष्टिकोण का अभाव

4-अच्छी पाठ्य पुस्तकों का पाठ्यक्रम में अभाव

5-व्याकरण की जटिलताएं

6-वर्तनी और लेखन संबंधी त्रुटियों की समस्या

7-वाचन और उच्चारण संबंधी समस्याएं

8-शिक्षण विधियों को लेकर समस्याएं

9-भाषा शिक्षण में आईसीटी की समस्याएं

10-कक्षा की बनावट की समस्याएं

11-छात्र शिक्षक अनुपात की समस्याएं

12-स्थानीय संसाधनों की समस्याएं

13-शिक्षा तकनीकी की समस्या

14-आधुनिक संसाधनों में शिक्षकों का प्रशिक्षित न होना

हिंदी शिक्षण की चुनौतियां- .. (©डॉ. चंद्रकांत तिवारी)

 हिंदी शिक्षण की चुनौतियां-. .(©डॉ. चंद्रकांत तिवारी- उत्तराखंड प्रांत)


शिक्षण एक कलात्मक तरीका है। हर कोई इस कला में पारंगत हो यह संभव नहीं हो सकता परंतु हर व्यक्ति एक दूसरे से शिक्षा प्राप्त करता है और अपने ज्ञान में वृद्धि करता है। शिक्षण के लिए निर्धारित पाठ्यक्रम का होना भी आवश्यक है तो वही पाठ्यक्रम के विशेषज्ञ के रूप में शिक्षक का होना भी अपने आप में मायने रखता है। शिक्षण की धुरी में शिक्षक और छात्र एक निश्चित पाठ्यक्रम को केंद्र में रखते हुए कक्षा कक्ष शिक्षण को कारगर बनाने का प्रयास करते हैं। इस प्रकार शिक्षक, शिक्षार्थी और पाठ्यक्रम के त्रिकोणात्मक अभीष्ट बिंदु के द्वारा जो परिधि का निर्माण होता है वह एक कलात्मक भवन का निर्माण कर रहा होता है और यह भवन शिक्षा का वह मंदिर है जिसे हम विद्यालय कहते हैं।


बात अगर भाषा शिक्षण की चुनौतियों को केंद्र में रखकर करी जाए तो आज वर्तमान समय में भी कई समस्याओं के साथ-साथ ऐसी विभिन्न चुनौतियां शिक्षक शिक्षार्थी और पाठ्यक्रम के समक्ष दिखती हैं। जो भौतिक एवं शैक्षणिक चुनौतियों के रूप में हमारे समक्ष प्रकट हो रही हैं इनसे हम अनजान रहकर किनारा नहीं कर सकते क्योंकि यह शिक्षा की दशा और दिशा दोनों ही तय करने में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका अदा करती है।


भाषा अध्यापक के समक्ष शिक्षण के उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए बाधाएं और भाषा एवं साहित्य के प्रति शिक्षार्थियों की रुचि का ना होना और शिक्षण मनोरंजन प्रिय न बन पाना यह शिक्षण को प्रभावित तो करता ही है साथ ही अध्यापक को कक्षा कक्ष शिक्षण को सुचारू रूप से चलाने के लिए निर्धारित मापदंड के तहत अपने ज्ञान में वृद्धि करने के लिए भी प्रेरित करता है। 


कुछ चुनौतियां जैसे शिक्षण में स्थानीय एवं मानवतावादी दृष्टिकोण का अभाव, अच्छी पाठ्य पुस्तकों का अभाव, व्याकरण की जटिलता, वर्तनी और लेखन संबंधित त्रुटियों की समस्या, वाचन और उच्चारण संबंधी समस्याएं, शिक्षण की विधियों को लेकर भी कई चुनौतियां समस्या बनकर सामने आती हैं और कक्षा की बनावट और बुनावट और कक्षा का ढांचागत निर्माण भी प्रमुख चुनौतियों में है, तो वहीं छात्र शिक्षक अनुपात और शिक्षक का सूचना तकनीकी के ज्ञान तक न पहुंच पाना भी भाषा की चुनौतियों को बढ़ावा दे रहा है आज हमारा शिक्षक इस 21वीं सदी की महासभा में सूचना तकनीकी से दूर बैठा है और अपनी कक्षा कक्ष शिक्षण में ना ही स्थानीय संसाधनों का प्रयोग कर रहा है और ना शिक्षण शास्त्रीय तकनीकियों को प्रयुक्त कर पा रहा है।


इस प्रकार हिंदी भाषा शिक्षण में कक्षा कक्ष के भीतर जो भी समस्याएं आती हैं वह शिक्षक शिक्षार्थी और पाठ्यक्रम को प्रभावित करती हैं साथ ही शिक्षार्थी के मूल्यांकन को भी पूर्ण रूप से प्रमाणित नहीं कर पाती हैं।


1-भाषा एक हथियार है! वास्तविक हथियार नहीं, एक शाब्दिक विकल्प।

2- भाषा दु:ख का उत्सव है तो हर्ष का विलाप ।

3- भाषा संस्कृति का नगरकोट है तो राजनीति खण्डहर सदृश्य ।

4- भाषा मरुतप्राण सी शक्ति है तो श्वापदों का वाक्-युद्ध । 

5- भाषा साहित्य और संस्कृति का उन्नयन व अवनमन है।


1-भाषा व्यवहार की प्रयोगस्थली है। निज भाषा की सौन्दर्यशीलता के समक्ष अन्य भाषा के सारे उपमान निरर्थक हैं। 

2-हिंदी भाषा रोजगार की भाषा बनें, अधिक से अधिक लोगों को भाषा संबंधी क्षेत्रों में रोजगार मिले।

3-हिंदी भाषा और साहित्य को ICT से जोड़कर नए आयाम स्थापित किए जा सकते हैं।

4-हिंदी भाषा और साहित्य के लिए वैश्विक स्तर पर कार्य करने वालों को सम्मान देकर भी इस दिन को विशेष बनाया जा सकता है।

5-भविष्य में क्षेत्रीय भाषाओं के नए विश्वविद्यालयों की स्थापना का संकल्प इस दिन को और स्थायित्व प्रदान करेगा।

6-जब तक हम अपनी भाषा में शिक्षण, लेखन, विमर्श नहीं करते तब तक उनके समकक्ष नहीं हो सकते जो अपनी भाषाओं में शिक्षण, लेखन और विमर्श करते हैं।

"मैं मेरे देश के लिए" (©डॉ चंद्रकांत तिवारी )- उत्तराखंड प्रांत

"मैं मेरे देश के लिए" 

(©डॉ चंद्रकांत तिवारी )- उत्तराखंड प्रांत 

 भारतीय संस्कृति और भारतीय परंपरा की नींव में राष्ट्रवाद, राष्ट्र के प्रति मरने का भाव, सर्वस्व निछावर करने का भाव और विश्वविजय बनने का भाव, भारतीय संस्कृति, परंपरा और आधुनिकता को भाषा, साहित्य और संस्कृति के आचरण में ढालने का भाव और वैश्विक स्तर पर अपना स्थायित्व बनाने का भाव ही "मैं मेरे देश के लिए" विषय पर लोगों को प्रेरित कर सकता है। हमें अपनी प्राचीन संस्कृति को अक्षुण्ण रखते हुए, आधुनिक समाज की विकास यात्रा के साथ आगे बढ़ना होगा। हमें अपने आप को पहचानना होगा-

''हम कौन थे,क्या हो गये और क्या होंगे अभी, 

आओ विचारें आज मिलकर,ये समस्याएँ सभी। 

यद्यपि हमें इतिहास अपना प्राप्त पूरा है नहीं, 

हम कौन थे, इस ज्ञान को, फिर भी अधूरा हैं नहीं।'' 


राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त ने ‘भारत-भारती’ में मर्मान्तक वेदना का अनुभव करते हुए उपर्युक्त पंक्तियां लिखी हैं। हम कौन थे? हमारा अतीत गौरवशाली और समृद्ध था। हम चरित्र के धनी थे। 



देश भक्त वीरों मरने से नेक नहीं डरना होगा

 प्राणों का बलिदान देश की वेदी पर करना होगा।


नाथूराम शर्मा शंकर 'शंकर सर्वस्व' अपने काव्य संग्रह में देश पर सर्वस्व बलिदान निछावर करने की प्रेरणा देते हुए भारतीय जनमानस से आवाह्न करते हैं।

कवि गया प्रसाद शुक्ल ' स्नेही ' राष्ट्र सेवा के लिए प्राणों की बाज़ी लगा देने वाले ऐसे वीरों का आवाह्न करते हैं जो मातृभूमि पर भावनात्मक रूप से जुड़ते हुए देश सेवा के लिए हमेशा अग्रिम पंक्ति में रहते हैं। ऐसे वीरों धुरंधरों का आवाह्न देश को तरक्की और प्रगति की राह पर लेकर चलने वाला होता है। अगर देश का विकास करना है तो प्रत्येक व्यक्ति को अपना शत-प्रतिशत योगदान देना होगा। मातृभूमि पर सर्वस्व निछावर करने का भाव रखते हुए आगे बढ़ना होगा । कुछ इस प्रकार से अपने भावों को व्यक्त करते हैं और कहते हैं कि -


जो भरा नहीं है भावों से , बहती जिसमें रसधार नहीं 

वह हृदय नहीं वह पत्थर है , जिसमें स्वदेश का प्यार नहीं।


राष्ट्रीय सांस्कृतिक भावना एवं सांस्कृतिक जागरण के प्रवर्तक कवि जयशंकर प्रसाद अपने नाटक चंद्रगुप्त में देश के जांबाज युवाओं से आवाहन करते हैं कि देश सर्वोपरि है राष्ट्र सर्वोपरि हैं अगर आप इस मिट्टी से बने हो तो इस मिट्टी के कर्ज को चुकाने के लिए सर्वस्व निछावर करने के भाव से आगे बढ़ो हिमालय जोकि सभ्यता संस्कृति और समाज के साथ-साथ अपार धैर्य रखते हुए वीरता का आदि पुरुष है उसका आवाहन करते हुए भारत के पुत्रों मातृभूमि पर सर्वस्व निछावर करने का संकल्प लेते हुए आगे बढ़ते रहो।


यह एक आवाह्न गीत है और युद्ध भूमि में चंद्रगुप्त मौर्य की सेनाओं द्वारा दुश्मनों पर प्रहार करने वाला प्रयाण गीत है। जिसे जयशंकर प्रसाद जी ने अपने 'चंद्रगुप्त ' नाटक में उद्धृत किया है। प्रसाद जी कहते हैं कि -हे भारत के वीर पुत्रों मैं मेरे देश के लिए इस भाव को लेकर आगे बढ़ो विश्व की विरासत तुम्हारा इंतजार कर रही है-

हिमाद्रि तुंग शृंग से प्रबुद्ध शुद्ध भारती

स्वयं प्रभा समुज्ज्वला स्वतंत्रता पुकारती

'अमर्त्य वीर पुत्र हो, दृढ़- प्रतिज्ञ सोच लो,

प्रशस्त पुण्य पंथ है, बढ़े चलो, बढ़े चलो।'


कवि रामधारी सिंह दिनकर स्वप्रेरणा, स्वअनुशासित और आत्मसंस्कारित प्रेरणा को प्रदान करने वाली आत्मिक चेतना जो मां मातृभूमि और मातृभाषा से अनुशासित होते हुए संगठन की विकास यात्रा में सहायक होती है का आवाहन करते हुए विषम परिस्थितियों में भी प्रसन्न रहकर राष्ट्र के लिए सर्वस्व निछावर करने के भाव को लेते हुए कहते हैं कि-

लोहे के पेड़ हरे होंगे , तू गान प्रेम का गाता चल 

नम होगी यह मिट्टी ज़रूर , आंँसू के कण बरसाता चल।


"मैं मेरे देश के लिए" क्या कर सकता हूं ? जिससे मेरा राष्ट्र, मेरी मातृभूमि, मेरी मातृभाषा और जन्म देने वाली मेरी मांँ विगत कई युगों तक भारतीय समाज में स्मरण की जाए। अगर राष्ट्र को तरक्की एवं विकास की राह में आगे लेकर जाना है तो प्रत्येक व्यक्ति को लोहे की एक छोटी सी कड़ी के समान मजबूत होना पड़ेगा। तभी एक मजबूत ज़ंजीर का निर्माण हो पाएगा। जिससे हम किसी भी कार्य को आसानी से कर सकते हैं। एक ऐसी जंजीर जिसे हम आत्मरक्षा के साथ-साथ अपने दुश्मनों पर बचाव के लिए साधन के रूप में इस्तेमाल कर सकते हैं।

राष्ट्र की प्रगति एवं विकास के लिए प्रत्येक व्यक्ति का शत प्रतिशत योगदान आवश्यक है। अनुशासन और संगठन प्रत्येक व्यक्ति की विकास यात्रा को सहायता प्रदान करेगा।

डॉ चंद्रकांत तिवारी

शुक्रवार, 21 जुलाई 2023

भाषा, समाज, संस्कृति और मानवीय सरोकार -*

 भाषा, समाज, संस्कृति और मानवीय सरोकार -*

{स्वलेखन )-

रविवार 4 जून 2023

©डॉ चंद्रकांत तिवारी

 उत्तराखंड प्रांत 

भाषा स्वप्रेरणा, स्वअनुशासित और आत्मसंस्कारित प्रेरणा को प्रदान करने वाली आत्मिक चेतना जो मां, मातृभूमि और मातृभाषा से अनुशासित होते हुए संगठन की विकास यात्रा में सहायक होती है का सदा आवाह्न करते हुए विषम परिस्थितियों में भी प्रसन्न रहकर राष्ट्र के लिए सर्वस्व निछावर करने के भाव प्रेरणा देती है -

निम्नलिखित पंक्तियों की तरह आत्मसंस्कारित करती है--

(कवि रामधारी सिंह दिनकर )

लोहे के पेड़ हरे होंगे 

तू गान प्रेम का गाता चल 

नम होगी यह मिट्टी ज़रूर 

आंँसू के कण बरसाता चल।


साहित्य जनसमूह के हृदय का विकास है और साहित्य समाज का दर्पण भी है। साहित्य जनता की चित्तवृत्ति का संचित कोष है तो साहित्य प्रत्येक व्यक्ति की भावना का भावात्मक विकास भी है। भारतवर्ष की नींव में राष्ट्रवाद मजबूत आधार लिए हुए है। यही राष्ट्रवाद व्यक्ति को समाज से, व्यक्ति को राष्ट्र से, उसकी मूलभूत आवश्यकताओं से जोड़ता है। साहित्यकार समाज के विभिन्न वर्गों से, संप्रदायों से जो भावनाओं को लेकर अपने साहित्य का सृजन करता है वही कवि या साहित्यकार समाज का सच्चा हितैषी बन जाता है और उसके द्वारा रचा गया साहित्य पूरे समाज की उन्नति का, प्रगति का मील का पत्थर साबित होता है। भारत की संवैधानिक रूप से विभिन्न भाषाओं में लिखा गया साहित्य भारत और विश्व स्तर पर भारतीय समाज के सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक और धार्मिक सभी कारकों को प्रभावित करते हुए भारत की महिमा का गुणगान करता है। हिंदी साहित्य के इतिहास का स्वर्ण युग भक्ति काल को कहा गया। जिस युग में कबीर, जायसी, सूर और तुलसी जैसे कवि हुए वह युग स्वर्ण युग कहलाया। संत साहित्य, निर्गुण और सगुण परंपरा, राम काव्य, कृष्ण काव्य, अष्टछाप के कवियों द्वारा लिखा गया काव्य साहित्य की अमूल्य निधि है।

 हिंदी साहित्य के इतिहास का आधुनिक काल विभिन्न संदर्भों को लेकर सामने आया। भारतेंदु युग, दिवेदी युग, छायावाद युग, प्रगतिवादी युग, प्रयोगवादी युग, नई कविता और नई कविता की विभिन्न धाराओं में बहने वाला अमृत मय काव्य में असंख्य स्रोत और नवगीत की परंपरा आदि के अजस्र स्रोत में बहने वाली साहित्यिक धारा भारत की राष्ट्रीय सांस्कृतिक चेतना और उसकी राष्ट्रवादी भावना को निरंतर विकसित और पल्लवित पुष्पित करती हुई एक सांस्कृतिक धरोहर को जिंदा और सजीव आकार देती है।


अधिकांश भारतीय संस्‍कृति पर हिन्‍दू साहित्‍य परम्‍परा का प्रभाव है। वेदों के अलावा, जो कि एक धार्मिक ग्रंथ है, हिन्‍दू साहित्‍य की कई अन्‍य कृतियाँ हैं जैसे कि हिन्‍दू महाकाव्‍य रामायण और महाभारत, भवन-निर्माण और नगर आयोजना में वास्‍तुशिल्‍प त‍था राजनीतिविज्ञान में अर्थशास्‍त्र जैसे ग्रंथ। संस्‍कृत की सर्वाधिक प्रसिद्ध हिन्‍दू कृतियां वेद, उपनिषद और मनुस्‍मृति हैं। 

अन्‍य महान साहित्यिक रचनाएं जिनसे भारतीय साहित्‍य के स्‍वर्ण युग का निर्माण हुआ, कालीदास की 'अभिज्ञान शकुन्‍तलम' और 'मेघदूत', शुद्रक की 'मृच्‍छकटिकम' भास की 'स्‍वप्‍न वासवदत्ता' और श्री हर्ष की द्वारा रचित 'रत्‍नावली' है। अन्‍य प्रसिद्ध कृतियां चाणक्‍य द्वारा रचित अर्थशास्‍त्र और वात्‍स्‍यायन का 'कामसूत्र' है। 

रामायण और महाभारत संस्कृत भाषा के ऐसे महान ग्रन्थ हैं, जिन पर भारत की बहुत बड़ी साहित्यिक सम्पदा आश्रित है। ये दोनों ग्रन्थ वैदिक और लौकिक साहित्य के सन्धि काल में लिखे गए। भारतीय जन-जीवन पर रामायण और महाभारत का व्यापक प्रभाव पड़ा है।

भारत की सांस्कृतिक परंपरा की पृष्ठभूमि की नींव में भारतीयता विद्यमान है। भाषा, साहित्य और संस्कृति किसी भी राष्ट्र की आधारशिला होती है। यह राष्ट्र को नींव के पत्थर की तरह मजबूत आधार प्रदान करती है। भारत की सांस्कृतिक परंपरा प्रत्येक हृदय में राष्ट्रवादी भावनाओं को लेकर निर्मित होती रही है और होती रहेगी। यह संस्कृति हमें राष्ट्र की मिट्टी से जोड़ती है। और जो समाज मिट्टी की सुगंध से निर्मित होता है वही अपने राष्ट्र से प्रेम करता है।उसकी संस्कृति वर्षों तक वैश्विक स्तर पर गूंजती है।

प्राचीन समय से ही, भारत की आध्‍यात्मिक भूमि ने संस्‍कृति धर्म, जाति, भाषा इत्‍यादि विविध आयामों को प्रदर्शित किया है। जाति, संस्‍कृति, धर्म इत्‍यादि की यह विभिन्‍नता अलग-अलग धर्मों और सम्प्रदायों, जातीय वर्गों, के अस्तित्‍व की गवाही देती है, जो यद्यपि एक राष्‍ट्र को नियंत्रित करती है। भारत की आंतरिक विभिन्न बोलियां, क्षेत्रीय सीमाएं, इन जातीय वर्गों, संस्कृतियों, परिवेश को उनकी अपनी सामाजिक व सांस्‍कृतिक पहचान के आधार पर भेद करने में महत्‍वपूर्ण भूमिका निभाती है।

'कविता लिखने की पहली शर्त कवि हृदय होना है'! प्रिय प्रकृति के चितेरे कविवर श्री सुमित्रानंदन पंत - प्रकृति के सुकुमार कवि को उनके *जन्मदिन 20 मई पर याद करते हुए.. स्मृति शेष......* ©डॉ. चंद्रकांत तिवारी-

 *'कविता लिखने की पहली शर्त कवि हृदय होना है'!*

*मेरा प्रिय कवि- जिसकी सांसों में प्रकृति और संस्कृति के हजार बिंब उभरे हैं ------* ऐसे प्रिय प्रकृति के चितेरे कविवर श्री सुमित्रानंदन पंत - प्रकृति के सुकुमार कवि को उनके *जन्मदिन 20 मई पर याद करते हुए.. स्मृति शेष......*

©डॉ. चंद्रकांत तिवारी-

उत्तराखंड प्रांत 


'कविता लिखने की पहली शर्त कवि होना है' एक ऐसा कवि जो युग दृष्टा और युग सृष्टा हो। जिसकी कविताओं में जीवन की सच्ची तस्वीर उभरती हो। जिसके अक्षर परस्पर अपने समकक्ष शब्दों से बातें करते हों और एक पूर्ण सार्थक काव्यमय पंक्ति का निर्माण करते हुए सार्थक ध्वनि संकेतों को भी प्रकट करते हों। कुल मिलाकर कह सकते हैं कि ऐसे कवि की रचना में जीवन का संगीत रस घोलता है और शब्द चित्रों के रेखाचित्र चित्रकाव्य का सृजन कर रहे होते हैं।


'कविता लिखने की पहली शर्त कवि होना है' यह उतना ही सार्थक और प्रासंगिक है जितना कवि होने के लिए सहृदय होना। जीवन के यथार्थ दृश्यों को हम किस रूप में देखते हैं, किस रूप में महसूस करते हैं, महसूस करने के बाद क्या हम उन साक्षात दृश्यों/वस्तुओं से अपनेपन का लगाव रख पाते हैं? ऐसा लगाव जो हमें बार-बार अपनी ओर आकर्षित करता हो। हमारे मन की रिक्तता को पूर्ण करता हो। हमारे जीवन के अवकाश को इंद्रधनुषी रंगों से भर देता हो। हमारी विषम और कठिन बनती जा रही जीवनशैली को सरल और सहज बना देता हो। हमारी कम पड़ती श्वांसों के मध्य रक्त का संचार करता हुआ जीवन की लालिमा के नए दृश्यों को उभरता हो। यह संभव है कि हम अंतिम स्पंदन तक स्वयं से ही संघर्ष कर रहे होते हैं परंतु जो प्रकृति हमने अपने लिए निर्मित की है वह एक ऐसी दुनिया है जो दो सगे-संबंधियों के अकेलेपन से भरी हुई है। जैसे जीवन का संगीत रिक्त हो गया है जीवन की तलाश में भटकता हुआ कवि हृदय शून्य की परिधि पर घूम रहा हो। स्वयं के प्रश्नों में ही उत्तर को तलाश कर रहा हो। कवि हृदय कई सौ हृदयों का समुच्चय है। उसकी अभिव्यंजना और अभिव्यक्ति से पहले उसकी देखने की शक्ति स्पर्श और गंध के अनुभवों का साक्षात् बिंम होती है। हवाओं में तैरता हुआ संगीत कवि की सांसों में घुलमिल कर साकार हो जाता है। यह सब एकांत की वीणा से निकला हुआ नादमय संगीत है। जीवन का वास्तविक जयघोष है। यही पर्वतीय जनमानस की लोक संस्कृति का उत्थान मंच है। यही मानवता की जन्मभूमि की विकास यात्रा का अंतिम और प्रारंभिक प्रस्थान बिंदु है। 


अपार रज किरणों को समेटे जीवन की हरियाली और नैसर्गिक सुंदरता की अभीष्ट वन-संपदाओं को लुटाता हुआ यौवन का संगीत प्रकृति के इस अभूतपूर्व क्षणों का अनुकरण करता हुआ, कलम के उतार-चढ़ाव से यथार्थ के अनुभवों को शब्दबद्ध करता हुआ, काव्य के चित्रों को साकार करता है। यह कोई साधारण नहीं असाधारण कवि हृदय ही हो सकता है। ऐसा कभी हृदय जिसके सामने कविता नतमस्तक होकर पूर्ण विनम्रता से आग्रहपूर्वक उसकी कलम की नोंक पर बार-बार स्याही संग भीगती-उतरती और श्वेत पत्रों की सैय्या पर किसी शिल्पी की वास्तुकला को जीवंत कर जाती है। ऐसा कभी हृदय प्रकृति में बीज रूप होता है जहां उसकी दृष्टि पड़ती है वही स्थान नव-अंकुरण से पल्लवित और पुष्पित हो उठता है।


हांँ 'कविता लिखने के लिए कवि हृदय होना पहली शर्त है'। ऐसा कभी हृदय जो प्रकृति के साथ तादात्म्य स्थापित कर ले। 


कवि श्री सुमित्रानंदन पंत प्रकृति की गोद में पले-बढ़े और प्रकृति ही जिनकी जीवन भर साहचरी बनी रही। इसकी नैसर्गिक सुंदरता के समक्ष अन्य कोई सुंदरता उन्हें कभी आकर्षित न कर पाई। ऐसा कवि हृदय उत्तराखंड राज्य के कौसानी नामक स्थान में जन्मा । हिंदी साहित्य और संपूर्ण साहित्य प्रेमी इस बात से हमेशा ही गौरवान्वित महसूस करते हैं कि आधुनिक हिंदी कविता के क्षेत्र में छायावादी युग के सशक्त कवि श्री सुमित्रानंदन पंत जी प्रकृति के सुकुमार कवि होते हुए साहित्य की विभिन्न धाराओं के साथ क्रमिक विकास लिए हुए बढ़ते रहे। इन्होंने अपना संपूर्ण जीवन प्रकृति की रहस्यमई दुनिया को खोजने में व्यतीत किया। अपने समकक्ष छायावादी कवियों में प्रसाद, निराला, महादेवी वर्मा के बीच कविवर पंत जी सब के चितेरे बने रहे और उस दौर के अन्य साहित्यकारों के बीच भी अपनी लोकप्रियता बनाए रखने में हमेशा ही सक्रिय बने रहे।


कविवर पंत की कई रचनाएं समय-समय पर प्रकाशित होती रही। परंतु उनकी छायावादी रचनाओं में प्रकृति के साथ जो अपनापन या अपना होने का भाव दिखता है वह एक पर्वतीय अंचल के नवयुवक को इस नैसर्गिक सुंदरता के प्रति आकर्षित करता है। साथ ही पर्यावरण प्रेमी के रूप में भी मुखरित करता है। 


सच्चे अर्थों में कविवर पंत जी पर्यावरण के प्रति कहीं अधिक भावुक व्यक्ति थे। उनका यह नजरिया ही उन्हें प्रकृति के और नजदीक ले गया। उनकी कविताओं का केंद्र भी प्रकृति ही बनी रही। कह सकते हैं कि कविवर पंत जी ने उस असीम सत्ता की तलाश प्रकृति के रहस्यों में खोजने की कोशिश की। कविवर पंत जी का ईश्वर प्रकृति में ही कहीं बसता है। कभी वह प्रथम रश्मि की किरणों के रूप में विचरण करता है, तो कभी मौन निमंत्रण-सा देता हुआ अंजाना-सा मोह पैदा करता हुआ प्रकृति के ताल-तलैयों में नौका-विहार करता है। पंत जी की प्रकृति परिवर्तन की अपार संभावनाओं का केंद्र बिंदु रही है। परंतु उसका स्रोत एक ही है। निस्संदेह परिवर्तन एक क्रमिक विकास है। काव्य की यात्रा के संदर्भ में भी, कवि की यात्रा के संदर्भ में भी, कविता की यात्रा के संदर्भ में भी और मानवता की विकास यात्रा के संदर्भ में भी। इन सभी उपर्युक्त बिंदुओं को कविवर पंत जी ने परिवर्तन कविता में वाणी दी है।


कविवर पंत जी के जन्मदिन को हमें पर्यावरण संरक्षण के रूप में मनाना चाहिए। विश्वविद्यालय स्तर पर, महाविद्यालय स्तर पर और विद्यालय स्तर पर हमें इस दिन अधिक से अधिक वृक्षारोपण करके प्रायोगिक शिक्षण के रूप को साकार करना चाहिए। आज वर्तमान संदर्भों में वृक्षों का कितना महत्व है, यह इस महामारी के बीच हम सबका ध्यान आकर्षित करता है।


जीवन प्रकृति से है। हमें इस बात का ध्यान रखना होगा। हमें प्रकृति को अपने मन के भीतर सहेजने का प्रयास करना चाहिए। अगर प्रकृति हरी-भरी रहेगी तो जीवन खुशहाल रहेगा। प्रकृति के रंग जीवन के रंगों से मिलकर आनंद की विकास यात्रा में सहायक होंगे। हमें पर्यटक बनने से पहले प्रकृति प्रेमी बनना होगा। हमें प्राकृतिक संपदा को संरक्षित रखने के लिए मिशन के रूप में कार्य करना होगा। तभी हम कविवर श्री सुमित्रानंदन पंत जी को सच्चे अर्थों में नमन कर पायेंगे। सच्चे अर्थों में अपनी स्मृति में बसाए रख पायेंगे।

भाषा की नैसर्गिक प्रवृत्ति और मूल्य चेतना -* *©डॉ चंद्रकांत तिवारी*

 *भाषा की नैसर्गिक प्रवृत्ति और मूल्य चेतना -*

©डॉ. चंद्रकांत तिवारी

उत्तराखंड प्रांत 

भाषा सामाजिकता का सेतु है और समाज संस्कृति का हेतु है।

समाज सामाजिक संबंधों का एक जाल है। भाषा संगीत, सुर, लय, ताल है। समाज में रहते हुए ही हम सब संस्कृति और सभ्यता के समन्वय से मानव समाज का एक आधार स्थापित करते हैं। जीवन की प्रत्येक घटना, परिघटना और समाज का ढांचा सब के मूल में भाषा ही विद्यमान होती हैं। 

जीवन-जगत की इसी दिनचर्या को आत्मसात करते हुए मानव समाज को परस्पर एक-दूसरे को जोड़ने एवं भावनात्मक स्तर पर जीवन यापन करने के लिए भाषा के बारे में जब भी सोचता हूंँ, जब भी कभी समाज के यथार्थ से साक्षात्कार करता हूंँ तो एक शोधात्मक दृष्टिकोण एवं शब्दमाला-सी तैयार हो जाती है और मन मस्तिष्क में एक ऐसी परिकल्पना का निर्माण हो जाता है जिसका उद्देश्य और जिसका लक्ष्य समाज में रहकर, समाज का होकर ही भावनात्मक स्तर से सामाजिक जीवन यापन करना है।

समाज की सबसे छोटी इकाई परिवार है। परिवार में रहकर ही बालक अपनी प्राथमिक पाठशाला के रूप में, अपनी माता के आंँचल में रहकर मातृभाषा को सीखता है और बोलता है। परिवार से दूर जब एक समाज का निर्माण होता है तो समाज में रहकर विद्यार्थी धीरे-धीरे सामाजिक प्रक्रिया के अंतर्गत स्वयं में कई प्रकार के बदलाव महसूस करता है। यह बदलाव उसको सामाजिक, धार्मिक, सांस्कृतिक और मनोवैज्ञानिक रूप से प्रभावित करते हैं। 

एक ऐसा समाज जहांँ रहकर व्यक्ति मनोवैज्ञानिक रूप से लोगों को समझता है और भावनात्मक रूप से लोगों के साथ जुड़ाव महसूस करता है। इन सब कार्यों में भाषा का सामर्थ्य और भाषा की शक्ति मानवीय गुणों में सर्वोपरि स्थान रखती हैं और अमृत-सी शक्ति प्रदान करती है। 

कुछ इस प्रकार के ही बिंदुओं को ध्यान में रखते हुए भाषा की शक्ति और सामर्थ्य से मानवीय मूल्यों का विकास, संस्कृति का उत्थान और पतन और एक सफल राष्ट्र का निर्माण जिसकी नींव में माननीय सामर्थ्य विद्यमान है। 

मानव सभ्यता एवं प्राणी-जगत अपना जीवन यापन करते हुए एक दूसरे से सामाजिक, आर्थिक, नैतिक, धार्मिक और सांस्कृतिक कारकों के रूप में जुड़ा रहता है और जीवन जगत के विविध भावात्मक स्तरों से गुजरते हुए अपने लक्ष्य की ओर कुछ निश्चित उद्देश्यों को लेकर अग्रसर है।

समाज की संस्कृति और संस्कृति का समाज, लोक की बोली और बोलियों का लोक, लोक की संस्कृति और संस्कृति का लोक, भाषाई शक्ति, सामर्थ्य और साहित्य की संचित जमा पूंँजी को भक्तिकल के विभिन्न संदर्भों में समझाने का प्रयास किया जा सकता है। जीवन एक व्यापक दिशा दृष्टि प्रदान करता है। वास्तविकता से विमुख यथार्थ जीवन कई संभावनाओं एवं घटनाक्रमों को लेकर सम्मुख उपस्थित है। इस व्यापक जीवन को जीने के लिए मानवीय मूल्यों का सृजन और निर्माण करने के साथ-साथ भावनात्मक रूप से वस्तुओं को सहेजने का भाव भी जीवन जगत के विभिन्न संदर्भों में दर्शाया गया है। मानवीय शाखा एवं सामाजिक जीवन के यथार्थ को मनोवैज्ञानिक रूप से समझने के लिए यह शोधकर्ताओं ने जननायकों द्वारा महत्वपूर्ण कार्य किया गया। मानवीय मूल्यों के लिए उनका यह कार्य स्वयं में आत्मानुशासन सर्वोच्च कोटी का स्थान रखता है। इस शोध आलेख में भाषा की प्रासंगिकता की उपादेयता विभिन्न मौलिक सूक्ति वाक्यों द्वारा निर्मित की गई है।

साहित्य जनता की चित्तवृत्तियों का इतिहास होता है। इतिहास किसी भी समय की भौगोलिक, सामाजिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक, धार्मिक एवं साहित्यिक गतिविधियों को बताते हुए भविष्य की ओर दिशा संकेत प्रदान करता है। तो वहीं दूसरी ओर समाज के सम्मुख युगबोध की स्थिति को बताते हुए संभावनाओं को विभिन्न क्षेत्रों का रूप धारण करते हुए बताता है।

जीवन की विभिन्न गतिविधियों को सामाजिक ताने-बाने को समाज में रहकर ही महसूस किया जा सकता है। समाज से दूर जाकर ना भाषा का विकास होगा, ना संस्कृति का। न ही सभ्यता की रक्षा हो पाएगी और न ही मानवीय मूल्यों का सृजन हो पाएगा। इसलिए भाषा और संस्कृति समाज के धरातल पर निर्मित, पल्लवित, पुष्पित और प्रवाहित, परिशोधित होती रहती हैं। सृजन और निर्माण का श्रोत यहां जीवन भर चलता रहता है। नदी की धारा की तरह जीवन की गति की दिशा बहता रहता है, जीवन का श्रमकण । बह जाती है जीवन की कथा की लघु सरिता अखंड हिमालय के श्री चरणों से।

हालांकि भाषा जीवन के व्यापक क्षेत्र को जोड़ती है। हर वर्ग के व्यक्ति को जीवन जीना भी सिखाती है। साहित्य समाज का दर्पण होने के साथ-साथ एक ऐसा प्रतिबिंब है जिसमें प्रत्येक व्यक्ति अपना चेहरा देखता है। साहित्य पढ़ने से व्यक्ति का मानसिक क्षितिज व्यापक स्तर पर पहुंँच जाता है। जीवन-जगत के सभी दृश्यों का आंँकलन और मूल्यांँकन साहित्य जगत में साक्षात दिखता है। कोई भी व्यक्ति और कोई भी समाज साहित्य से अछूता नहीं है। भाषा तो माध्यम का विषय होने के साथ-साथ मूल विषय भी है। भाषा ही साहित्य को व्यापक आधार प्रदान करती है। 

नैतिक चरित्र और मानवीय मूल्य एक दूसरे को औद्योगिक एवं व्यावसायिक रूप से, भाषा के संदर्भों में, समाज के संदर्भों में, संस्कृति के संदर्भों में, रहन-सहन, परिवेश, प्रेरणा, राष्ट्रवाद एवं स्वप्रेरित, नैतिक चरित्र के साथ-साथ सांस्कृतिक एवं धार्मिक रूप से भी व्यक्ति से समाज को और समाज से राष्ट्र को, राष्ट्र से परिवार को और परिवार से प्रत्येक देशवासी को जोड़ता है। यही जीवन की कथा है। कथा में कई व्यथा है। परंतु कथा निरंतर और अनवरत चलती जा रही है। एक हिमालय से निकलने वाली नदी की धारा की तरह, शीतलता प्रदान करती जा रही है।

संस्कृति का यथार्थ-* ©डॉ. चंद्रकांत तिवारी / उत्तराखंड प्रांत

 *संस्कृति का यथार्थ-*

©डॉ. चंद्रकांत तिवारी

उत्तराखंड प्रांत 


*सभ्यता के नगर

संस्कृति की डगर

पद चिन्हों पर चलकर

परंपरा का आधुनिक शहर 

बहुत दूर नहीं वैभव-संस्कृति की नगरी

आत्ममंथन - आत्मचिंतन - स्वएकांत

प्रकृति अमृत कलश - जीवनदायिनी शक्ति

यत्र-तत्र-सर्वत्र भर लें अमृतसर गगरी ।*

(स्वरचित)

मध्य हिमालय की उपत्यकाओं के मध्य, प्रकृति की परिधि के मध्य, मनुष्य की समाधि की परिधि की गहराइयों से, एकांत का केंद्रीयकृत नैसर्गिक आकर्षण, युगबोध की संस्कृति का अमर-जयघोष, जीवन संस्कृति के मूल्यांकन की गहराईयों की सभ्यताओं से निकला हुआ, अमृत मंथन के समान अमृत कलश भारतीय चिंतन परंपरा का स्वाभाविक विकास है। यह एकांत की संस्कृति का जयघोष है और प्रकृति का नाद् -मय सौंदर्य। एकांत के गर्भ से उपजा हुआ जीव मात्र की चिंतन धारा का स्वाभाविक विकास। यह किसी ग्रंथ का आधार नहीं अपितु संपूर्ण विश्व के आदि ग्रंथ इसी एकांत की संस्कृति के आधार ग्रंथ हैं। यही मानवता का सच्चा विकास है। यही अद्वैतवाद की संस्कृति का नाद् -मय सौंदर्य चित्रण भी है। यही भारतीय चिंतन परंपरा का स्वाभाविक विकास भी और यही भारतीय चिंतन की प्रक्रिया का मूल मंत्र भी।

गाय, गंगा , गीता और गांव की आधार संस्कृति का यथार्थ भी।


साहित्य जनसमूह के हृदय का विकास है। एक ऐसा विकास जो मनुष्य को मनुष्य बने रहने की शिक्षा देता है। यह मौखिक भी हो सकता है और लिखित भी। परंतु वास्तविकता यह है कि साहित्य का लिखित रूप मानव जीवन की संचित राशि का कोश है और ऋषि मुनियों की आजीवन तपस्या का सकारात्मक प्रतिफल भी है। जो मानव सभ्यता को प्रकृति के साथ मिलाकर रहने की भावना का विकास भी कराता आया है। अर्थात मानव और प्रकृति का तादात्म्य स्थापित करता है। प्रकृति की गोद में बैठकर ही भूत, भविष्य और वर्तमान तीनों कालों का चिंतन किया जा सकता है। जब से प्रकृति का निर्माण हुआ है, यह धरती ने अपना अस्तित्व इस समस्त आकाशगंगा के परिदृश्य में स्थापित किया है। तब से प्राणी जगत की उत्पत्ति और उसके विकास के कथा का चिंतन, जन्म मरण का चिंतन, यश और वैभव का चिंतन, वीर और कायर का चिंतन, अपने और पराये का चिंतन, मानव सभ्यता का चिंतन, सजीव और निर्जीव का चिंतन, प्राणी जगत की उत्पत्ति का चिंतन, और इस समस्त भूमंडल का चिंतन, एक छोटे सा कण जो उदासीन बनकर इस भूमंडलीय परिदृश्य पर विचरण करता है, उसका चिंतन उदासीन पड़े मानव जीवन की भांति ही उस सूक्ष्म कण का वैज्ञानिक एवं दार्शनिक रूप से चिंतन, यह सब बिंदु चिंतन परंपरा की उत्पत्ति एवं विकास की प्रक्रिया के सतत विकासात्मक गति की चिंतन प्रक्रिया के ही कई आयाम है। इन आयामों से गुजरते- गुजरते मानव सभ्यता भी कभी रामायण तो कभी महाभारत के दृश्य दिखाती है। कभी इस धरती पर अपने आराध्य देव को बुलाने पर मजबूर हो जाती हैं। स्थिति इस जग की कुछ ऐसी है। जब- जब मानव सभ्यता बुरी आत्माओं के वशीभूत होकर मानवों का ही विनाश करने पर हावी हो जाती है तो ईश्वर को स्वयं धरती पर अवतारी पुरुष के रूप में प्रकट होना पड़ता है।यह गीता का उपदेश है जो स्वार्थ पर परमार्थ का, यथार्थ पर निहितार्थ का, असत्य पर सत्य का, मरहम बन कर सामने आता है और शीतलता प्रदान करता है। यही मानव सभ्यता का इतिहास है। यही कुरुक्षेत्र की विभीषिका की विध्वंसलीला का प्रमाण भी है। यही धरती पर अपने आराध्य देव को बुलाकर समर्पण का भाव भी दर्शाता है। जब -जब इस धरती पर धर्म पर अधर्म हावी होता है, तब -तब प्रभु स्वयं धरती पर अवतरित होकर मानव के कल्याण के परमार्थ का कारण बनते हैं। 


यह जीवन एक ऐसा रण क्षेत्र है जहांँ हर कुशल योद्धा निहत्था रह जाता है और उसकी नियति निहत्था बनकर युद्ध करने की रह जाती है। प्रभु स्वयं अपनी अमर वाणी से मानव सभ्यता का कल्याण करते हैं। यह जीवन एक कुरुक्षेत्र का रणक्षेत्र है। इस रणक्षेत्र में अपने आप में सक्षम होने के बावजूद भी अर्जुन जैसा योद्धा थी श्रीकृष्ण की दिव्य वाणी से अपने आप को ताजा महसूस करता है और गांडीव लेकर युद्ध करने को तत्पर होता है। बिना गुरु के ज्ञान संभव नहीं। स्वयं प्रभु श्रीकृष्ण जो मानव धर्म के प्रजा पालक हैं, लोक कल्याणकारी हैं, संपूर्ण जगत में धर्म की स्थापना करने के लिए अवतरित हुए हैं और कुरुक्षेत्र के रण क्षेत्र में महाभारत के नायक अर्जुन को कर्म की शिक्षा देते हैं। स्वयं उसका सारथी बनकर रणक्षेत्र में गीता के ज्ञान की अपार राशि लुटाते हैं। यह एक ऐसा गहरा चिंतन है जिसके मूल में ऋषि-मुनियों की तपस्या का फल प्रतिबिंबित होता है। यही भारतीय चिंतन की परंपरा का प्रतिफल है और मानव जीवन के कल्याण का सकारात्मक प्रयत्न भी। यह एक ऐसा पद है जिस पर सरलता एवं सहजता से मानव सभ्यता का इतिहास अपने स्वर्ण अक्षरों में लिखा गया है। भारतीय चिंतन की परंपरा में सनातन धर्म पद्धति सबके कल्याण की भावना और वसुधैव कुटुंबकम् का मंत्र समाहित होते हुए, अतिथि देवो भव का भाव भी प्रतिबिंबित होता है। भारतवर्ष का इतिहास यहां का रहन-सहन यहां की सामाजिक, सांस्कृतिक, धार्मिक स्थितियों के साथ-साथ राजनीतिक एवं भौतिक परिवेश भी उपर्युक्त कई बिंदुओं को प्रभावित करने वाले कारक के रूप में प्रकट होता है। यह भारतीय चिंतन की परंपरा का आदि स्रोत है और भारतीय चिंतन की वैश्विक स्तर पर ख्याति का आधार स्तंभ भी है। एक ऐसी परंपरा जिसे जानने के लिए इतिहास के प्राचीन स्रोतों को चिंतन एवं मनन के स्तर पर समझने एवं समझाने की आज वर्तमान समय में महत्वपूर्ण आवश्यकता है।


सिंधु घाटी सभ्यता के इतिहास के काल खंडों को लेकर आज वर्तमान समय तक इतिहास एवं साहित्य के काल खंडों के अतीत का अध्ययन करते हुए उसका दार्शनिक मूल्यांकन एवं आंकलन किया जाए तो सब के मूल में संपूर्ण भारतीय संस्कृति, समाज, भाषा, सभ्यताएं अपना नवीन मार्ग तय कर रही हैं। यही भारतीय संस्कृति की चिंतन परंपरा का आदि स्रोत है। भारतीय चिंतन परंपरा का वैश्विक आधार भी इन्हीं प्रमुख बिंदुओं में प्रकट होता है। हमारा साहित्य हमें वैश्विक स्तर पर चिंतन के विभिन्न आयामों को स्थापित करने की शक्ति एवं बल देता है। चारों वेद ग्रंथ, वेदांग, उपनिषद, धर्म-ग्रंथ और भारत के आदि विश्वविद्यालय, भारतीय संस्कृति, समाज, सभ्यता एवं भाषाओं के साथ-साथ क्षेत्रीय बोलियां भी हमारी सभ्यता एवं संस्कृति का जयघोष स्थापित करती हैं। सब के मूल में भारतीय चिंतन परंपरा का विकास है। यह साधारण बात नहीं स्वयं में असाधारण विषय है। इसीलिए कहा गया है कि साहित्य जनसमूह के हृदय का विकास है। संचित राशि का आदि कोष है। भारतीय चिंतन परंपरा का विकास है। यह भारतीय चिंतन परंपरा किसी एक व्यक्ति की निजी भावना नहीं अपितु संपूर्ण मानवीय सभ्यता की चिंतन धाराओं एवं सभ्यताओं का परंपरागत, नैतिक, अमूल्य, अनवरत, अनगिनत, अगणित, अव्याप्त, अतुलनीय, अनुपम, असंख्य आकर्षणों की चेतनाओं का चिंतन विकास है। अतीत के गर्भ से निकलने वाले अमृत कलश की बूंदों से नवयुग की लालिमा का विकास है। समुंद्र मंथन से निकलने वाले अमृत की बूंदों के मध्य विष को पीने वाले शिव अर्थात विष को भी सरलता एवं सहजता से प्राप्त करने वाले आदि पुरुष की चिंतन परंपरा है। 


भारतीय चिंतन परंपरा को ढूंढने के लिए किसी पद एवं प्रतिष्ठा की कोई अभिलाषा नहीं होनी चाहिए। अगर उस चिंतन परंपरा को यथार्थ के धरातल पर ढूंढना है तो व्यक्ति एवं मानव सभ्यता को स्वयं के भीतर अपने ईश्वर को तलाश करना होगा। वह किसी रण क्षेत्र में नहीं मिलेगा और नहीं देवालय में मिलेगा। मंदिर, मस्जिद, गिरजाघर में नहीं मिलेगा। यह कोई वेद ग्रंथ या कुरान बाइबल या गुरु ग्रंथ साहब, अगर वह चिंतन परंपरा हम सबको प्राप्त होगी तो हमारी स्वयं की आत्मा एवं हमारे मन के भीतरी आवरण चित्र में दिखाई देगा। कहा भी गया है कि ईश्वर कण कण में विराजमान है। हिंदी साहित्य का भक्ति काल और संतों की आदि परंपरा जिसमें निर्गुण और सगुण दोनों ने ही अपने-अपने स्तर से अपने आराध्य देव को अपने स्वयं के भीतर ढूंढने का प्रयास किया। यही भारतीय चिंतन परंपरा का मूल है। जिससे अनपढ़ और बड़ा ज्ञानी व्यक्ति कबीर घट- घट में प्राप्त करता है। बंद आंखों से जिसे सूरदास जैसी कविता बाल लीलाओं का वर्णन करती है। प्रेम की पीर में मग्न कवि मलिक मोहम्मद जायसी जिसके मूल के अर्थों में ही स्वयं को पाता है और लौकिक-अलौकिक की जिज्ञासाओं को समझने का प्रयास करता है। स्वयं अपने को दास भाव से समर्पित पूजा अर्चन करने वाला कवि तुलसीदास प्रभु श्री राम के दिव्य अलौकिक रूप को रामचरित्र मानस में साकार करता है। यह सब भारतीय परंपरा का चिंतनीय विकास ही तो है। जिसे आधुनिक काल में कवि जयशंकर प्रसाद चिंता से आनंद लोक की अमर यात्रा का वर्णन करते हुए अपनी चिंतन परंपरा को समझने एवं समझाने का प्रयत्न कर रहे हैं। संपूर्ण हिंदी साहित्य भी अतीत एवं वर्तमान के काल खंडों से होते हुए सतत विकासात्मक नदी की तरह भारतीय चिंतन परंपरा के कई विविध आयामों को रेखांकित करता हुआ बढ़ रहा है।


गीता में कर्म योग का संदेश मनुष्य को भौतिक जगत में जीने की प्रेरणा देता है। आज संपूर्ण समाज के समक्ष अगर कोई व्यक्ति बुरी आत्माओं की परिधि में स्वयं कैद हो जाता है तो गीता का संदेश उसका मार्गदर्शन तय करता है। यह वही संदेश है जो अर्जुन जैसे गांडीवधारी वीर धुरंधर योद्धा को रणक्षेत्र में अग्निकुंड के समान वीर पुरुष बना देता है। यह भारतीय चिंतन परंपरा का ही ज्वलंत प्रमाण है कि व्यक्ति लक्ष्य विहीन होने के बावजूद भी सकारात्मक जीवन दृष्टि को धारण करते हुए अपने लक्ष्य को प्राप्त करने में सक्षम होता है। यह साधारण बात तो है परंतु इस साधारण बात के भीतर भारतीय चिंतन परंपरा की असाधारणता गहराई से अपनी जड़े जमाई हुई है।


हमारी भाषा एवं बोलियों में, संस्कृति एवं समाज में, तीज़ एवं त्योहारों में, तीर्थ स्थानों में, रहन-सहन, खान-पान, भाईचारे आदि बिंदुओं में भारतीय चिंतन परंपरा का विकास झलकता है। पर्वतीय प्रदेशों की सरलता एवं सहजता में, तराई क्षेत्र की जीवन शैली में, संपूर्ण जगत की चराचर सभ्यताओं में, भारतीय चिंतन परंपरा का स्थाई विकास अनवरत रूप से गतिमान है। हमारे देश में गाय, गंगा और गीता की पवित्रता में चिंतन धारा का सतत विकास अपना अजस्र स्रोत लिए हुए बह रहा है और संपूर्ण मानव जगत को कर्म योग की शिक्षा दे रहा है।