गुरुवार, 17 अगस्त 2023

व्यंग्य की तलाश - भाग तीन - डॉ. चंद्रकांत तिवारी - उत्तराखंड प्रांत

 व्यंग्य की तलाश -(भाग तीन) - डॉ. चंद्रकांत तिवारी 

विश्व के मानचित्र पर भारत महज एक देश ही नहीं बल्कि विभिन्न सभ्यताओं का समुच्चय है। यहाँ से निकली सभ्यताओं की छोटी-छोटी नदियों का जल विश्वसागर की जलसंधि को स्पर्श कर भारतवर्ष की संस्कृति के कई आयाम चिन्हित करता है। भारतवर्ष की संस्कृति में आत्मिक संतुष्टि का भाव गहराई से समाया हुआ है। यह भाव विदेशियों को इतना प्रभावित करता है कि विदेशी अपना घर-द्वार छोड़ यहाँ बसने को तैयार खड़े हैं। हम भारतीय हृदय से बड़े सरल, मन से बढ़े तरल और बिना वजह कोई हमें परेशान करे तो उसके लिए हम गरल हैं। जो भी हमारे समाज का हिस्सा बना वह पानी में चीनी की तरह घुल गया, और जो ऐसे छोटे गन्नों की पैदावार चीनी के मोटे दाने घुल नहीं पाये उसे हमने चुन-चुन कर बाहर निकाला और सिल-बट्टे पर कूट-कूट कर बुरादा बनाया। भारतीय समाज में एक विचित्र कौशल विकास आत्मिक रूप से जुड़ा हुआ है। हम हर उस टेढ़ी-मेड़ी चीज को ठोक-पीट कर सीधा बना देते हैं जो अनियंत्रित होकर समाज में बरगद के पेड़ की तरह विस्तारवादी नीति की तरह फैल रही होती है।

हमारे देश में वाद से बढ़कर विवाद है। हर विवाद पर संवाद है। संवाद से बढ़कर राष्ट्रवाद है। राष्ट्रवाद के आगे फुलस्टाॅप है। दुश्मन ने हमसे टकराने की कई बार नाकाम कोशिश की है परंतु हमारे राष्ट्रवादी गांडीव की तान सुनकर दुश्मन की पतलून गीली हो गई। उसकी बंद आँखें और सिकुड़ गई। क्योंकि हमारे पास राष्ट्रवाद है। हम भूखे-प्यासे रह सकते हैं परंतु राष्ट्रवाद हमारे लिए सर्वोपरि है। हमारा राष्ट्रवाद स्वदेशी है। जिसमें आत्मनिर्भरता का भाव गहराई से जुड़ा हुआ है। हमारे राष्ट्र की संवेदनाओं का प्रतीक धर्म में निहित है। धर्म हमारे लिए जीवन जीने की एक कला है। संस्कारों का नवगीत एवं तीज-त्योहारों और आपसी सहमति से संस्कृति की प्राकृतिक यात्रा की विरासत निर्मित करते हुए, धर्म दर्शन की रूपरेखा में परिणीती प्राप्त करती है। इच्छा , क्रिया और ज्ञान का समन्वित प्रयास ही धर्म दर्शन को वैश्विक स्तर पर स्थापित करता है। धर्म ने कर्म को स्वर्ग की राह पर नैसर्गिक प्रकृति -परिवेश के मध्य, हिमालय के श्वेत मस्तक से परिपूर्ण उच्चादर्शों के साथ उठना सिखाया। नैतिक चरित्र की आध्यात्मिक - प्राथमिक - अनुशासनात्मक पाठशाला धर्म दर्शन की वैश्विक परंपरा एवं आत्मिक चेतना में ही निहित है।

धर्म नियमित रूप से अनवरत- नैसर्गिक क्रिया - कलाप है। यह धुंधली चादर में उजली संभावित किरणों का दैविक प्रकाश है। यह हमारा पथ प्रदर्शित करता है। धर्म हमारी संस्कृति और समाज में पारिजात वृक्ष की तरह खड़ा है। जिसका कोई डुप्लिकेट मार्केट में नहीं बनाया जा सकता। हमारे धर्म में राम-घनश्याम, नंदकिशोर- मनमोहन, माखनचोर, बंशीधारी-कृष्ण मुरारी, त्रिनेत्रधारी, हजरत पीर, संत-फकीर, रहीम-कबीर आदि रहे हैं। हमारे यहाँ साधारण लोगों में असाधारण प्रतिभा है। माता जानकी प्रभु श्री राम हमारे आराध्य स्तुत्य हैं। इसीलिए हमारी संस्कृति बेजोड़ है। हमारी सभ्यता गंगाजल बनकर कई स्वदेशी - विदेशी मुर्दों को मोक्ष की राह दिखाती है। कई विदेशियों को माँ गंगा ने सीधे मोक्ष की प्राप्ति कराई है। यह उन मुर्दों का सौभाग्य है जिनकी राख को माँ गंगा अपने में धारण कर लेती है। गाय, गंगा, गीता और गांँव हमारी सनातन संस्कृति के चार अध्याय हैं।

महात्मा गाँधी भारत के ऐसे लाल थे जिन्होंने अंग्रेजी हुकूमत को पीला कर दिया था। गाँधी जी ने दक्षिण अफ्रीका में जो प्रयोग प्रारंभ किये थे उसकी स्थायी प्रयोगशाला भारत में स्थापित की और सत्य-अहिंसा के कैमिकल से जो कीटनाशक तैयार किया उसका छिड़काव सबसे पहले अंग्रेजों पर किया। अंग्रेज मन के काले और तन के गोरे थे। स्वदेशी कीटनाशक रूपी सत्य-अहिंसा के स्प्रे से दमा के रोगी हो गये। अब वह पहले की तरह खुली हवा में साँस न ले सके। जिस ओर से गाँधी जी का काफिला गुजरता अंग्रेज घबराते। एक साधारण से व्यक्ति ने अंग्रेजों की नींद उड़ा दी। अंग्रेजों को सपनों में भी गाँधी जी से डर लगता था। नमक बनाकर गाँधी जी ने अंग्रेजों को खुली चुनौती दे डाली। अंग्रेजों को अपने खुले जख्मों का डर सताने लगा कि कोई नमक न छिड़क दे। सत्य की सफेद धोती और हिंसा की रोकथाम के लिए लाठी लेकर गोरे अंग्रेजों को आगाह करते और कहते कि अभी भी समय है अपने देश लौट जाओ। कल को न अपने देश के रहोगे न भारत के रह सकोगे। यह भारतवर्ष है यहाँ के टुकड़ों पर कब तक पलते रहोगे। गाँधी जी का चरखा और खादी स्वदेशी भावना का नवाचार था। चरखा तो घर-घर में लोकप्रियता पा चुका था। देश में ऐसे कई चरखे सुदर्शन चक्र की तरह चलने लगे। मानों अंग्रेज सोच रहे हों कि हमारे गले की नाप का फंदा न जाने किस सुदर्शन चरखे में तैयार हो रहा है। चरखा राष्ट्रवादी भावनाओं का द्योतक और भारतीय पुनरुत्थान का अनवरत प्रतीक चिह्न है। जिससे बनने वाला सूत किसी हीरे की काट से कम न था। चरखे की गति और नमक का घोल,भारत की जनता और गाँधी के बोल, लाठी की आवाज, स्वदेशी बोल, अब तो तय था,अंग्रेजों का बिस्तरा गोल। हमारे स्वदेशी चरखे से बना हुआ खादी इतना मजबूत हुआ करता था कि अगर इस खादी को अंग्रेजों पर भीगो-भीगो कर मारा जाता तो उन्हें पता चलता कि भारत के पूत और चरखे के सूत की ताकत क्या होती है। खादी की मार और चरखे की धार का कोई मुकाबला न था साहब। राजनीति में खादी, गाँधी और चरखे का योग हर वोट की चोट पर दस्तक करता है। नेताओं को खादी का प्रयोग पता है। कि खादी का कहाँ और कैसे इस्तेमाल करना है। जिस लाठी से गाँधी जी ने आजादी का गोवर्धन पर्वत उठाया था वह गाँधी जी की निशानी आज भी मौजूद है। नेताओं के सफेद कुर्ते और पुलिस के डंडे स्वदेशी आत्मनिर्भरता की पहचान है। शायद गाँधी जी की भी यही इच्छा थी। इसीलिए पुलिस प्रशासन ने गाँधी जी का डंडा जनहित में थाम लिया और नेताओं ने खादी।

हमारी खादी सरहद की सुरक्षा के लिए प्रतिबद्ध है। चरखे से बनने वाला सूत का धागा हर भारतीय को सुदर्शन-सी गति देते हुए एक सूत्र में पिरोते हुए मजबूत दीवार का काम करता है। जिसके जोड़ फैबिकोल से भी मजबूत और टिकाऊ हैं। विश्व की किसी भी बड़ी दीवार से बढ़कर हम भारतीयों की राष्ट्रवादी विचारधारा है। हमारा देश पत्थर में भगवान को देखता हैं, पूजता है और मिट्टी का तिलक लगाकर सरहदों की रक्षा के लिए प्रतिबद्ध है। हमने कई बार सरहद पार से बिल खोदकर हमारी सरहद में घुस आने वाले ऊदबिलावों को कान पकड़ कर उलटी गिनती करवाई है। परंतु हमारे पड़ोसी ऊदबिलाव बड़े उद्दंडी हैं। खैर मांफ करना हमारी सनातन संस्कृति है। हम भारतीय हैं, मर्यादा में यहाँ पुरूषोत्तम हुए हैं। आज्ञा में नि: स्वार्थ भावप्रिय भरत शिरोमणि एवं कर्मवीर-कर्तव्यधीर दशरथ नंदन हुए । हम अतिथि को भगवान मानते हैं। परंतु क्षमा की भी कोई सीमा होती है। दधिचि की हड्डियों का वज्र अब तक हमारे पास है। अगर हमारी भक्ति शक्ति में बदले इससे पहले जितने समुद्र और पर्वत पार करके तुमने भारत में प्रवेश किया है उसी दिशा को वापस हो लें। अगर मर्यादा पुरुषोत्तम के वंशज कुपित हुए तो नाभी का अमृत कब सूख जाएगा यह समझ न आएगा। यह गाँधी का देश है तो यह सुभाष का भी देश है। यहाँ सावरकर हुए तो सरदार पटेल भी थे। यह देश कलाम का भी उतना ही है जितना कलम का है। यह देश आर्यों का है। कुरूवंशो की यहाँ शौर्य गाथा की लिखावट अमिट है। यहाँ की सेना के समक्ष दुश्मन भय से गीला और चेहरे से पीला हो जाता है। यहाँ छप्पन इंच का सीना है। हर विसंगतियों पर ताली है, थाली है, घंटी है और दीये की रोशनी पर राष्ट्रवाद के अंडे उबलते हैं । 

वैश्विक महामारी में भी गरीब के घर में उजाला है। हमारे पास विजन बड़ा है। हालाँकि हमारा देश अभी विकासशील की दौड़ में बहुत पीछे खड़ा है। लेकिन हर मुश्किलों में अजेय बनकर लड़ा है। राजनीति हमारे यहां व्यवसाय है। सभी नीतियों की धारा राजनीति से निकलती है। नेताजी का पैजामा छोटा-बड़ा हो सकता है परंतु राजनीति छोटी-बड़ी नहीं हो सकती। हां पेट बाहर जरूर निकल सकता है। अपनी सीमा से बाहर। राजनीति की बेबस परिधि से भी ज्यादा बाहर। पेट राजनीति का कुरुक्षेत्र है, जिसका युद्ध आज तक चल रहा है और आगामी सदियों तक चलता रहेगा।कुरुक्षेत्रे- कर्मक्षेत्रे- धर्मक्षेत्रे धरातलीय पृष्ठीय आवरण पर आज अर्जुन जिस मत्स्य को भेदने की कोशिश कर रहा है। वह बहुत दिनों पहिले ही मर चुकी है। हां मत्स्य का पेट फूल गया है। यह अनोखा दृश्य महासभा दे रही है। तभी अर्जुन का निशाना चूक गया और तीर पेट पर जा लगा। यह कहने की आवश्यकता नहीं कि पेट से क्या निकला होगा ! सब आश्चर्यचकित हैं, मौन हैं। 

क्रमशः.......

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