भारतीय ज्ञान परम्परा : प्रारूप एवं भविष्य
(निज व्यक्तित्व की तलाश)
©डॉ. चंद्रकांत तिवारी
सारांश -
"द्वंद्व मिट जाता है
द्वैत खो जाता है
एकांत की समाधि में
परमार्थ मिल जाता है ।
स्वार्थ खो जाता है
ज्ञान निहितार्थ में
परमार्थ मिल जाता है
सूक्ष्म श्रम यथार्थ में
आत्म अंक विस्तार में
ज्ञान सत्य पदार्थ में ।"
ज्ञान परंपरा की वैचारिकी की मूलभूत संरचना की विचारधारा, परंपरा, आधुनिकता, नैतिकता, धर्म, संस्कृति, सभ्यता, संस्कार, जीवन-जगत की सभी कोटियों से समाहित होता, व्यवहारिक संवेदना का प्रकृतिवादी, मनोवैज्ञानिक, अनुभवजनित, अभ्यासरत परिणाम है। नकारात्मक ऊर्जा से सकारात्मक परिणाम का प्रभाव भी ज्ञान परंपरा को दिशा-निर्देश एवं शक्ति जारी करता है। सकारात्मक दृष्टिकोण से नकारात्मक ऊर्जा का विलोपन भी ज्ञान परंपरा की विरासत शक्ति का ही परिणाम है।
सृजनशीलता और नवीनता ज्ञान परंपरा के आधार स्तंभ हैं।
जीवन के यथार्थ दृश्यों को हम किस रूप में देखते हैं, किस रूप में महसूस करते हैं, महसूस करने के बाद क्या हम उन साक्षात दृश्यों/वस्तुओं से अपनेपन का लगाव रख पाते हैं? ऐसा लगाव जो हमें बार-बार अपनी ओर आकर्षित करता हो। हमारे मन की रिक्तता को पूर्ण करता हो। हमारे जीवन के अवकाश को इंद्रधनुषी रंगों से भर देता हो। हमारी विषम और कठिन बनती जा रही जीवनशैली को सरल और सहज बना देता हो। हमारी कम पड़ती श्वांसों के मध्य रक्त का संचार करता हुआ जीवन की लालिमा के नए दृश्यों को उभरता हो। यह संभव है कि हम अंतिम स्पंदन तक स्वयं से ही संघर्ष कर रहे होते हैं परंतु जो प्रकृति हमने अपने लिए निर्मित की है वह एक ऐसी दुनिया है जो दो सगे-संबंधियों के अकेलेपन से भरी हुई है। जैसे जीवन का संगीत रिक्त हो गया है जीवन की तलाश में भटकता हुआ कवि हृदय शून्य की परिधि पर घूम रहा हो। स्वयं के प्रश्नों में ही उत्तर को तलाश कर रहा हो। कवि हृदय कई सौ हृदयों का समुच्चय है। उसकी अभिव्यंजना और अभिव्यक्ति से पहले उसकी देखने की शक्ति स्पर्श और गंध के अनुभवों का साक्षात् बिंम होती है। हवाओं में तैरता हुआ संगीत कवि की सांसों में घुलमिल कर साकार हो जाता है। यह सब एकांत की वीणा से निकला हुआ नादमय संगीत है। जीवन का वास्तविक जयघोष है। यही गुरु परंपरा की लोक संस्कृति का उत्थान मंच है। यही गुरुत्व शक्तियों की गतिविधियों का आत्मिक दर्शन जो व्यष्टि से समष्टि और समष्टि से व्यष्टि एवं मानवता की जन्मभूमि की विकास यात्रा का अंतिम और प्रारंभिक प्रस्थान बिंदु है।
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इतिहास गवाह है साहित्य ने भौगोलिक एवं प्राकृतिक परिवेश से नया जीवन दर्शन प्राप्त किया है और मनुष्य ने अपनी प्रज्ञा के बल पर अंतरिक्ष में अन्वेषक को नया आयाम दिया है। ज्ञान दर्पण के बल पर गूंगे को जुबान, अज्ञान को ज्ञान, अनैतिक को नैतिकता, परंपरा को आधुनिकता के कलेवर में लिपटा हुआ यथार्थ चरित्र दिया है। जिसकी सीमाएं अनंत है। जो अंतरिक्ष के अपार बिंदुओं को भी स्पर्श कर लेता है। भविष्य के गर्भ से यथार्थ के पुष्प खिलाने की क्षमता रखता है। नैतिकता के आवरण में लिपटा हुआ भारतीय चरित्र सनातन संस्कृति का जयघोष प्रभु श्री राम की अनंत विरासत का ज्योतिपुंज स्वयं अपने ही ज्ञान दर्पण के प्रारूप में भविष्य के सपने देखने वाला प्रत्येक भारतवासी के ज्ञान की पाठशाला का नैतिक चरित्र, अपनी परंपरा में राष्ट्र की यश गाथा का नाम है। कहने को भारत है। रहने को भारत है। यश और कीर्ति की सोने की चिड़िया और देश और विदेश में अपनी ज्ञान परंपरा से विश्व गुरु का कीर्ति स्तंभ भी है।
भारत अपने चरित्र से संपूर्ण विश्व का आदर्श बिंदु है। अपनी ज्ञान परंपराओं से संपूर्ण विश्व का पथ प्रदर्शक है।अपने नैतिक आचरण से विश्व की आंँख का तारा है।अपने कट्टर शत्रु पाकिस्तान का भी प्यारा है। इसका रज- रज प्रत्येक भारतवासी को न्यारा है। इसीलिए कहते हैं कि अखंड भारत हमारा है। भारतीय ज्ञान परंपरा भारत की मिट्टी में रची बसी है इसका विशाल चरित्र इसकी मिट्टी में समाया है। यहां का जनमानस मिट्टी से भी संवेदनात्मक रिश्ता बनता है। इसीलिए भारत विविधताओं से भरा है। विभिन्न संस्कृतियों की परंपराओं ऐसा प्रारुप है जो अपनी प्रज्ञा की ज्ञानमाला को वैश्विक क्षितिज पर आधुनिकता और नवीनता के विविध आयामों को लेकर अजस्र बुद्धिमत्ता का जयघोषित स्थापित कर रहा है।
भारत में ऐसे कई ऐतिहासिक एवं सांस्कृतिक स्थल हैं जो भारतीय ज्ञान परंपरा के आदि केंद्र हैं। यहां सामाजिक, सांस्कृतिक एवं धार्मिक इतिहास से जुड़े कई महत्वपूर्ण स्थल भारत की विरासत का हिस्सा हैं। जिनमें नालंदा, राजगीर, बोधगया और वैशाली नगर और गौतम बुद्ध से जुड़े स्थल हैं। वही अन्य स्थलों में कुरुक्षेत्र, मथुरा, वाराणसी, प्रयाग, हरिद्वार, सारनाथ, अयोध्या, खजुराहों, साँची, अजन्ता और एलोरा, पुरी आदि भारत के पुरा ऐतिहासिक स्थल हमारी विरासत की धरोहर हैं एवं प्राचीन ज्ञान परंपराओं की भारतीयता का दैदीप्यमान ज्योतिपुंज - सा जयघोष भी। भारतीय ज्ञान परंपरा के धार्मिक केंद्रों में उत्तराखंड राज्य का विशेष महत्व है यहां आने वाले श्रद्धालु भारतीय संस्कृति का हिस्सा हैं।
भारत की सांस्कृतिक विरासत की पृष्ठभूमि बहु-आयामी और बहु-भाषी है। जिसमें भारत का महान इतिहास, विलक्षणता से परिपूर्ण भूगोल और अविष्कारों से भरा है। मानवीय सरोकारों का प्रामाणिक दस्तावेज सिन्धु घाटी की सभ्यता के दौरान बनी और आगे चलकर वैदिक युग में विकसित हुई, बौद्ध धर्म एवं स्वर्ण युग की शुरुआत और उसके सूर्यास्तगमन के साथ-साथ फली-फूली और खुद पल्लवित-पुष्पित हुई। इसके साथ ही पड़ोसी देशों के रीति-रिवाज़, परम्पराओं और विचारों का भी इसमें समावेश मिलता है। पिछली पाँच सहस्राब्दियों से अधिक समय से भारत के रीति-रिवाज़, भाषाएँ, प्रथाएँ और परम्पराएँ इसके एक-दूसरे से परस्पर सम्बंधों में महान विविधताओं का एक अद्वितीय उदाहरण देती आ रही हैं।
ज्ञान का प्रारंभिक द्वार और प्रथम केंद्र है वाणी। वाणी का प्राथमिक अनुशासनात्मक व्यवहार है व्याकरण। ज्ञान की इसी परंपरा में पाणिनि ने दुनिया का पहला व्याकरण लिखा है। यास्क द्वारा भाषा के अनुशासनात्मकता पर निरुक्त लिखा गया है। पतंजलि ने योगसूत्र व भाषा अनुशासन लिखा है। योग विज्ञान वैज्ञानिक है एवं वैश्विक है। कौटिल्य का अर्थशास्त्र वैश्विक है। आचार्य वात्स्यायन का कामसूत्र, भरतमुनि का नाट्यशास्त्र तो इसी ज्ञान परंपरा में चरक और सुश्रुत संहिताएं आयुर्विज्ञान के रूप में प्रतिष्ठित एवं वैश्विक हैं। प्राचीन भारत ने दर्शन, ध्वन्यात्मक भाषा विज्ञान, अनुष्ठान, व्याकरण, खगोल विज्ञान, अर्थशास्त्र, सांख्य दर्शन सिद्धांत, तर्क़ दर्शन, जीवन दर्शन, आयुर्वेदिक चिकित्सा, ज्योतिषीय ज्ञान एवं संगीत शास्त्र विभिन्न विषयों को लेकर ज्ञान और परंपरा की खोज में शोधार्थियों एवं तत्व चिंतन करने वाले साधकों ने असाध्यवीणा को साधने में अपना संपूर्ण जीवन लगा दिया। सुखी मानवीय जीवन यात्रा की विरासत को अपनाने के लिए, तत्त्व चिंतन करने वाले विद्वानों द्वारा अनुसंधान किए गए। अणुबम से लेकर परमाणु बम तक शिक्षा, चिकित्सा और कृषि में नए-नए प्रयोग एवं नए-नए आविष्कार किए गए। प्राचीन सभ्यता एवं गुरुकुल परंपरा द्वारा मिलने वाला ज्ञान आज प्रायोगिक रूप में मशीनीकरण के द्वारा प्राप्त किया जाने लगा। प्राचीन काल से मध्य हिमालय की विरासत की परिधि में बैठकर वर्षो ऋषि-मुनियों द्वारा तपस्या की गई। तब जाकर मानव सभ्यता की विकास यात्रा का प्रारंभ, ज्ञान की चिंतन धाराओं का अजस्र स्रोत, हिमालय से बहने वाली नदी की धाराओं के समान जनमानस के हृदय को भीगोता हुआ मानव कल्याण की दिशा में अग्रसर हुआ।
प्राचीन ग्रंथों में ही जीवन का नवीनतम अभिनय प्रयोग है। बढ़ती मानवीय सभ्यता और विस्तृत होता आधुनिक जनमानस इस बात की अपेक्षा रखता है कि युगों-युगों से प्राचीन परंपराओं का ज्ञान-विज्ञान आज के प्रत्येक व्यक्ति की जीवन शैली के लिए, उसके रहन-सहन और उसके व्यवहारिक पक्ष के लिए, सामाजिक आचरण के साथ-साथ धार्मिक एवं सांस्कृतिक परंपराओं से जोड़ते हुए मानवीय सभ्यता के आत्मिक मिलन और नैतिक आचरण के लिए अत्यंत आवश्यक है।
वेदों में जीवन रस है। आनंद की विकास यात्रा का अमृत कलश है। वेद इस बात के प्रमाण हैं कि नियति और परंपरा के बीच ज्ञान-विज्ञान अपना क्या महत्व रखता है? विज्ञान ज्ञान से किस प्रकार भिन्न है? चरित्र नैतिकता से किस प्रकार जुड़ा हुआ है? दृष्टि किस प्रकार से सृष्टि से जुड़ी हुई है? व्यष्टि किस प्रकार से समष्टि से जुड़ी हुई है? साधारण व्यक्तित्व असाधारण कैसे बन जाता है? विशेष व्यक्ति सामान्य भाव भूमि पर कैसे अवतरित होता है ? लोक रंजक और लोकप्रिय कैसे बन जाता है? कैसे सबके हृदय का कंठहार बनते हुऐ सबकी आंँखों का नेत्र बिंदु बन जाता है? यह चिंता से आनंद की विकास यात्रा का प्रतिफल है। वेदों, उपनिषदों में जीवन रस है और वेदांग में जीवन का सार।
अपने निजी चरित्र से व्यक्तित्व तब उठता है जब अपने संस्कारों से अपनी ही संस्कृति के गले में सभ्यता का निष्कलंक हार चढ़ाता है। सभ्यताओं ने संस्कृति को हमेशा ही आदर दिया है। सत्कार किया है। संस्कृति के नैतिक चरित्र को मनोबल दिया है, तो वहीं दूसरी ओर संस्कृति ने सभ्यता को हृदय मंदिर में निवास दिया और संस्कार पर्वत की ओर अग्रसारित करते हुए विस्तृत हिमालय के श्वेत मस्तक को सूर्य की किरणों से सुशोभित कर मानव सभ्यता को उठना सिखाया है । यही भारतीय ज्ञान परंपरा की विरासत है। यही प्रज्ञा की योग समाधि । जनमानस की चिंता का प्रतिफल और ऋषि मुनियों की तपस्या का आध्यात्मिक अंश भी । जिसने स्वभाविक चिंतन परंपरा को प्रकृति के नैसर्गिक परिवेश के मध्य में जीवंत रखते हुए मानवीय संबंधों की कांवड़ यात्रा को स्थापित किया। दीपों के त्योहार और रंगों के उत्सव को, रक्षा के धागों को, नदी घाटों, तटों और सूरज, चांँद की उपासना पद्धति को, हृदय मंदिर में स्थान दिया। पत्थर में भगवान के दर्शन, बहते पानी को गंगा मांँ की संज्ञा देकर मनुष्य के नैतिक आचरण को भारतीयता के रंग में भिगो दिया है । यह भारतीय ज्ञान परंपरा का विस्तार है। अतीत के काल खंडों से सौभाग्य का ज्ञान कुंज है। जिसके लिए विदेशी व्यक्ति भी भारत भूमि में जन्म लेना अपना सौभाग्य समझता है। ऐसे भारत को विभिन्न नामों से जम्बूद्वीप, भारतखण्ड, हिमवर्ष, अजनाभवर्ष, भारतवर्ष, आर्यावर्त, हिन्द, हिन्दुस्तान और इंडिया समय-समय पर कहते हुए यहांँ के लोकमानस द्वारा हृदय में स्थान दिया गया। विभिन्न जातियों का मेल, विभिन्न संप्रदायों का मेल, ज्ञान की सीमा से परे, अपनत्व की भावना में समाया हुआ, एक ऐसा आत्मिक सागर बन गया जिसके उच्च शिखर पर ज्ञान परंपरा अपना विजयोत्सव एवं विजय पताका फहरा रही है। भारतीय ज्ञान परंपरा का यही अमर संगीत है।
भारत में ऋग्वेद लोकमंगल हितैषी ज्ञान परंपरा है। ज्ञान हिमालय-सा पवित्र विषय रहा है। ज्ञान सभी रहस्यों का उद्घाटन करता है। अंधेरे को चीरने के समान ज्ञान अपनी परंपरा का निर्वहन करता आया है। अपनी निजता की आहुति का अंशदान करता है। ज्ञान से धर्म-कर्म की रक्षा होती है। मनुष्य अपने भीतर के अहं साधता है। ज्ञान से ही अर्थ, काम और मोक्ष का त्रिकोण मिलता हैं। पाणिनि, पतंजलि, कौटिल्य, वात्स्यायन, भरतमुनि, चरक, सुश्रुत, आर्यभट्ट, वराहमिहिर आदि सभी विद्वान अपने पूर्ववर्ती आचार्यों का उल्लेख करते हैं। भारतीय अखंड ज्ञान परंपरा का परिचय देते हुए उसके प्राथमिक प्रारूप को निर्मित करते हैं।
भारत की सर्वोच्च शैक्षणिक संस्थाओं द्वारा जैसे यूजीसी ने नई शिक्षा नीति के अनुसरण को अपनाते हुए भारत की ज्ञान परंपरा को छात्र-छात्राओं, अध्यापकों के लिए मार्गदर्शी बताया है। चरित्र के निर्माण में सहायक एवं नैतिक आदर्श का केंद्र बताया है। भारतीय चिंतन शिविर को भारतीय सनातन संस्कृति एवं ज्ञान परंपरा के मूल से जोड़ने का कार्यक्रम बनाया है। ज्ञान का लक्ष्य केवल सूचना उपलब्ध कराना नहीं है अपितु ज्ञान, विज्ञान और दर्शन, इच्छा, भाव और कर्म सभी मिलजुल कर विश्व कल्याण की मंगल कामनाओं का सार्वभौमिक हित निर्मित कर रहे होते हैं।
वैदिक कालीन ज्ञान दर्शन-परंपरा मानवीय जीवन का स्वर्णिम उदय काल है। उत्साह, जिज्ञासा, जिजीविषा, जीवन का यथार्थ प्रश्नपत्र है। ऐसे प्रश्नपत्र के उत्तर लिखने के लिए मन-मस्तिक सदा चिंतनशील और तर्कशील बना रहे, इसके लिए निज व्यक्तित्व को सदा ज्ञान की विभिन्न कोटियों से परिष्कृत करते रहना ही अपनी सनातन धर्म संस्कृति का उचित निर्वहन करना है। ज्ञान की प्राप्ति के लिए व्यावहारिक और मनोवैज्ञानिक अनुभव तो संचारी भाव के समान हैं। परंतु जीवन की वास्तविक प्रज्ञा तो स्थायी भाव के रूप में रहस्यमयी स्थिति में रसमय होकर अनुभूति की अभिव्यक्ति और अभिव्यक्ति की अनुभूति स्वत: ही दिलाता रहता है। जीवन-जगत की स्थितियां तो उद्दीपन के रूप में अपना नैसर्गिक दृश्य बदलती रहती हैं। भारतीय ज्ञान परंपरा का वैचारिक ढांचा रस की मूलभूत निजता का मनोवैज्ञानिक आधार है। जिसका केंद्र मस्तिक से होकर स्नायु तंत्र तक लघु सरिता की तरह जीवन सरिता के विस्तृत आयाम पर बहता हुआ दिशा तय करता है। जिसका प्रकृति प्रदत्त एक आधार है। वह निराधार कैसे हो सकता है। ज्ञान की वास्तविक परंपरा और प्रारूप मनुष्य हृदय में विराजमान है। वह तो सहृदय की अभिव्यक्ति है। कवि हृदय की अनुभूति है। लोकमानस की विचारधारा है। और कह सकते हैं कि यह सभी सशक्त ज्ञान के उपकरण मात्र हैं। ज्ञान दर्शन की वैश्विक परंपरा ऋग्वेद सहित समस्त वैदिक संहिताओं, ग्रंथों में विश्व की पहली ज्ञान परंपरा का पोर्टफोलियो है।
भारतीय ज्ञान परंपरा में गुरुकुल शिक्षा के प्रमुख आधार केंद्र थे। शिक्षार्थी अठारह विद्याओं – छः वेदांग, चार वेद (ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद, अथर्वेद), चार उपवेद (आयुर्वेद, धनुर्वेद, गन्धर्व वेद, शिल्पवेद), मीमांसा, न्याय, पुराण तथा धर्मशास्त्र का अर्जन गुरु के निर्देशन में ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए अनुष्ठानपूर्वक अभ्यास कर अध्ययन करते थे। प्रशिक्षणार्थियों एवं विद्यार्थियों को ऐसे अध्ययन से मिलने वाला ज्ञान आजीविका निर्वहन के साथ-साथ कौशल विकास एवं व्यक्तित्व विकास में सहायक बना और इन ग्रंथों के अध्ययन से नेतृत्व कौशल विकसित हुआ। भारतीय ज्ञान परंपरा का देश-विदेशों में प्रचार-प्रसार हुआ।
त्याग, तपस्या, निज व्यक्तित्व की समाधि से निकलने वाला जीवन रस अमृत की बूंदों के समान गुरु ज्ञान की परंपरा का आधार बना। धन लोभ से परे वृत्तिसम्पन्न तथा धन की तृष्णारूपी नैसर्गिक प्रवृत्ति से परे आचार्य एवं कुलगुरू ही शैक्षिक भारतीय ज्ञान परंपरा पद्धति में शिक्षक माना गया है।
भाषा के लिखित रूप जिसमें शिक्षा, चिकित्सा और कृषि पर आधारित ग्रंथ हमें विरासत के रूप में प्राप्त हुए हैं। पुरातनपंथी यह ज्ञान परंपरा मनुष्य का मार्ग निर्देशन कर रही है। अप्रतिम, अमूल्य, अनवरत, अक्षुण्ण भारतीय ज्ञान परंपरा में वेद ग्रंथों को, पुराण ग्रंथों को अप्रतिम माना गया है। प्राचीन काल में गीत, संगीत, चित्रकला और स्थापत्य सहित सभी ज्ञान-विज्ञान के अनुशासनात्मक क्रिया कलाप आधुनिक परिवेश के लिए एक प्रारूप का निर्माण करते हैं। कमोबेश यह देखने में आया है कि काल परिस्थितियों के यथार्थवादी प्रवाह में यह ज्ञान परंपरा अपनी वास्तविक जड़ों से टूट-सी गई हैं। कहीं ना कहीं एक सनातन पद्धति में कुछ बिखराव सा आ रहा है। जिसे आज शोधात्मक दृष्टि से देखने की आवश्यकता है। व्यवहारिक जीवन में धारण करने की महत्वपूर्ण उपादेयता भी सनातन ज्ञान परंपरा की शक्ति को बचाए रख सकती हैं।
ऋग्वेद संपूर्ण कलाओं से भरा पड़ा है। संगीत की कला में सामवेद उत्कृष्ट कोटि का है। यजुर्वेद में सौंदर्यपूर्ण छंदों का अप्रतिम विधान निर्मित है। अथर्ववेद तो पूरा सांसारिक गतिविधियों का गठजोड़ है। भारत में सौंदर्य शास्त्र की हजारों वर्ष पुरानी ज्ञान परंपरा है। भारतीय ज्ञान परंपरा अद्वितीय ज्ञान और प्रज्ञा का प्रतीक है जिसमें ज्ञान और विज्ञान, लौकिक और पारलौकिक, कर्म और धर्म तथा भोग और त्याग का अद्भुत समन्वय है। यही हमारी ज्ञान परंपरा का मूलभूत और स्थाई प्रारूप है। जिसमें भविष्य के सुनहरे, विविध आयामी दृष्टिकोण व्याप्त हैं। यह तो हम मानवों की नैसर्गिक प्रवृत्ति है कि हम कहां से कितना ज्ञान प्राप्त करते हैं। प्राचीन का कितना अनुसरण हम अपने नवीन जीवन में धारण करते हैं। यह देश गुरु परंपरा का देश रहा है। यहां प्राणों से बढ़कर रक्त का मूल्य चुकाया जाता है। भारतीय ज्ञान पद्धति, वैश्विक परंपरा की परिधि की विशाल जीवन यात्रा है। कल, आज और कल इसका प्रारूप और भविष्य यहां की मिट्टी और भौगोलिक परिवेश यहां की संस्कृति और यहां के धार्मिक आचरण में दिखता है।
भारतीय चिंतन परंपरा को ढूंढने के लिए किसी पद एवं प्रतिष्ठा की कोई अभिलाषा नहीं होनी चाहिए। अगर उस चिंतन परंपरा को यथार्थ के धरातल पर ढूंढना है तो व्यक्ति एवं मानव सभ्यता को स्वयं के भीतर अपने ईश्वर को तलाश करना होगा। वह किसी रण क्षेत्र में नहीं मिलेगा और नहीं देवालय में मिलेगा। मंदिर, मस्जिद, गिरजाघर में नहीं मिलेगा। यह कोई वेद ग्रंथ या कुरान बाइबल या गुरु ग्रंथ साहब, अगर वह चिंतन परंपरा हम सबको प्राप्त होगी तो हमारी स्वयं की आत्मा एवं हमारे मन के भीतरी आवरण चित्र में दिखाई देगा। कहा भी गया है कि ईश्वर कण कण में विराजमान है। हिंदी साहित्य का भक्ति काल और संतों की आदि परंपरा जिसमें निर्गुण और सगुण दोनों ने ही अपने-अपने स्तर से अपने आराध्य देव को अपने स्वयं के भीतर ढूंढने का प्रयास किया। यही भारतीय चिंतन परंपरा का मूल है। जिससे अनपढ़ और बड़ा ज्ञानी व्यक्ति कबीर घट- घट में प्राप्त करता है। बंद आंखों से जिसे सूरदास जैसी कविता बाल लीलाओं का वर्णन करती है। प्रेम की पीर में मग्न कवि मलिक मोहम्मद जायसी जिसके मूल के अर्थों में ही स्वयं को पाता है और लौकिक-अलौकिक की जिज्ञासाओं को समझने का प्रयास करता है। स्वयं अपने को दास भाव से समर्पित पूजा अर्चन करने वाला कवि तुलसीदास प्रभु श्री राम के दिव्य अलौकिक रूप को रामचरित्र मानस में साकार करता है। यह सब भारतीय परंपरा का चिंतनीय विकास ही तो है। जिसे आधुनिक काल में कवि जयशंकर प्रसाद चिंता से आनंद लोक की अमर यात्रा का वर्णन करते हुए अपनी चिंतन परंपरा को समझने एवं समझाने का प्रयत्न कर रहे हैं। संपूर्ण हिंदी साहित्य भी अतीत एवं वर्तमान के काल खंडों से होते हुए सतत विकासात्मक नदी की तरह भारतीय चिंतन परंपरा के कई विविध आयामों को रेखांकित करता हुआ बढ़ रहा है।
गीता में कर्म योग का संदेश मनुष्य को भौतिक जगत में जीने की प्रेरणा देता है। आज संपूर्ण समाज के समक्ष अगर कोई व्यक्ति बुरी आत्माओं की परिधि में स्वयं कैद हो जाता है तो गीता का संदेश उसका मार्गदर्शन तय करता है। यह वही संदेश है जो अर्जुन जैसे गांडीवधारी वीर धुरंधर योद्धा को रणक्षेत्र में अग्निकुंड के समान वीर पुरुष बना देता है। यह भारतीय चिंतन परंपरा का ही ज्वलंत प्रमाण है कि व्यक्ति लक्ष्य विहीन होने के बावजूद भी सकारात्मक जीवन दृष्टि को धारण करते हुए अपने लक्ष्य को प्राप्त करने में सक्षम होता है। यह साधारण बात तो है परंतु इस साधारण बात के भीतर भारतीय चिंतन परंपरा की असाधारणता गहराई से अपनी जड़े जमाई हुई है।
भारतीय ज्ञान परंपरा की इस पद्धति को आज विश्वविद्यालय स्तर पर अपनाने की महत्वपूर्ण आवश्यकता है। ज्ञान विचारधारा का विषय नहीं है। विचारधारा ज्ञान का विषय हो सकता है। ज्ञान किसी भी व्यक्ति के मस्तिष्क के भीतर राजमुकुट-सा जड़ित, चमकते हिमालय की तरह, हीरे के समान है। आज जहांँ लोभ एवं अपराध दिन-प्रतिदिन बढ़ता जा रहा है, मनुष्य स्वभाव से ही लालची है। ऐसी स्थिति में भारतीय प्राचीन ज्ञान परंपरा का अनुसरण एवं शिक्षण विद्यालय एवं विश्वविद्यालय का आधार बने, यह अत्यंत आवश्यक बन जाता है।
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