व्यंग्य की तलाश - (भाग - एक)-
रंगों का स्पर्श शरीर से कहीं अधिक मन को प्रभावित करता है । रंगों को छूने से जो प्रसन्नता जो आत्मिक संतुष्टि मन को प्राप्त होती है उसको शब्दों में बयां नहीं किया जा सकता है क्योंकि यह भावनात्मक रूप से परिपूर्ण होकर एक-दूसरे को परस्पर संवाद करने की अनुमति प्रदान करता है। बालकों सी स्वच्छंदता, कल्पना की सीमा-रेखा से परे, नवजात शिशु सी कोमलता और यौवन की महत्वाकांक्षा भी रंगों का स्पर्श पाकर, तीव्र गति से लक्ष्य की ओर बढ़ती है। जिन रंगों को बालक एक दूसरे पर बड़ी आसानी से डालते हुए आनंद प्राप्त करते हैं उन्हीं रंगों को उम्रदराज लोग लगाने में घबराते हैं।
रंगो का स्पर्श उम्र की सीमाओं का अतिक्रमण कर सारे बंधनों को तोड़ कभी बचपन के रंग में रंग जाता है तो कभी जवानी के गोते खाता हुआ ऊंचे नील गगन में आजाद पंछी की तरह तैरता रहता है। साठ बरस की उम्र के गांठ को खोलने वाला चाहिए। गांठ खुल जाए तो अनुभव और ज्ञान के अपार स्रोत बहेंगे। हमारे बुजुर्गों में युवाओं का कलेजा है। उम्र का ग्राफ तो घटता बढ़ता रहता है। वैसे तो उम्र दिमागी बुखार का पारा है। जो थोड़ी गर्मी-सर्दी बढ़ने से ही गिरता-चढ़ता है। हमारे देश में बुजुर्गों को इतना सम्मान मिला है कि तितली की चंचलता और भंवरे की गुनगुनाहट को आदर्श मानकर उम्र की किसी भी सीढ़ी पर बाप बनकर फूल खिलाने की भिन्न-भिन्न रंगों से मधुरस लेने की छूट है। यौवन का रंग हमारे मार्गदर्शक बुजुर्गों की नसों में बुझते दीये की तरह हमेशा फड़फड़ाता रहता है। बसंत के मौसम की गुनगुनी धूप में घूमता हुआ कोई मनचला राजनीति का दबंग भंवरा रंगों की चहक-महक और चकाचैंध में भिनभिनाता हुआ तन-मन को भिगोकर आत्मसंतुष्टि का अनुभव करता है। समाज सेवा का तमगा अब कुछ फीका हो चला है।
कीचड़ का रंग बालकों की स्वछंदता का प्रतीक है। समानता का आधार है। जब तक कीचड़ में सभी बालक मिलकर एक नहीं हो जाते तब तक समानता के सारे आधार बेरंग हैं। लड़-झगड़ कर एक दूसरे के कपड़े फाड़ना और एक दूसरे पर कीचड़ उछालना मिट्टी फेंकना यही तो बचपन की अमीरी और गरीबी की एकरूपता की आजादी का रंग है। व्यक्ति की महत्वाकांक्षाएं जैसे-जैसे बड़ी होती हैं यही मिट्टी और कीचड़ उछालने के रंग दाग के रूप में बदल जाते हैं और बचपन इनसे कोसों दूर निकल जाता है। बच्चा जैसे- जैसे लंगोट से पैजामे तक पहुंचता है। मां बाप की चिंता घर की चारदीवारी से बाहर झांकने लगती है। उम्र के रोशनदान से झांकती हुई जवानी किसी भी परेशानी की चिंता का कारण हो सकती है। अमीर बच्चों और गरीब बच्चों का अंतर सरकारी और प्राइवेट स्कूल में बंट जाता है। जिससे हमारी शिक्षा के रंग भी अलग-अलग हो जाते हैं।
वैसे हमारी शिक्षा बहुरंगी है। यहां अपने रिस्क पर जितना चाहो पढ़ सकते हैं। हवा में तैरती हुई पतंग की तरह जितनी ऊंचाई तक जाना चाहो उड़ सकते हो। पतंग कटने का जिम्मा सरकार का नहीं है। भारत की शिक्षा प्रणाली की थाली में मिड डे मील की तरह जब चाहो खा लो या जब चाहो बजा लो। हमारी शिक्षा प्रणाली योजनाओं की दो नाली बंदूक से निकल चुकी है। गोली निशाने पर लगे या निशाना गोली के आगे आ जाए, इस बात से बेखबर कई डेली वेज शिक्षकों के वर्ग इस निशाने की परिधि के भीतर घूम रहे हैं। जिनमें अतिथि, तदर्थ, शिक्षामित्र, नियोजित शिक्षक, शिक्षक बंधु, ठेके के शिक्षक विश्व मानव या महामानव बनाने का जिम्मा अपने सिर उठाए हैं। इनकी जरा सी भूल विश्व मानव का हाजमा बिगाड़ सकती है। गंभीरता और भावुकता के बीच की संकरी गली से गुजरने का रिस्क तो खुद ही उठाना होगा साहब।
मनुष्य भावात्मक रूप से मूर्ख और कामचोर होते हुए भी हर सभा में विद्वता का परिचय देता है। इसे अभ्यास कहें या फिर परिस्थितियों से भी परिस्थितियाँ बनाकर उनसे बाहर निकलने की परिस्थिती में अभ्यस्त व्यक्ति, ही नेतृत्व कौशल में कुशल सामाजिक चोर कहलाता है। यह रंगों की शक्ति का प्रमाण है। भावनाओं की शक्ति का विस्तार है। रंग जिंदगी के अनेक भावों को दर्शाते हैं।
भाषा सृष्टि में सर्वत्र विद्यमान है। सृष्टि की किसी भी वस्तु को देखने के बाद अगर मस्तिष्क के प्रकोष्ठों पर बिंबात्मक दृश्य न उभरें तो भाषाई चेतना नौ रसों की भांति सुसुप्त बुद्धियुग के अवचेतनात्मक महासमर में पथविहीन सी नजर आती है। जिस प्रकार आत्मा मोक्ष मार्ग की प्राप्ति की तलाश में भटकती है, ठीक उसी प्रकार भाषा भी अपना पथ तलाश करने के लिए गूँज की भांति अखिल अनिश्चित अकल्पनीय ब्रह्मांड में ध्वन्यात्मक प्रतीकों का समुच्चय बन सार्थक शब्दों का नया शरीर पाने के लिए आतुर रहती है।
भाषा शिशु के भीतर उतनी ही सार्थक है जितनी वृद्ध के लिए श्वास। भाषा बनावटी रिश्तों के लिए भी उतनी ही सार्थक है जितनी कि समाज और साहित्य के निर्माण के लिए आवश्यक। भाषा का समाजशास्त्र उतना ही मुश्किल है जितना आलोचना की सामाजिकता। कवि हमेशा ही रचना की शब्दनुमा परिधि के भीतरी प्रकोष्ठों में आलोचना को अवचेतनात्मक रूप में रखते चलता है, फिर भी रचना आलोचना की मांग करती है। भाषा हमेशा नवीन शब्दनुमा आवरण को धारण करने में अपनी वास्तविक प्रासंगिकता खो देती है परंतु फिर भी रचना कालजयी बन जाती है।
भाषा का तांडव बड़ा विध्वंसकारी होता है। भाषा शिव के त्रिशूल से विष्णु के सुदर्शन से ब्रह्मा के कमंडल से निकलते हुए संपूर्ण प्रकृति को मधुर संगीत से वशीभूत कर देती है और पशु पक्षी जीव जंतु सभी इस भाषा के वशीकरण में शामिल हो जाते हैं और फिर भाषा अपना चक्र चलाती है। जो समय का चक्र है वही नियति का चक्र है। भाषा मनुष्य के साथ चूहे बिल्ली की तरह खेलती है। सांप नेवले की तरह किसी भी स्थिति के लिए मनुष्य को मौका देती है। हिरण की तरह दौड़ाती है तो बाघ की ऊंची छलांग मारकर अपने शिकार की श्वास नली को दबोच लेती है। मदारी की भाषा में बंदर अपनी पूरी जवानी उछल-कूद में बिता देता है। बंदर उस भाषा का गुलाम बन जाता है और भालू डुगडुगी की आवाज में सर के बल दौड़ता हुआ बार-बार बेवकूफ बनता है। नादानी में नाचता है और लोगों का मन बहलाता है। भालू की विवशता और बंदर की मजबूरी सब भाषा की करामाती सौगात है। भाषा भले व्यक्ति को निर्वस्त्र और नंगे को कपड़ा दे सकती है। भूखे को भोजन और धनवान को कबाड़ी भी बना सकती है। भाषा का अनुशासन पशु पक्षियों और जानवरों में इंसानों से अधिक देखा गया है। इंसानों को भाषा द्वारा ही हर प्रकार की शिक्षा दी जाती है। परंतु इसके विपरीत पशु पक्षियों एवं जानवरों को प्रकृति स्वयं शिक्षा देती है। प्रकृति की गोद में निरीह प्राणियों के लिए मातृत्व का भाव है। देवत्व की स्थापना है। देवी का स्तुत्य है और शिव प्रदेश का आशीर्वाद है। प्रकृति ने हमेशा रंग -बिरंगे वस्त्र दिए हैं। विकलांगों को राहत दी है। भिखारियों को भोजन दिया है। दुराचारियों को निवास भी दिए हैं। हमारे ईश्वर का निवास और हमारा अंतिम मोक्ष भी प्रकृति की गोद में ही निहित है। प्रकृति की गोद में हमारी सुबह दोपहर और शाम होती है और हमारी रात भी प्रकृति की गोद में ही अगली सुबह के इंतजार में पूर्ण होती है। पर हम चांडाल प्रकृति का इतना दोहन कर बैठे हैं कि संपूर्ण मानवता खतरे के निशान से ऊपर आ चुकी है। मानव जो अपने ज्ञान का इतना दंभ भरता है प्रकृति के समक्ष वह रेंगते हुए केंचुए के समान है। जिसको जंगली मुर्गी कभी भी अपना आहार बना लेती है।
जितनी प्रतिस्पर्धा हम इंसानों में है उससे कहीं अधिक प्रतिस्पर्धा का भाव पशु पक्षियों एवं जानवरों में देखा गया है। शेर और हिरण दोनों का मकसद एक ही होता है परंतु दोनों अपना-अपना धर्म निभाने के लिए दौड़ रहे होते हैं। प्रकृति की जीत हमेशा निर्दयी हाथों में होती है।
पशु-पक्षियों एवं जीव-जंतुओं का अनुशासन और प्रेम बड़े उच्च कोटि का होता है। चींटियों का अनुशासन मानव जीवन के लिए बहुत बड़ा दृष्टांत। हाथियों का झुंड अपनी मौजमस्ती/दादागिरी करता हुआ किसी के भी खेत में बेधड़क शराबी की तरह घुसकर गोबर गणेश कर सकता है। सूअरों का आतंक आजकल अपनी सरहद की सीमा रेखा को लांघ गया है। कुछ मनचले सूअर जंगल की सीमा रेखा को फांदकर अपने मनचले स्वभाव के अनुकूल लोगों के आलू खोदकर अपनी भड़ास निकालते हैं और अभिव्यक्ति की आजादी का राग अलापने लगते हैं। कुछ हमारे पाले हुए सूअर इतने अनभिज्ञ हैं कि स्थानीय संसाधनों का प्रयोग करते हुए भूलवश अपने सरल स्वभाव के कारण स्वच्छ भारत अभियान को चुनौती देते देखे जा सकते हैं। कीचड़ में नाक घुसा-घुसाकर सूर्य नमस्कार करता और आनंदोपलब्धि मनाता हुआ स्वर्गिक अनुभूति का परम सुख प्राप्त करता हुआ इसी परिवेश में जीवन जीने का अभ्यस्त हो चुका है। कीचड़ से जीवन का रस निचोड़ अपने यथार्थ से जुड़ा हुआ सूअरों का दल सभ्य और अभिजात्य समाज का अटूट हिस्सा है।
जानवरों की सभा से लेकर देश की महासभा तक भाषा एक बहुत बड़ा प्रश्न है। जिसका उत्तर खोजने के लिए भाषा के नाम पर कई विमर्श चल रहे हैं। प्रयोगशाला में कई प्रयोग हो रहे हैं। परंतु भाषा मौन बने हुए भी बहुत कुछ कह देती हैं। आज देश में भाषा का प्रश्न आम बात है अधिकांश लोग भाषा विमर्श के नाम पर पूरे का पूरा दिन बोलने में खपा देते हैं। होता तो कुछ नहीं है वही ढाक के तीन पात। हां लेकिन कुछ लोगों को भाषा के नाम पर काम मिल गया है। कुछ लोगों के लिए भाषा विमर्श सरकारी परियोजनाओं से उतरता हुआ कागज का जहाज जिस पर गुलाबी और हरे-हरे गांधीजी के चित्र बने हुए हैं उल्लू पर लक्ष्मी बैठकर स्वयं आई है तो भाषा अपने बिल से बाहर निकल कर इधर उधर झांकती है और दुल्हन की तरह घुंघट ओढ़ कर किसी किनारे में बैठ जाती है।
भाषा एक हथियार है वास्तविक हथियार नहीं, एक शाब्दिक विकल्प। भाषा दुःख का उत्सव है तो हर्ष का विलाप, भाषा संस्कृति का नगरकोट है तो राजनीति खण्डहर सदृश्य। भाषा मरुतप्राण सी शक्ति है तो श्वापदों का वाक-युद्ध। भाषा साहित्य और संस्कृति का उन्नयन व अवनमन है। भाषा स्वयं में अपनी वास्तविक प्रासंगिकता से कोसों दूर रहकर भी रचना को भू-खंड के सदृश्य वट-वृक्षों की कूॅची से निर्मित नवजात शिशु की भांति पालन-पोषण करती है। लेकिन इतना सब होने के बावजूद भी भाषा एक ऐसे नवजात शिशु का विलाप है जो अपनी मां की गोद से बिछड़ गई है। और सरकारी अस्पताल के किसी बेड पर वेंटीलेटर पर लेटी हुई है। देश के हर भाषा प्रेमी को उस दिन का इंतजार बड़ी बेसब्री से है कि जिस दिन यह बड़ी होगी अपने पैरों पर खड़ी होगी उसके बाद भाषा पर बात करने के लिए बचेगा क्या?
भाषा का खेल दिन-रात चलता रहता है। इस तरह भाषा की आड़ में पूरी रात शिव का तांडव नृत्य चलता है। इस तांडव का सूत्रधार कौरवों की सभा का धृतराष्ट्र बंद आंखों से पूरी रात भाषा के नाम पर नए-नए तरीके इजाद करेगा और सुबह होने पर किसी समाचार पत्र में उसे प्रकाशित करके अपने परिश्रम का पारितोष दर्शक दीर्घा से मांगने के लिए लालायित रहेगा।
मदारी ने हमें बंदर और भालू की तरह ही नचाया है। क्योंकि हमने सिर्फ डुगडुगी की ध्वनि सुनी है। हमने आवाज के पीछे कारणों का अध्ययन नहीं किया।
मनुष्य स्वभाव से कर्मशील और परिश्रमी होने के साथ-साथ भीतर से धूर्त और चालाक भी होता है। स्वाभाविक गुण के विपरीत अगर वह जाता है तो वह कामचोरी या आलस्य न होकर नवाचार का एक रूप भी हो सकता है। जिसे चिंतन कहा जा सकता है और वह एकांत में बैठकर ही उपजता है।
एकांत व्यक्ति के व्यक्तित्व को योगी बना देता है तो अकेलापन व्यक्ति के व्यक्तित्व को भोगी बना देता है और जो जरूरत से ज्यादा चालाक होने के साथ-साथ धूर्त होता है वह स्वयं को रोगी बना लेता है। क्योंकि ऐसे व्यक्ति के भीतर की रोमानियत स्वाभाविक रूप से खत्म हो जाती है और रिक्त स्थान पर सम-सामयिक एवं प्रासंगिक विषय पर आधुनिकता के कलेवर में लिपटी धूर्तता और चालाकियाँ उत्सुकतावश मस्तिष्क के प्रकोष्ठों पर अपना आयाम विकसित कर लेती हैं। साथ ही चुनौतियों से लड़ने की प्रेरणा भी देती हैं।
समाज हमेशा की तरह स्वयं वर्ग निर्धारित कर लेता है। अकारण ही धूल को भभूत समझकर अपने मस्तक पर लगाने का जोखिम उठा लेता है । और ऐसे व्यक्ति जो अपने रोजमर्रा के कार्यों का डंका पीटने वाले, महज तारीफ और सभा/महोत्सव के केंद्रीय स्थान पर अपनी भूमिका बनाये रखें हेतु ऐसे कार्यों में संलिप्तता दर्शानें का कार्य करते हैं, ऐसे व्यक्तियों के प्रति अकारण अपनी प्रतिबद्धता दर्शाते हैं जो महज राई को पर्वत बना देती हैं ,कामचोर/निठल्ले को नेता बना देती हैं, जिसे भाषा की समझ न हो उसे भाषा का संरक्षक/ शिक्षक बना देते हैं। गली-नुक्कड़ पर भीख मांगने वाले बाबाओं को अपना आदर्श मानकर साधकता दर्शानें में सुखानुभूति का अनुभव करती हैं । आज का मनुष्य भौतिक सुविधाओं का गुलाम बनता जा रहा है। असंतोष, अलगाववादिता, उपद्रव, स्त्रियों को निर्वस्त्र कर घुमाया जाना, जातिगत समीकरण को लेकर नैतिक चरित्र को अपमानित किया जाना, वोट - नोट - चोट की राजनीति, क्रांतियांँ, आंदोलन, असमानता, विषमता, अनैतिकता, अत्याचार, अपमान, असफलताएं, अस्थितरता, अवसाद, वासना, चिंता, संघर्ष, अनिश्चित्ता, हिंसा और कई वाद यह सब मानवीय सभ्यताओं के नैतिक चरित्र और आचरण को अंदर से दीमक की तरह खोखला कर रहे हैं। तो वहीं व्यक्तिवाद, जातिवाद, भाषावाद, क्षेत्रीयतावाद, हिंसावाद, भाई-भतीजावाद, क्षणवाद, अस्तित्ववाद, आधुनिकतावाद, उत्तरआधुनिकतावाद, विभिन्न समसामयिक स्थितियों के चलते समाज में बहुभाषावाद एवं बहुसंस्कृतिवाद सभी वादों के समानान्तर चरित्रहीनतावाद अपने पैर पसार चुका है और मानवीय मूल्यों और अपनत्व को भीतर से घाव कर रहा है, जिससे मनुष्यों के नैतिक चरित्र का अवमूल्यन हो रहा है। व्यक्तित्व के सभी निर्णय और योग्यता के सम्पूर्ण साक्षात्कार एवं मापदंड अब व्हट्सएप्प विश्वविद्यालय में होते हैं।
क्रमशः......
© डॉ चंद्रकांत तिवारी
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