व्यंग्य की तलाश - (भाग दो)
डॉ. चंद्रकांत तिवारी - उत्तराखंड प्रांत
हिन्दू समाज की सबसे बड़ी धरोहर उसका वैदिक साहित्य है। इस साहित्य में सभी हिन्दुओं की आस्थाओं, श्रद्धा, भक्ति, आत्म-विश्वास तथा मानवीय जीवन मूल्यों का क्रिया-कर्म होता रहता है। संपूर्ण भारतीय वांग्मय उसी की धुरी पर टिका हुआ है। इस बात में शक नहीं कि साहित्य सत्य और काल्पनिक दोनों होता है, परंतु जहाँ तक मानवीय मूल्यों का सवाल है तो साहित्य समाज सापेक्ष अभिव्यक्त होता है। युगबोध एवं मूल्यबोध पर आधारित होता है।
जीवन में समस्याएं कभी कम नहीं होती हैं। घर परिवार से लेकर देशभर में कोई इकलौता नहीं जहांँ समस्याएँ न हों।
आज देश में इतनी समस्याएँ हैं कि उन पर बातें करते हुए कई और समस्याएँ पैदा होने की पूरी संभावना है। हर समस्या के समाधान के लिए एक सरकारी योजना चाहिए। सरकारी योजनाएं डोली पर बैठती हुई किसी दुल्हन की तरह है। जिसका चीरहरण संभावित है। केंद्र सरकार अगर कोई योजना राज्य सरकारों को आबंटित करती है तो यहां बैठे भूखे सभासदों, मेयरों, और विधायकों के चेहरे खिलखिला उठते हैं। किसी लकड़बग्घे की तरफ जो फेंके हुए टुकड़े को नोंच नोंच कर खा जाता है।
कमीशनखोरी प्याज की परतों की तरह धीरे-धीरे खुलती है। असल में ग़रीब तबके का आदमी प्याज के उतरते छिलकों की तरह धीरे-धीरे निर्वस्त्र हो रहा होता है।
आज देश में इतनी समस्याएँ हैं कि उन पर बातें करते हुए कई और समस्याएँ पैदा होने की पूरी संभावना है। हर समस्या के समाधान के लिए एक सरकारी योजना चाहिए। सरकारी योजनाएं डोली पर बैठती हुई किसी दुल्हन की तरह है। जिसका चीरहरण संभावित है। केंद्र सरकार अगर कोई योजना राज्य सरकारों को आबंटित करती है तो यहां बैठे भूखे सभासदों, मेयरों, और विधायकों के चेहरे खिलखिला उठते हैं। किसी लकड़बग्घे की तरफ जो फेंके हुए टुकड़े को नोंच नोंच कर खा जाता है।
कमीशनखोरी प्याज की परतों की तरह धीरे-धीरे खुलती है। असल में ग़रीब तबके का आदमी प्याज के उतरते छिलकों की तरह धीरे-धीरे निर्वस्त्र हो रहा होता है।
सरकारी परियोजना प्रेशर कुकर की वह सिटी है जो कभी बजती नहीं है लेकिन खाना पका देती है। उच्च पदों से लेकर ग्रामीण स्तर तक सबको धूप और बतासे चढ़ावे के रूप में चाहिए। सरकारी योजनाओं से मिलने वाला प्रसाद मन को आनंदित तो करता ही है आत्मा को भी प्रफुल्लित कर देता है। कर्मशील स्वयं आत्मानुशासित कर्मवीर है परन्तु कर्महीन स्व-आचरणहीन होने पर भी पूर्ण कर्म में अपूर्ण भाव को देखने का अभ्यस्त है । कर्महीन व्यक्तियों का सबसे सुंदर आभूषण सरकारी योजनाओं से मिलने वाला प्रसाद है। ऐसे प्रसाद को प्राप्त करने के लिए व्यक्ति को चहुँमुखी प्रतिभाशाली और समाज का सच्चा हितैषी स्वयं को दिखाना होता है। जो जितना कर्महीन होगा वह प्रसाद का उतना बड़ा दावेदार होगा। समाज के सारे बनावटी दुःख दर्द समेटकर अपने भीतर रखने की क्षमता ही व्यक्ति को भीतर से इस चरित्रहीन मंदिर का एकमात्र पुजारी बना देती है। ऐसे मंदिर का पुजारी हमेशा लोकतंत्र की आय पर निर्भर रहकर आत्मनिर्भर बना रहता है।
कर्म के द्वारा ही धर्म का पालन किया जाता है, कर्माभिमुख धर्म ही प्रेम का उपजीव्य है। क्योंकि प्रेम, संवेदना सभी मानवीय मूल्यों में सर्वोपरि है। आनंदोपलब्धि जीवन की अंतिम और एकमात्र वैकल्पिक पूंजी है। सभी विषयों में सर्वोपरि और मूल्यनिष्ठ। साहित्य की अनेक कालजयी कृतियाॅ मानवीय मूल्यों का विषय प्रवर्तन करती हैं। सचमुच वैसी ही पुस्तकों का साहित्य कालजयी एवं मानवीय मूल्यों का आधार होता है जिसके रचयिता सत्ता के गलियारे में जाकर चिंघाड़तें या घिंघियाते नहीं अपितु अपनी परंपरा से जुड़े रहते हैं और अपनी लेखनी से मानवता का सच्चा मार्गदर्शन करते हैं। आज मानवीय मूल्यों में बदलाव का स्तर कंकाल सदृश्य बनता जा रहा है जिसे स्वयं ओंकारेश्वर भी समझने में अक्षम होंगे। स्वयं ब्रह्म भी उदासीन भाव लिए ऊर्जा विहीन होंगे।
हम हर बात पर नेताओं को कोसते हैं। यह कितना ठीक है। जिसे हम और आप टीका चंदन लगाकर संसद में भेजते हैं वह भी हमारे ही मध्य से तो होता है। कुर्सी की जिस दौड़ में युवाओं की साँसें फूलने लगती हैं, पाँव उखड़ने लगते हैं उनका हाजमां खाराब हो जाता है और आँतड़ों के पसीने छूट जाते हैं तो वहीं दूसरी ओर उम्र की सफेदी और डायलेसिस पर बैठा यमराज को अपनी बांह में दबाये चुनाव भी जीतता है और युवा पीढ़ी का आदर्श भी बनता है। हमारे देश के मंद विकास में नेताओं की कुर्सी पकड़ने की तीव्र गति एक ईश्वरीय कारण है। हमारे देश में पाँच साल की सरकार होती है। इन पाँच सालों में टेबल की आत्मनिर्भरता और कुर्सी की बांहों को मजबूती से पकड़े रखना परम धर्म अनवरत कौशल है। यह प्रक्रिया आत्मा को कुर्सी पर स्थायित्व प्रदान करे, हर कोई चरित्र विजयी नहीं हो सकता। किन्तु विजयोत्सव मनाया जाएगा, यही तो जनाधार है। आनंद जौहरी का तराशा हुआ हीरा नहीं साहब, यह तो नैसर्गिक प्रवृत्तिगत आत्मिक अंतिम मनोगत मनोजगत का एकमात्र वैकल्पिक आधार है।
रामायण और महाभारत का विस्तृत कथानक कुर्सी की आत्मनिर्भरता और चरित्र की आत्महीनता के कई पहलू दर्शाता है। देश की कुर्सी हो या राजा का सिंहासन यह करोड़ों लोगों की भावनाएँ से बनी होती है। चुनाव के दौरान हर कार्यकर्ता के पसीने की बूँद से इसके खाँचे मजबूत बनें रहते हैं। लेकिन शायद जनता भी वोट देने के बाद अपने घर का रास्ता भटक गई है। राह में उसे अपना घर नहीं मिल रहा। चुनावी योजनाओं में सड़क निर्माण की बातें सोचता हुआ आम आदमी अचानक बड़े से गढ्ढे में गिरता है। ऐसे गढ्ढे जनता के आत्मविश्वास को बढ़ावा देने के लिए सड़कों पर छोड़ दिये जाते हैं। विगत दिनों कुछ कोरोना महामारी से बचने के लिए सुरक्षा घेरा समझकर नीचे गिरते हुए आत्मनिर्भर योजना का पूरा फायदा उठाने का प्रयास करते हैं।
क्रमशः आज की जीवन शैली और जरूरतों की बढ़ती परिधि के समक्ष मानवीय मूल्यों की धमनियों में काॅलेस्ट्रोल, वसा अपना दायरा फैला रही है। समय रहते बाई पास सर्जरी की जरूरत है अन्यथा हृदय रूपी विस्तृत समाज की ओपन हार्ट सर्जरी, रिश्तों की चीर-फाड़ संवेदनाओं रहित संस्कृति सब की सब एक्सप्रेस वे पर वैश्विक होती चली जाएंगी।
मानव सभ्यता का इतिहास रचनात्मकता एवं नवाचारों से भरा है। रचनात्मकता प्लेटो के अनुकरण सिद्धांत की परिधि से गुजरते हुए अरस्तू के अनुकरण सिद्धांत का पुनर्सृजनवादी नवाचारिक दृष्टिकोण है। जो कल्पना के यथार्थ को पुनर्जीवित करता रहता है। साथ ही कल्पना की शक्ति, नई-नई उद्भावनाओं के साथ मानव मन को सक्रिय एवं ऊर्जा से परिपूर्ण करते हुए निरंतर चिंतनशील बनाती है और समाज के लिए अमूल्य-उपहार उपलब्ध कराती है। कल्पना की सबसे बड़ी शक्ति यही है कि कल्पनाशील व्यक्ति सीमित संसाधनों में साधारण होते हुए भी असाधारण कार्य कर जाता है और यह सकारात्मक-चिंतन सृजन के साथ-साथ प्रकृति का पुनर्सृजन भी है। इस महाकालेश्वरी -धरणी पर सृजन-पुनर्सृजन-विसर्जन की प्रक्रिया निरंतर-नित-नित और अनवरत चलती रहती है। कल्पना का मिश्रण सभी में रहता है।
आत्मनिर्भरता की दिशा में हमारे पास ढेरों जुगाड़ हैं। आत्मनिर्भरता अंधेरी रात में पैदा हुआ ऐसा बच्चा है जो स्कूल में दाखिले के लिए अपने माता-पिता का नाम खोज रहा है। हम भारतीय विश्वास को जगाने से पहले अंधविश्वास की संकरी गली के चक्कर लगाते हुए, टीका चंदन से माथा लाल कर भक्त होने का स्थायी प्रमाण-पत्र प्राप्त करते हैं। जब अंधविश्वास का पूजन हो जाता है तो हमारा विश्वास स्वतः ही ऊपर हो आता है। अंधविश्वास के चलते कई साधु संतों की अच्छी चल जाती है। खैर यह कर्म भी काफ़ी परिश्रम और जोख़िम से भरपूर है। निरपराध जनता ने घर की सुख शांति के लिए जिन साधु महात्माओं की भक्ति के गीत गाये और जिन संतों को समाज का सच्चा हितैषी समझा वही महात्मा उसके दूध की पतेली से मलाई ढूंढ-ढूंढ कर खा गये और कबाड़ीवाला पतेली ले भागा। देश में अंधविश्वास का अच्छा साम्राज्य फल-फूल रहा है। किसी की नौकरी लगाने का झांसा देकर, किसी की शादी कराने का लालच देकर, मानसिक बीमारी से लेकर शारीरिक समस्या तक का समाधान, किसी दम्पत्ति के बच्चे न हो सकें तो इन नीम हकीम बाबा-संतों के पास वह सारे साधन हैं जो उच्च कोटि के अस्पतालों में ढूंढने से भी न मिलें। मेडिकल का छात्र फेल हो जाएगा, परंतु नीम हकीम बाबा-संतों की नीम हकीकी चलती रहेगी।
वैसे एक मनोवैज्ञानिक सामाजिक सोच है कि अंधविश्वास और विश्वास दोनों की जननी एक ही है। भेद हृदय और बुद्धि का भ्रांतिमान है। देह और संदेह का समायोजन, एक के साथ एक मुफ्त वाली योजना। विश्वास की कोंपलें मौसम और परिस्थितियों के अनुसार ही हरी होंगी। पानी में नमक की तरह और दूध में पानी की तरह, विश्वास स्थायी रहता है कर्म के सकारात्मक परिणाम में। विश्वास को स्थापित करने के लिए अंधविश्वास की आवश्यकता हो सकती है परंतु अंधविश्वास से विश्वास कभी स्थायी नहीं रहता। पत्थर में प्रत्येक व्यक्ति अपनी भावनाओं के अनुसार ही विषयवस्तु को देखता है। किसी को भगवान तो किसी को नींव का आधार। परंतु सहारा तो दोनों ही दशाओं में है। विश्वास उस तैरते हुए मुर्दे के समान है जिसने अतल गहराई में जाकर सत्य का गंगाजल अपने फेफड़ों में भर लिया है। विश्वास गहराई से बढ़ता है और ऊँचाई मिलने से सम्मानित होता है। मध्य स्थिति में मनुष्य पके हुए आम की तरह अनिश्चित-सा रहता है। नीचे गिरने का डर रह-रह कर सताता है। ऐसे फलों को निशाना लगाकर गिराया जाता है। गिरने का डर अधिक घातक है बजाय ज़ीने के डर से। बगैर गिरने की दूरी तय किए भी व्यक्ति गिर रहा है।
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