रविवार, 24 दिसंबर 2023
गुरुवार, 9 नवंबर 2023
शिक्षा में प्रकृति और स्थानीयता- ©डॉ. चंद्रकांत तिवारी
शिक्षा में प्रकृति और स्थानीयता-
©डॉ. चंद्रकांत तिवारी
An examination-free, practical and hands-on curriculum will have to be created which will make the students proficient and proficient in theoretical as well as professional skills. To make students self-confident and self-reliant. Their hands can work naturally. Can get speed. Get active. Can get experience and touch. Some work has to be done so that the student passing out of school can easily earn his living.👆
👇The developmental structure of experts, researchers, innovations and organizations will have to be identified in the country through special natural education study and teaching from primary level to higher education.👆
👆👆If we are not including nature education in educational institutions today then it does not bode well for our future. This will also be painful for our life.👆👆
प्राकृतिक शिक्षा का एक अन्य मुख्य आधार सामान्य जनमानस को पर्यावरणीय एवं प्राकृतिक शिक्षा देना भी है। क्योंकि कम ज्ञान के कारण सामान्य जनमानस द्वारा भी पर्यावरण को अधिकांश रूप से क्षति पहुंचाई जाती है। हमारा साधारण एवं स्थानीय जनमानस अगर पर्यावरण संरक्षण को समझेगा तो प्रकृति की धरोहर सुरक्षित एवं संवर्धित रह पाएगी। इस संबंध में सूचना एवं तकनीकी द्वारा, डिजिटल माध्यम द्वारा, इंटरनेट मीडिया द्वारा, ऑनलाइन शिक्षण द्वारा, वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग के द्वारा, टेलीकम्युनिकेशन द्वारा, सभी सूचना तकनीकिओं का इस्तेमाल करते हुए, स्थानीय भाषा में, लोक गीतों में, नुक्कड़ नाटकों द्वारा पोस्टरों द्वारा, चौपालों द्वारा, कठपुतलियों के खेलों द्वारा, सोशल यूटिलिटी प्रोडक्टिव वर्क के माध्यम से, आंगनवाड़ी द्वारा, ग्राम सभाओं द्वारा, ब्लॉक स्तर द्वारा, जिले स्तर पर डीएम द्वारा एवं स्थानीय वॉलिंटियर्स द्वारा जागरूकता बनाते हुए राज्य स्तरीय एवं केंद्र स्तरीय मूल्यांकन एवं आंकलन किया जा सकता है।
पर्यावरण शिक्षण एवं प्रकृति का अध्ययन नैतिक शिक्षा के केंद्र में होना चाहिए। इस बात में कोई शक नहीं रह जाता कि पर्यावरणीय अध्ययन का मूल्यांकन बहुत जरूरी है। यह मूल्यांकन तभी संभव होगा जब प्रकृति का पुनर्मूल्यांकन किया जा सकेगा। क्योंकि प्रकृति के प्रांगण में पर्यावरणीय क्षेत्र, जैव-विविधता, जीव-संरक्षण, जल, जीवन और जमीन निहित है। पर्यावरण की काल्पनिक चारदीवारी के भीतर संपूर्ण प्राणी जगत, प्राणी जगत के समकक्ष समाज और समाज के सापेक्ष परिवार और प्रत्येक परिवार मनुष्यों का एक समूह है। रिश्ते-नाते, भावनाओं का समुच्चय हैं। जो अपनी संपूर्ण गतिविधियों के लिए प्रकृति पर ही निर्भर रहता है।
हमें प्रकृति की विभिन्न शक्तियों को पहचानना होगा। इसलिए प्रकृति के विविध उपादानों का पुनर्मूल्यांकन बहुत जरूरी है। मानवता के इतिहास का, उसके उद्भव का, उसके विकास का पुनर्मूल्यांकन बहुत जरूरी है। उसके रहन-सहन का, उसके खानपान का, उसके तीज-त्योहारों का, उसके परस्पर संबंधों का, उसका जीव-जगत, पादप संपदाओं से, आत्मिक संबंधों का पुनर्मूल्यांकन बहुत जरूरी है। हमें प्रकृति को अपने मन के भीतर ढूंढना होगा और अपने मन को दूसरे के मन से मिलाने का भाव रखना होगा। हमें प्रकृति से तादात्म्य स्थापित करते हुए अपनेपन का एहसास भावात्मक स्तर पर ढूंढना होगा। हमें प्रकृति से भावनात्मक रूप से जुड़ने की जरूरत है। परमार्थ के कल्याण के लिए यथार्थ से लड़ना होगा, वह भी बिना स्वार्थ के। क्या हम ऐसा कर पाएंगे ?
प्राथमिक स्तर से लेकर उच्च शिक्षा तक विशेष प्राकृतिक शिक्षा अध्ययन-अध्यापन द्वारा देश में विशेषज्ञों, शोधार्थियों, नवाचारों, संगठनों का विकासात्मक ढांँचा चिंहित करना होगा। छात्रों को अपने परिवेश एवं पर्यावरण का अध्ययन करवाते वक्त हमें अंतरसंबद्धता के सूत्र को पहचानते हुए पर्यावरण का अन्य विषयों से तुलनात्मक अध्ययन-अध्यापन करवाना होगा। कक्षा-कक्ष शिक्षण की पहली शर्त अंतरसंबद्धता के सिद्धांत और स्थानीय-परिवेशगत विविध आयामों पर आधारित होगी तो छात्र-छात्राओं को सीखने के लिए अधिक प्रेरित करेगी। भूगोल, इतिहास, कृषि, सामाजिक विज्ञान, विज्ञान, चिकित्साशास्त्र, साहित्य एवं मानवशास्त्र सभी के केंद्र में पर्यावरणीय नीतियों का समुच्चय है। भाषा तो एक ऐसा साधन है जो व्यक्ति को स्थानीय होने का मौका देती है। स्थानीय गतिविधियों से जोड़ती है। व्यक्ति के व्यक्तित्व को देहाती बना देती है और देहाती को शहरीकृत ढांँचे में ढाल देती है। स्थानीय विषयवस्तु से सांस्कारित हो जाती है और भावनात्मक संबंधों को सतत जोड़ती है। इस प्रकार अगर पर्यावरण का शिक्षण और अध्ययन सहज, सरल एवं प्रकृति की प्रवृत्ति के अनुरूप बनेगा तो मानवीय जनजीवन एवं मानवता का विकास उस विकास की प्रकृति के अनुरूप ही चलता रहेगा। प्रकृति संरक्षण और संवर्धन के संस्कार विद्यार्थी जीवन में विकसित करने होंगे।
एक ऐसा परीक्षाविहीन व्यावहारिक और प्रायोगिक पाठ्यक्रम निर्मित करना होगा जो विद्यार्थियों को सैद्धांतिक पक्ष के साथ-साथ व्यवसायिक कौशलों में भी कुशल एवं पारंगत बनाएं। छात्रों को आत्मविश्वासी , आत्मजीवी बना सकें। उनके हाथों को प्राकृतिक रूप से काम मिल सके। गति मिल सके। सक्रियता मिले। अनुभव एवं स्पर्श मिल सके। कुछ ऐसा कार्य करना होगा जिससे विद्यालय से उत्तीर्ण होकर निकलने वाला विद्यार्थी आसानी से अपना जीवन यापन कर सके। हमें अपने स्कूली पाठ्यक्रम में ढांचागत परिवर्तन करना होगा। कक्षा-कक्ष शिक्षण को स्थानीय संसाधनों से जोड़ना होगा।
प्रकृति के प्रांगण में ऐसे कई उद्योग हैं। कई कुटीर उद्योग और कई लघु उद्योग विद्यार्थियों को नवजीवन दे सकते हैं। इस बात को सरकार एवं प्रशासन को समझना होगा। पर्यावरण शिक्षा का केंद्र पाठ्यक्रम ही नहीं है। किताबी ज्ञान ही नहीं है। उससे बढ़कर भी बहुत कुछ है। परंतु हम पर्यावरण शिक्षा को मात्र पाठ्यक्रम तक ही समाहित करके चल रहे हैं। हम अपने छात्रों को पर्यावरण संबंधी ज्ञान तो रटा देते हैं परंतु व्यावहारिक एवं प्रायोगिक स्तर पर हम उन्हें प्रकृति के साथ जोड़ने में नाकाम रहे हैं। जब तक हम अपने छात्रों को प्रकृति के विभिन्न आयामों से नहीं जोड़ेंगे, कृषि एवं सहकारिता, पशुपालन, मौन पालन, मत्स्य पालन, मुर्गी पालन, भेड़ पालन इसी तरह के अन्य कई लघु एवं कुटीर उद्योग जिससे आजीविका और रहन-सहन सुचारू एवं सरल गति से चल सके यह सब विद्यालयी शिक्षा के केंद्र में होना चाहिए। अगर हम आज शैक्षणिक संस्थानों में प्राकृतिक शिक्षा को शामिल नहीं कर रहे हैं तो यह हमारे आने वाले भविष्य के लिए यह शुभ संकेत नहीं है। यह हमारे जीवन-जगत के लिए भी दुखदाई होगा।
क्रमशः सकारात्मक प्रयास अपेक्षित.....!
बुधवार, 8 नवंबर 2023
ज़रूरतें युग सापेक्ष---* उत्तराखंड के विकास के लिए -डॉ. चंद्रकांत तिवारी -
*राज्य स्थापना दिवस 9 नवंबर- सभी को बधाई और शुभकामनाएं*
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*ज़रूरतें युग सापेक्ष---*
*उत्तराखंड के विकास के लिए -*
डॉ. चंद्रकांत तिवारी -
(उत्तराखंड प्रांत )
उत्तराखंड के विकास के लिए कई प्रमुख मुद्दों पर सरकार को गंभीरतापूर्वक कार्य करना होगा। जिनमें मुख्य रुप से शिक्षितों की बढ़ती बेरोजगारी, विद्यालय और उच्च शिक्षा में गुणवत्ता और सुधार, स्वास्थ्य और चिकित्सा के साथ-साथ महिलाओं की सुरक्षा, शहरी क्षेत्रों में प्रदूषण की गंभीर समस्या, कृषि एवं घरेलू उद्योगों को बढ़ावा दिया जाए, कौशल विकास मिशन को बढ़ावा, साथ ही एक गंभीर समस्या जो उत्तराखंड की है वह पलायन को लेकर है। यहांँ पलायन कुछ इस कदर है कि गांँव के गांँव खाली हो चुके हैं। आज तक कोई भी सरकार इस दिशा में कोई गंभीर या ठोस प्रयास नहीं कर पायी है। अगर सरकार की ओर से कोई गंभीर प्रयास हो भी रहा है तो वह यथार्थ रूप से सामने नहीं दिखता। सरकार को शिक्षित बेरोजगारों को अपने ही क्षेत्र में रोजगार देकर, घरेलू उद्योगों को स्थापित एवं पुनर्जीवित करके, नए विद्यालय, विश्वविद्यालय बनवाकर, कॉन्ट्रैक्ट शिक्षक की जगह स्थाई नियुक्ति, निष्पक्ष योग्य अभ्यर्थियों का चयन करके, उत्तराखंड की भौगोलिक स्थिति के अनुरूप, नई-नई योजनाएं लाकर पर्वतीय प्रदेशवासियों को आत्मनिर्भर के साथ-साथ आत्मसम्मान से अपनी संस्कृति और परिवेश से जोड़कर रखना है। यही उत्तराखंड के विकास का मूल मंत्र है। कि वह अपनी जड़ों से भी जुड़े रहें और अपने ही क्षेत्र में रोजगार का सृजन भी करें। जिससे पलायन जैसी गंभीर समस्या का निदान हो सकेगा।
For the coming years, the government along with the teachers will have to continuously improve the standard of school education. For this, first of all, qualified teachers and continuous and active energetic teachers have to be selected in the education system. Such teachers who will have to dedicate their moral duty to the interest of the students and first of all the provision of material and educational resources to the school education & higher education system will have to be made 100% accessible by the administration.
In the technological age of ICT, teachers also have to be made proficient. For this, DIET, SCERT, NCERT at the district level for teacher training and in the field of higher education and school education, private institutions, NGOs, Teaching Learning Center can play an important role.
In the field of education, efforts should always be made for a better future at school, college and university level. With this hope and belief...
ग्रामीण क्षेत्रों को केंद्र बनाकर शिक्षा, चिकित्सा, कृषि और ग्रामीण क्षेत्रों में सड़कों का विकास करके पलायन जैसी गंभीर समस्या को दूर किया जा सकता है।
जय हिन्द
वंदे मातरम्
🕉️🙏
शुक्रवार, 3 नवंबर 2023
राष्ट्रधर्म और आचरण की शक्ति ©डॉ. चंद्रकांत तिवारी
राष्ट्रधर्म और आचरण की शक्ति
©डॉ. चंद्रकांत तिवारी
भाषा, साहित्य, संस्कृति और धर्म समाज को निरंतर नियंत्रित, अनुशासित, पुनर्निर्मित एवं पुनर्जीवित करते रहते हैं। यह समाज को सांस्कृतिक परंपराओं एवं आध्यात्मिकता की धार्मिक भावनाओं से मिलाकर एकसूत्र में समन्वित करते हैं । नैतिक-अनैतिक में भेद स्थापित करते हैं । आदर्श मनुष्यता के चरित्र को निरंतर तलाश करते रहते हैं।
यह जीवन समाज के चार अध्याय हैं। हम सभी इन चारों आधार स्तंभ को अपने मध्य पाते हैं। राष्ट्र की एकता और राष्ट्रवाद के लिए उपर्युक्त चारों आधार स्तंभों का होना जरूरी है। भाषा, साहित्य, संस्कृति और धर्म द्वारा ही जीवन को समृद्ध किया जा सकता है। धर्म में सभी तत्वों का विलय हो जाता है। धर्म आचरण की आधारशिला है। आचरण धर्म को युगों-युगों तक जीवंत बनाए रखता है।
धर्म जीवन की आंतरिक भाषा है। धर्म तो दर्शन का विषय है, प्रदर्शन का नहीं है। मुट्ठीभर मिट्टी लेकर संकल्पवान अगर राष्ट्र के प्रति अपनेपन का एहसास पैदा नहीं करता, अपने राष्ट्र के लिए सद्भावना नहीं रखता, तो ऐसे व्यक्ति का होना व्यर्थ है। सीमित सीमाओं वाला ऐसा विचार पुरुष स्वयं विचारशून्य है। जिसकी सीमाएं देश की सीमाओं की रक्षा करने में भी असमर्थ हैं। आचरण की सभ्यता व्यक्ति को सभ्य बनाती है। किंतु उससे पहले व्यक्ति को स्वयं के विचारों को धार्मिक आध्यात्मिकता एवं सांस्कृतिक जागरण से पुनर्जीवित करना होता है। संस्कृति भी तभी महान हो सकती है जब धर्म कर्माभिमुख होकर प्रगति के सोपानों पर बढ़ता रहे।
संस्कार संस्कृति की प्राथमिक पाठशाला है। छोटे शिशुओं में जीवन की दिशा और दशा तय करती है। कह सकते हैं कि शिक्षा का प्राथमिक आधार संस्कारों में ही फलता और फूलता है। छोटे नवजात शिशुओं में संस्कारों को दिशा देते हुए हम धर्म का ही आचरण पूर्ण कर रहे होते हैं। धर्म मानवीय प्रवृत्ति का नैसर्गिक गुण है। यह प्रकृति प्रदत्त है। हम कभी भी धर्म से विमुख नहीं हो सकते हैं । जब तक हम इस धरती में जीवन यापन कर रहे होते हैं तब तक हम प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से धर्म का निर्वहन कर रहे होते हैं। क्योंकि धर्म आस्था और विश्वास का साक्षात चरित्र है। धर्म व्यक्ति को शक्ति प्रदान करता है। सच्चा धर्म राष्ट्रीय भावनाओं से प्रेरित होता है और राष्ट्र के लिए सर्वस्व निछावर करने का स्वप्न देखा है। यह साधारण व्यक्ति को असाधारण बनाता है। इसे पुनर्जीवित, जीवित और जीवंत बनाए रखने के लिए व्यक्ति को उच्च आदर्श एवं लक्ष्य स्थापित करने होते हैं। यह हिमालय की तरह पवित्र और विशाल, साहस और रसयुक्त रहस्यों का प्रतीक होता है।
धर्म आचरण से पूर्ण व्यक्ति ईश्वर से भी साक्षात्कार स्थापित कर लेता है। ऐसे व्यक्ति के हृदय में समाज की पीड़ा और समाज की चिंता हमेशा बनी रहती है। अंततः धर्म का नैतिक चरित्र राष्ट्र सेवा में निहित है।
राष्ट्रीय भावना से प्रेरित राष्ट्रवाद भी भाषा, साहित्य, संस्कृति और धर्म का ही गठजोड़ है। यह भाषा की विचारधारा है। साहित्य का लिखित रूप है। संस्कृति रूपी सभ्यताओं और परंपरागत ज्ञान का समन्वित रूप है। धर्म का दर्शन और एकीकरण साधना द्वारा संचालित मानवीय सरोकारों का प्रामाणिक दस्तावेज है। धर्म सर्वोपरि है और आध्यात्मिक बिंबों का नैतिक चरित्र है। क्योंकि यह भाव, क्रिया और ज्ञान का समन्वित रूप है। धर्म व्यक्ति के व्यक्तित्व को योगी बना देता है। धर्म का आध्यात्मिक रूप व्यक्ति को मर्यादित आचरण व्यतीत करने में सहायक है। वहीं धर्म का व्यवहारिक रूप जीवन जगत से जुड़े रहने की शिक्षा देता है। ईश्वर का होना और धर्म का होना एक ही बात है, ज्यादा अंतर नहीं है।
व्यक्ति से ही समाज का निर्माण होता है और समाज ही राष्ट्र की प्रगति एवं तरक्की का सूचक है। राष्ट्रधर्म सर्वोपरि है । राष्ट्र सर्वोपरि है । व्यक्ति का व्यक्तित्व और आचरण की शक्ति ही राष्ट्रधर्म का निर्माण करती है। राष्ट्र के लिए व्यक्ति को निजी रूप से भी शत-प्रतिशत परिश्रम और अपने स्थान पर रहकर निरंतर मेहनत करते रहना चाहिए। यही सच्चा राष्ट्र धर्म है। यही आचरण की शक्ति है।
राष्ट्रधर्म का कोई सर्टिफिकेट नहीं होता है। यह तो देशसेवा और शत-प्रतिशत कर्म-क्षेत्र का प्रतिफल है। जब व्यक्ति अपने परिवेश से जुड़कर अपने समाज को नियंत्रित करते हुए अपने प्रांत की प्रतिष्ठा में वृद्धि करता है तो धर्म अपना क्रमशः सकारात्मक दिशा में कार्य कर रहा होता है।
बुधवार, 18 अक्टूबर 2023
मांँ दुर्गा के नौ रूप - ©डॉ. चंद्रकांत तिवारी - उत्तराखंड प्रांत
Maa Durga always blesses. Navratri is the day of praise and worship of Maa Durga. It is a traditional festival of Hinduism and Hindu religion. Which has cultural and historical importance as well as spiritual and emotional interrelationship.
Navratri is the festival of worship of nine forms of Mahishasura Mardini Goddess Durga Maa. These nine forms are respectively - Shailputri, Brahmacharini, Chandraghanta, Kushmanda, Skandamata, Katyayini, Kalaratri, Mahagauri and Siddhidatri. There are many dimensions in these nine forms of Maa Durga like power and spiritual glory, ascetic character, disciplined life, balanced life dimension, destroyer and creativity, human revival cycle, welfare of the entire universe and human civilization.
प्रथमं शैलपुत्री च द्वितीयं ब्रह्मचारिणी।
तृतीयं चन्द्रघण्टेति कूष्माण्डेति. चतुर्थकम्।।
पंचमं स्कन्दमातेति षष्ठं कात्यायनीति च।
सप्तमं कालरात्रीति, महागौरीति चाष्टमम्।।
नवमं सिद्धिदात्री च नवदुर्गा: प्रकीर्तिता:।
उक्तान्येतानि नामानि ब्रह्मणैव महात्मना:।।
मांँ दुर्गा के नौ रूपों से हम क्रमशः इस प्रकार परिचित हैं-- पहली शैलपुत्री, दूसरी ब्रह्मचारिणी, तीसरी चंद्रघंटा, चौथी कूष्मांडा, पांचवी स्कंदमाता, छठी कात्यायिनी, सातवीं कालरात्रि, आठवीं महागौरी और नौवीं सिद्धिदात्री।
1- शैलपुत्री देवी माता --
हिमालय का एक नाम शैलेंद्र या शैल भी है। शैल का मतलब पहाड़ या चट्टान से है। देवी दुर्गा ने पार्वती के रूप में हिमालय के घर जन्म लिया। पार्वती की माता का नाम मैना था। इसीलिए देवी पार्वती का पहला नाम पड़ा शैलपुत्री अर्थात हिमालय की पुत्री। शैलपुत्री होने के नाते मांँ यह सिखाती है कि मानव समाज का चरित्र, कार्य और जीवनशैली पर्वत की तरह अडिग और विशाल होनी चाहिए। शैलपुत्री माता की पूजा अर्चना रोजगार, धन-धान्य और स्वास्थ्य में गुणात्मक वृद्धि करती है।
2- ब्रह्मचारिणी देवी माता --
ब्रह्मा के द्वारा बताए गए मार्ग पर चलाने वाली और ब्रह्मा की प्राप्ति एवं उनके जैसे आचरण को दिलाने वाली, जीवन में नियम, संयम और तत्परता से जीवन की सफलता के सैद्धांतिक सूत्रों को प्राप्त कराने वाली और अनुशासन एवं चरित्र की शक्तियों को संचित करते हुए अलौकिक शक्तियों की आराधना कर मानव कल्याण कराने वाली माता ब्रह्मचारिणी की पूजा-अर्चना इस दिन को महत्वपूर्ण बनती है। ब्रह्मचारिणी का अर्थ है, जो ब्रह्मा के द्वारा बताए गए सत्य आचरण पर चले। ब्रह्मचारिणी माता की पूजा से कई सिद्धियांँ प्राप्त होती हैं।
3- चंद्रघंटा देवी माता --
जिसके ललाट पर घंटे के आकार का चंँद्रमा सुशोभित है, ऐसी आत्मिक शांति, समृद्धि प्रदान करने वाली माता का नाम चंद्रघंटा है। यह संतुष्टि की देवी है। मनुष्य संतुष्ट होगा तो जीवन भी शांत होगा। अशांत व्यक्ति जीवन में अपने लक्ष्य को प्राप्त नहीं कर पाता है। जीवन की आत्मिक सुख शांति समृद्धि के लिए माता चंद्रघंटा की आराधना जरूरी हो जाती है।
4- कुष्मांडा देवी माता --
ऐसा माना जाता है कि कुष्मांडा देवी की मृदु-मधुरिमा मुस्कान से संपूर्ण ब्रह्मांड की उत्पत्ति हुई है । भय का नाश करने वाली, जीवन में सकारात्मक ऊर्जा प्रदान करने वाली, कुष्मांडा देवी का चौथा स्वरूप मानव जीवन के विकास की कथा कहता है। ब्रह्मांड की रचना करने के कारण ही इस देवी का नाम कूष्मांडा पड़ा है। सौहार्दपूर्ण जीवन के लिए कुष्मांडा देवी की पूजा अर्चना महत्वपूर्ण बन गई है।
5- स्कंदमाता --
कार्तिकेय शिव और पार्वती के पुत्र हैं । उनका एक अन्य नाम स्कंद है। कार्तिकेय यानी स्कंद की माता होने के कारण देवी के पांँचवें रूप का नाम स्कंदमाता है ।शक्तिदायक माता की पूजा अर्चना मानव कल्याण के लिए सकारात्मक प्रयास करती है।
6- कात्यायिनी माता --
मांँ कात्यायिनी ऋषि कात्यायन की पुत्री है। कात्यायन ऋषि ने घोर तप किया। तप करने के उपरांत माता दुर्गा ने ऋषि कात्यायन के घर पुत्री रूप में जन्म लिया। कात्यायन ऋषि की बेटी होने के कारण ही देवी का नाम कात्यायिनी पड़ा। देवी अपने भक्तों को रोग, शोक, संताप से मुक्त करती है। देवी की पूजा-अर्चना इस दिन को महत्वपूर्ण बनाती है।
7- कालरात्रि माता --
काल की देवी है मांँ कालरात्रि सभी ऋद्धियांँ और सिद्धियांँ, माता कालरात्रि की अलौकिक शक्तियों, तंत्र-मंत्र, पूजा-प्रतिष्ठा से पूर्ण होती हैं। यह सिद्धियांँ प्राप्त कराने वाली देवी है। काल की देवी जो काल से भी विजय प्राप्त कराने में सक्षम है । जीवन में निरंतर प्रगति पाने के लिए माता कालरात्रि देवी की पूजा अर्चना करनी चाहिए। देवी कालरात्रि की पूजा अर्चना का महत्व इस दिन को विशेष बनता है।
8- महागौरी माता --
माता पार्वती अपने सबसे उत्कृष्ट और अनुपम स्वरूप में महागौरी के रूप में प्रकट हुई हैं। देवी का आठवांँ स्वरूप महागौरी का है। गौरी पार्वती का प्रतीक है और महागौरी मांँ पार्वती का उज्ज्वल, श्वेत, निर्मल स्वरूप है। चरित्र की पवित्रता, निर्मलता और पावनता जीवन में सफलता और निष्कलंक चरित्र निर्माण के लिए माता महागौरी भक्तों को आशीर्वाद देती है। इस दिन माता का स्मरणोत्सव मानव चरित्र को निष्कलंक बनाता है। पापमुक्त , भयमुक्त करता है। जो सच्चे मन से मांँ का स्मरण एवं पूजा अर्चना करता है, माता उस पर अपनी कृपा करती है।
9- सिद्धिदात्री माता--
कैलाशपति, अर्द्धनारीश्वर भगवान शिव भी जिनकी शक्तियों एवं सिद्धियों की स्तुति एवं शक्ति प्राप्त करते हैं, ऐसी देवी मांँ संपूर्ण सिद्धियों की मूल हैं। सिद्धिदात्री माता मानव कल्याण के लिए अवतरित हुई हैं। जीवन में सफलता प्राप्त करने के लिए, लक्ष्य भेदने के लिए, नैतिक आचरण एवं जीवन चरित्र को निर्मित एवं सकारात्मक चरित्र निर्माण के लिए माता की आराधना एवं स्तुति वंदनीय है। शिव के अर्द्धनारीश्वर स्वरूप में जो आधी देवी हैं वह सिद्धिदात्री माता ही हैं।
©डॉ. चंद्रकांत तिवारी
उत्तराखंड प्रांत
मंगलवार, 17 अक्टूबर 2023
हिमालय का आदर्श -- ©डॉ. चंद्रकांत तिवारी -उत्तराखंड प्रांत
हिमालय का आदर्श --
(आंँखों पर हिमालय)
©डॉ. चंद्रकांत तिवारी - उत्तराखंड प्रांत
The development of overall personality is formed by the conduct, thoughts, imagination, intellectual environment and sociality as well as the sense of coordination of each person.
The greater the ideal of a particular person or institution, the more extensive and permanent will be the sociality of that person and institution.
“The Himalayas have seen totality in smallness and smallness in totality.”
It depends on us, how we are seeing the scenes visible or reflected in front of us.
हिमालय को आत्म-प्रशंसा या प्रशंसा की आवश्यकता नहीं। व्यक्ति-विशेष या व्यक्तिगत भावनाओं को आत्म-प्रशंसा की आवश्यकता है। व्यक्ति आत्म-प्रशंसा से कब बाहर निकलेगा? कहना मुश्किल है, जबकि वह हिमालय के समक्ष एक सूक्ष्म बूंद या अंश मात्र है। हिमालय के अपार प्राकृतिक दृश्य और उसकी ज्ञान परंपराएं अतुलनीय हैं। यह व्यक्ति-विशेष की निजी क्षमता एवं दृष्टि पर निर्भर करता है कि वह कितना और कहांँ तक देख सकता है और कितनी सहजता से उसे आत्मसात कर सकता है।
हिमालय से हज़ार गंगा धाराएं निकलती हैं। हिमालय के विशाल अमृत सागर से हजार धाराएं लोक मानस के कंठ को भिगोती हैं। दिव्य हिमालय-सा सतगुरु ईश्वर का व्यक्तित्व और आदर्श मनुष्यता को अमृत की बूंदों का रसपान कराता है। विशाल हिमालय से असंख्य धाराएं जब निकलती हैं तो विद्यार्थी की तरह निर्मल समाजसेवी बनकर भावी समाजिक परिधि को गति प्रदान करने के साथ-साथ सामाजिक परिवर्तन की संभावनाओं को भी सक्षम बनाती हैं।
विशाल हिमालय रूपी कविता के समक्ष कवि हृदय, सहृदय स्वयं में एक छंद है। विशाल गिरिवर के समक्ष कवि हृदय स्वयं एक छोटा सा अंश मात्र है। हिमालय का व्यक्तित्व कुछ इसी तरह प्रतीत होता है। हिमालय की गरिमा को लिए प्रत्येक कवि अपने मन के भीतर कई बार पिघलता हुआ स्वयं में अपनी कविता का मार्ग तय करता हुआ शांत होकर शीतल जल-धारा की तरह बहता रहता है। यह निरंतरता ही जीवन का सौभाग्य संगीत है। अनवरत यात्रा का गवाक्ष हिमालय-सा आदि पुरुष प्रत्यक्षदर्शियों और स्वप्नजीवियों के लिए सदियों से प्रेरणा का स्रोत बना है।
हिमालय का कौमार्य सदा ही प्रेरणा का अजस्र स्रोत रहा है। ना चाहते हुए भी सहृदय, कवि हृदय बन कविता को सहेजने की ओर प्रेरित हो जाता है। नैसर्गिक सौंदर्य कविता की जननी है। कविता की उत्पत्ति और विकास की संभावनाएं सब प्रकृति सौंदर्य में निहित हैं। कवि मात्र शब्दों का चयन करता है। रेखाचित्रों को शब्दचित्रों में पिरोने का कार्य कवि प्रकृति के बिम्बों को देखकर ही करता है। अतः जिस कविता में जितने सकारात्मक बिम्ब होंगे वह कविता उतनी सकारात्मकता के साथ सहृदय, कवि हृदय के साथ तादात्म्य स्थापित कर पाएगी।
तुम दिव्य-हिमालय मैं लघु सरिता
तुम शब्द हजार मैं छंद-कविता
तुम गिरिवर पाषाण-प्रचंड
मैं ओट तुम्हारी मानस-खंड ।
मौन रहकर भी बहुत कुछ कहा जा सकता है । शांत रहकर भी जीवन संगीत एवं उसकी गतिविधियों को संचालित करते हुए, प्रकृति-प्रांगण के सम्मुख बैठे व्यक्ति के अंतर्मन को पढ़ा जा सकता है। अपनी स्वच्छंद आंँखों से विद्यार्थी या जिज्ञासु साधक के अंतर्मन के दृश्य-पटलों को एवं उसकी विभिन्न गतिविधियों को समझते हुए, मरहम के रूप में अपनी बातों द्वारा सही दिशा संकेत देते हुए, पथ-प्रदर्शक की भांँति राह पर लाकर गंतव्य तक पहुंँचाना कुछ इस प्रकार का व्यक्तित्व प्रकृति बिम्बों का हिमालय प्रदेश में देखा जा सकता है। हिमालय बहुत कुछ सिखाता है।
हिम शिखरों का पर्वतीय सौंदर्य निर्विकार, अनादि, अनंत, स्वरूपानंद है। कल्पनाओं का विशाल श्वेत शिखर कब अपने सौंदर्य की राशि लुटाता है? यह अकथनीय है और अकल्पनीय भी।
कभी-कभी हिमालय के चेहरे पर हाव-भाव उभर आते हैं। एक स्वच्छंद बालक की हंसी दोनों विशाल गालों में पढ़ने वाली लंबी सी रेखाएं मुख मंडल की आभा को दो हिस्सों में विभाजित कर देती हैं। आंँखों के दो प्याले अतल गहराइयों में तरलता के भाव लिए अंतस की परिधि के प्रकोष्ठों द्वारा स्वयं से आत्म साक्षात्कार करते हुए हृदय की गहराइयों में असंख्य जज्बातों के समंदर को लेकर कभी श्रृंग कभी गर्त की भांँति प्रकृति-प्रांगण के सम्मुख बैठे व्यक्ति या कवि हृदय के अंतर्मन पर समतल-सा मार्ग तय करते हैं।
मैं जब भी विशाल प्रांगण के सम्मुख जाता हूंँ एक बात हमेशा मुझे ध्यान आकर्षित करती है कि जब भी कभी मैं उपत्यका की तलहटी में बैठता हूंँ तो इसका विशाल फलक आकर्षित किए बिना नहीं रहता। सम्मोहन इसके परिवेश में रचा-बसा है। जीवन की मोक्षस्थली का केंद्र यहीं है। सभी शक्तियों का समुचित केंद्र भी।
हिमालय का व्यक्तित्व महान है। हिमालय की सरलता और तरलता व्यक्ति को समाजिक सौहार्द बनाए रखने में मदद करती है। व्यक्ति विशेष और साधारण को अतिसाधारण बनाती हैं। पास बैठे व्यक्ति को सामर्थ्यवान बनाते हुए प्रेम-सौंदर्य की अतल सीमाओं में स्वच्छंद गति से उड़ने की शक्ति और अंतर्मन में पड़ने वाले विभिन्न आयामों पर नैतिक चरित्र के अपार दृश्य को अवतरित करती है। मुख मंडल पर श्वेत शिखर की पवित्र लालिमा हमेशा ही आकर्षक मुस्कान और हृदय में प्रेम की अपार राशि, सम्मुख प्रकृति-प्रांगण में बैठे व्यक्ति पर आशीर्वाद के लिए सदा विनम्र बने रहना सिखाती है। साधारण व्यक्ति के जीवन में असाधारण सौंदर्य रूप राशि से भर देती है।
समग्र व्यक्तित्व का विकास प्रत्येक व्यक्ति के आचरण, विचार, कल्पना, बौद्धिक परिवेश और सामाजिकता के साथ-साथ समन्वय की भावना से बनता है। जिस व्यक्ति विशेष या संस्था का आदर्श जितना बड़ा होगा उस व्यक्ति एवं संस्था की सामाजिकता भी उतनी ही विस्तृत और स्थायी होगी।
"हिमालय ने लघुता में समग्रता को और समग्रता में लघुता को देखा है।" यह हम पर निर्भर करता है, कि हम हमारे सामने दिखने वाले या प्रतिबिंबित होने वाले दृश्यों को किस रूप में देख रहे होते हैं। सहजता और संवेदना, स्वीकारोक्ति और आत्मीयता, परिपक्वता और परिपूर्णता आत्मिक संवेदनाएं हैं। यह सब श्रृद्धा का विषय है। जिन पत्थरों को साधारण व्यक्ति मात्र देखा करता है, उन पत्थरों को ही साधारण श्रृद्धावान पूजते हैं।
हिमालय जीवन का यथार्थ वैभव है। यह वर्तमान से कहीं अधिक अतीत की स्मृतियों का तेजस पुंज है। एक-एक पवित्र बूंदों का समुच्चय है। एक वैभवशाली इतिहास का मेरुदंड है। कई सभ्यताओं और संस्कृतियों का एकमात्र साधक एवं यथार्थजीवी। यह तपस्वी ज्ञान परंपरा की पुण्य स्थली भी।
जीवन के यथार्थ दृश्यों को हम किस रूप में देखते हैं, किस रूप में महसूस करते हैं, महसूस करने के बाद क्या हम उन साक्षात दृश्यों/वस्तुओं से अपनेपन का लगाव रख पाते हैं? ऐसा लगाव जो हमें बार-बार अपनी ओर आकर्षित करता हो। हमारे मन की रिक्तता को पूर्ण करता हो। हमारे जीवन के अवकाश को इंद्रधनुषी रंगों से भर देता हो। हमारी विषम और कठिन बनती जा रही जीवनशैली को सरल और सहज बना देता हो। हमारी कम पड़ती श्वांसों के मध्य रक्त का संचार करता हुआ जीवन की लालिमा के नए दृश्यों को उभरता हो। यह संभव है कि हम अंतिम स्पंदन तक स्वयं से ही संघर्ष कर रहे होते हैं परंतु जो प्रकृति सौंदर्य हमने अपने लिए निर्मित की है वह एक ऐसी दुनिया है जो दो सगे-संबंधियों के अकेलेपन से भरी हुई है। जैसे जीवन का संगीत रिक्त हो गया है जीवन की तलाश में भटकता हुआ कवि हृदय शून्य की परिधि पर घूम रहा हो। स्वयं के प्रश्नों में ही उत्तर को तलाश कर रहा हो। कवि हृदय कई सौ हृदयों का समुच्चय है। उसकी अभिव्यंजना और अभिव्यक्ति से पहले उसकी देखने की शक्ति, स्पर्श और गंध के अनुभवों का साक्षात् बिंम होती है। हवाओं में तैरता हुआ संगीत कवि की सांसों में घुलमिल कर साकार हो जाता है। यह सब एकांत की वीणा से निकला हुआ नादमय संगीत है। जीवन का वास्तविक जयघोष है। यही गुरु परंपरा की लोक संस्कृति का उत्थान मंच है। यही गुरुत्व शक्तियों की गतिविधियों का आत्मिक दर्शन जो व्यष्टि से समष्टि और समष्टि से व्यष्टि एवं मानवता की जन्मभूमि की विकास यात्रा का अंतिम और प्रारंभिक प्रस्थान बिंदु है। हिमालय इन सब बातों का एकमात्र गवाह है। हिमालय से कुछ छिपा नहीं है। हिमालय प्राकृतिक सौंदर्य का उपहार है। प्रकृति का अनुपम आभूषण है हिमालय।
प्रकृति स्वयं में ईश्वर है। ईश्वर कहीं और नहीं। हमारे परिवेश और मिट्टी के कण-कण में ईश्वर है।
मंगलवार, 10 अक्टूबर 2023
"प्रेरणा का प्रतिफल, जीवन का सकारात्मक बिंब है"- © डॉ. चंद्रकांत तिवारी - उत्तराखंड प्रांत
"प्रेरणा का प्रतिफल, जीवन का सकारात्मक बिंब है"-
© डॉ. चंद्रकांत तिवारी - उत्तराखंड प्रांत
"Motivation teaches social students to live psychologically. There is a lot in life that can be achieved with the help of inspiration. Inspiration gives direction and vision like a guru. And like a mother, she also gives direction and love. A little inspiration makes an ordinary person extraordinary."
प्रेरणा व्यक्ति को कार्य के प्रति सकारात्मक रूप से जोड़ते हुए, जीवन जीने की नई दिशा की ओर, शत प्रतिशत ईमानदारीपूर्वक, कर्तव्यनिष्ठ और जुझारू व्यक्तित्व की दिशा की ओर लेकर जाती है। कहने का मतलब है कि प्रेरणा व्यक्ति को उसके लक्ष्य की ओर तीव्र गति से पहुंचाने में अपूर्ण योगदान को पूर्ण करती है।
जीवन में हम अपनी दैनिक / दिनचर्या में काम करते-करते कभी ना कभी निष्क्रिय से होने लगते हैं। परंतु एक छोटी-सी प्रेरणा हमें कार्य के प्रति गुणात्मक और सकारात्मक दिशा-दृष्टि प्रदान करती हैं।
अध्यापक का विद्यार्थी के प्रति प्रेरणा देना, माता-पिता का अपने पुत्र को प्रेरणा देना, मित्र का अपने समकक्ष मित्र को प्रेरणा देना, पति-पत्नी एवं साथ जीवन यापन करने के साथ-साथ सहयात्री और सहपाठी, सहमित्र सभी कहीं ना कहीं आपस में एक दूसरे को सकारात्मक रूप से प्रेरणा प्रदान करते रहते हैं। जिससे आपसी रिश्ते मधुर एवं रसमय बन जाते हैं और उनमें नई स्फूर्ति एवं ताजगी निराशा को समाप्त कर देती है। जीवन जीने की एक नई कला व्यक्ति के मन के भीतर सकारात्मक प्रेरणा का सृजन करती है। मांँ अपने पुत्र को जीवन भर आशीर्वाद के रूप में प्रेरणा प्रदान करती रहती है। पिता अपने बच्चों के प्रति अपने दैनिक कार्यों में संलग्न रहकर जो कमाई करता है एवं पसीना बहाता है वह प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से अपने ही बच्चों को प्रेरणा प्रदान कर रहा होता है।
यह जीवन की कथा है। इस कथा में सूत्रधार और सभा में उपस्थित सभी जनसमुदाय आपसी संवेदनाओं से जुड़े रहते हैं । वही संवेदना एक दूसरे को भावात्मक रूप से प्रेरणा प्रदान करती रहती है । जीवन में प्रेरणा बहुत जरूरी है । ऐसी प्रेरणा जो साधारण व्यक्ति को साधारण बना देती है । निठल्ले और कामचोर व्यक्ति को परिश्रमी और ईमानदार बना देती है । छोटे व्यक्ति को बड़ा कद प्रदान करती है और बड़े व्यक्ति को छोटे व्यक्ति के साथ सामंजस्यपूर्ण व्यवहार स्थापित करने की शक्ति प्रदान करती है। हालांकि बड़ा व्यक्ति वह है जो छोटे व्यक्ति को छोटेपन का एहसास न होने दे , परंतु प्रेरणा सर्वोपरि है। व्यक्ति की आंँखों के भीतर एक ऐसी चमक पैदा कर देती है जिसकी चमक रूपी ईंधन से व्यक्ति जीवन के प्रति सकारात्मक भावों से भर जाता है। व्यक्ति अपने सम्मुख बैठे व्यक्तित्व के साथ मित्र भाव से जीवन जीने की कला सीखना और सिखाता है। हालांकि सीखना और सिखाना एक सतत प्रक्रिया है । परंतु फिर भी इस सतत प्रक्रिया में प्रेरणा अति आवश्यक है। शिक्षक की हैसियत से प्रेरणा विद्यार्थियों के लिए अमृत की बूंदों के समान है।
जीवन एक सकारात्मक नदी की भांँति अपने गंतव्य की दिशा में सतत और अनवरत रूप से बहती रहती है। राह में पढ़ने वाले पत्थर, कंकड़, धूल, मिट्टी, हलचल पैदा करती लहरें, उठती गिरती लहरें, अनुशासन भरी लहरें यह सभी कहीं ना कहीं आगे बढ़ाने की प्रेरणा और निरंतर गति प्रदान करती हैं। यह निरंतरता और सततता , क्रियाशील रहना ही नदी को नई दिशा और जीवन देता है। राह में बाधा पहुंँचाने वाली विपरीत परिस्थितियां , स्थायी मनोबल एवं आत्मबोध को जागृत करते हुए, निरंतर प्रेरणा प्रदान करती हैं। समाज का विस्तार बहुत बड़ा है। समाज प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से व्यक्ति को प्रेरणा प्रदान करता है। सामाजिक प्रेरणा व्यक्ति को समाज में घुलने-मिलने के बाद स्वत: ही मिल जाती है। विषम परिस्थितियों में भी सामाजिक प्रेरणा व्यक्ति को एक सकारात्मक व्यक्तित्व प्रदान करती है और लक्ष्य की ओर सीमित उद्देश्यों को प्राप्त करते हुए, विजयश्री का शंखनाद फूंकती है। आत्मविश्वास का जयघोष स्थापित करती है। नि:संदेह सब जीवन में प्रेरणा का प्रतिफल है। प्रेरणा अत्यावश्यक है।
प्रशंसा करना और प्रेरणा देना दोनों में बहुत बड़ा अंतर है । प्रशंसा का क्षेत्र सीमित और व्यवहार जनित है। प्रेरणा ईश्वरीय गुण है और प्रशंसा मानवीय प्रवृत्ति का नैसर्गिक चरित्र । प्रशंसा के पीछे स्वार्थ निहित रह सकता है। परंतु प्रेरणा व्यक्ति को सद्चरित्र और निःस्वार्थ भाव से भर देती है। प्रेरणा व्यक्ति के सम्मुख एक आदर्श पाठ स्थापित करती है। व्यक्ति के भीतर अगर आत्मबल और आत्मबोध निहित हो तो वह नकारात्मकता से भी सकारात्मक प्रेरणा ग्रहण कर सकता है। कभी-कभी प्रेरणा प्रदान करने वाला व्यक्ति ईश्वर के रूप में प्रतीत होता है। प्रेरणा का प्रतिफल, जीवन का सकारात्मक बिंब है। जीवन में प्रेरणा प्रदान करते रहें यह समाज और राष्ट्र के हितार्थ होगा। प्रेरणा प्राप्त करने वाले से अधिक देने वाले को महान बनाती।
मंगलवार, 3 अक्टूबर 2023
Have we ever felt the nature around us? ©Dr. C K Tewari
Have we ever felt the nature around us?
Dr. C K Tewari
*Once make a small effort to see the nature around you within your mind, then see with your open eyes what do you see around you?*
There are so many things around us, but we are able to have a sense of familiarity and ease with only a few things.
Do we ever gaze at the beauty of nature for long?
Nature surrounds us, imprisons us in its periphery and gives freedom to live life.
Maybe we haven't seen nature properly yet! Because as much as we see nature, it always seems new, attractive and full of entertainment to us in different forms, in different dimensions.
In this way it can be said that….
"Nature is as old as the world and as new as each moment."
Always be devoted to your nature, your country, your soil, your people, your nation and your motherland.🇮🇳🙏
सोमवार, 2 अक्टूबर 2023
Nationalism gives strength to conduct - ©Dr. Chandra Kant Tewari
Nationalism gives strength to conduct -
©Dr. Chandra Kant Tewari
Language, literature, culture and religion continuously control, discipline, reconstruct and revive the society. It integrates the society into a single thread by combining cultural traditions and religious sentiments of spirituality. Establishes a distinction between moral and immoral. Constantly searching for the character of ideal humanity.
These are the four chapters of life society. We all find these four pillars within us. For the unity and nationalism of the nation, it is necessary to have the above mentioned four pillars. Life can be enriched only through language, literature, culture and religion. All elements merge in religion. Religion is the foundation of conduct. Conduct keeps religion alive for ages.
Religion is the inner language of life. Religion is a matter of philosophy, not of demonstration. If a determined person does not develop a sense of belonging towards the nation by taking a handful of soil, does not have goodwill for his nation, then it is useless to have such a person. Such a thinking man with limited limits is himself thoughtless. Whose borders are incapable of even protecting the country's borders.
Civility of conduct makes a person civilized. But before that a person has to revive his own thoughts through religious spirituality and cultural awareness. Culture can also be great only when religion remains action-oriented and moves on the steps of progress.
Sanskar is the primary school of culture. Decides the direction and condition of life in small infants. It can be said that the primary basis of education flourishes and blossoms in values only. By giving direction to values in small newborn babies, we are completing the conduct of religion itself.
Religion is a natural quality of human nature. This is nature given. We can never turn away from religion. As long as we are living on this earth, we are performing Dharma directly and indirectly. Because religion is the true character of faith and belief. Religion provides strength to a person. True religion is inspired by national sentiments and has the dream of sacrificing everything for the nation. It makes an ordinary person extraordinary. To keep it revived, alive and vibrant, a person has to set high ideals and goals. It is sacred and vast like the Himalayas, a symbol of courage and juicy mysteries.
A person who is perfect in religious conduct achieves a vision of God also. The pain of the society and the concern of the society always remain in the heart of such a person. Ultimately the moral character of religion lies in service to the nation.
Nationalism inspired by national sentiment is also a combination of language, literature, culture and religion. This is the ideology of language. It is the written form of literature. Culture is a coordinated form of civilizations and traditional knowledge. The philosophy and integration of religion is an authentic document of human concerns driven by spiritual practice. Religion is paramount and spiritual images have a moral character. Because it is a coordinated form of emotion, action and knowledge.
Religion makes a person's personality a Yogi. The spiritual form of religion helps a person to behave decently. At the same time, the practical form of religion teaches us to remain connected to the world of life. Having God and having religion is the same thing, there is not much difference.
There is no certificate of nationalism. This is the result of service to the country and 100% work in the field. When a person controls his society by connecting with his environment and increases the prestige of his province, then religion is working in a positive direction.
शुक्रवार, 29 सितंबर 2023
Nation is the only option above all - Dr. Chandra Kant Tewari - UTTARAKHAND - BHARAT
"Nation is the only option above all"
@Dr. Chandra Kant Tewari
UTTARAKHAND - BHARAT
The foundation of Indian culture and Indian knowledge tradition is nationalism, the feeling of dying for the nation, the feeling of sacrificing everything and becoming a world conqueror, the feeling of molding Indian culture, tradition and modernity in language, literature and cultural conduct and at the global level. But the feeling of making one's own stability can be seen as "Nation is the only option above all".
First of all, I am a common man from Bharat. I know how to repay the debt of my tradition and soil by giving place to the awakening song of India's cultural traditions in the heart temple. I am an ordinary person from Bharat and want to spread the sound of Hindutva in the whole world.
I am made of the soil of God's birthplace. I am made of the touch of every person of Bharat, the workers, the youth, the mother who gave birth, the sensitivities that provide unbreakable trust in relationships, the earth, fire, air, sky and the touch of Mother Ganga that provides salvation to life. . That is why I am an ordinary person of Bharat and am always ready to sacrifice for the nation while doing extraordinary work.
“Me for my country” is the only aim of my life. We have to move forward with the development journey of modern society, keeping our ancient culture intact. We have to recognize ourselves.
We should not forget who we were? Our past was glorious and rich. We were rich in character. Our country and countryside have always been rich in character. Many students are spreading knowledge and science in their countries by taking education from our country. India is a country of Guru tradition. Foot journeys have been undertaken here by saints like Guru Nanak Ji for the development of humanity.
We saw God in the stone and worshiped him. He kept Ganga in his head and gave her the status of mother. We worship the sun, moon and stars. This is our Bhartiya knowledge tradition. We have established all the principles and objectives of life on the formula “Atithi Devo Bhava”. Vedas, Upanishads and epics all present glimpses of Bhartiya knowledge tradition and national spirit. This is our nationality.
This is what gives us new energy and vibrancy with the inspiration of being Bhartiya. This is an ocean of sensations. Taking this ocean to heart, we will have to contribute our 100 percent towards the Indian nation, only then we will be able to establish justice towards the nation and every Bhartiya.
Bhartiya nationalist poets call for such heroes who sacrifice their lives for the service of the nation, who always remain in the front line for the service of the country by getting emotionally attached to the motherland. The call of such brave men is going to take the country on the path of progress and development. If the country has to develop, every person will have to contribute his 100 percent. We will have to move forward with the spirit of sacrificing everything for the motherland.
Calling upon us to have a self-motivated, self-disciplined and self-cultured spiritual consciousness which helps in the development journey of the organization while being disciplined by the mother, motherland and mother tongue, and to remain happy even in adverse circumstances and sacrifice everything for the nation. Work will have to be done taking the feelings into consideration.
Being Bhartiya, I inspire people to sacrifice everything for the country and appeal to the Bhartiya people to always remain dedicated to the unity, sovereignty and integrity of the country. This is the true national religion. Religion is supreme.
गुरुवार, 21 सितंबर 2023
वर्तमान दौर में अंतर्राष्ट्रीय शांति दिवस की उपादेयता -डॉ. चंद्रकांत तिवारी उत्तराखंड प्रांत
वर्तमान दौर में अंतर्राष्ट्रीय शांति दिवस की उपादेयता -
डॉ. चंद्रकांत तिवारी - उत्तराखंड प्रांत
गुरुवार, 21 सितंबर
अंतर्राष्ट्रीय शांति दिवस
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सर्व शान्ति:
शान्तिरेव शान्ति:
सा मा शान्तिरेधि
ॐ शान्ति: शान्ति: शान्ति:॥
यजुर्वेद के उपर्युक्त इस शांति पाठ मंत्र में सृष्टि के समस्त तत्वों व कारकों से शांति बनाये रखने की प्रार्थना की गई है।
मनुष्य प्रकृति की देन है जीवन अमूल्य है सुख शांति यश और वैभव के लिए मानव सभ्यता को शांति स्थापित करते हुए सतत विकास की संभावनाओं को अपनाते हुए सृजनात्मक कार्यों में अपना समय पूर्ण व्यतीत करना चाहिए।
वैश्वीकरण के इस दौर में युद्ध, असंतोष, अवसाद, पलायन, पर्यावरणीय असंतुलन संपूर्ण विश्व के समक्ष प्रमुख चुनौती है। इसलिए वर्तमान विश्व की एक महत्त्वपूर्ण आवश्यकता शांति एवं भाईचारे की स्थापना करना भी है। आज कई लोगों का मानना है कि विश्व शांति को सबसे बड़ा खतरा साम्राज्यवादी आर्थिक और राजनीतिक चाल से है। विकसित देश युद्ध की स्थिति उत्पन्न करते हैं, ताकि उनके सैन्य साजो-समान बिक सकें। यह एक ऐसा कड़वा सच है, जिससे कोई इंकार नहीं कर सकता।
विश्व शांति को लेकर भारत दुनिया के सबसे रिस्पॉन्सिबल देश के तौर पर देखा जाता है। आजादी के संघर्ष के समय से लेकर आजादी के बाद और आज के दौर तक भारत दुनिया के देशों के बीच हर प्रकार की शांति के लिए प्रयासरत रहा है। आज यूनाइटेड नेशन की पीस कीपिंग आर्मी में तीसरा सबसे बड़ा कंट्रीब्यूशन भारत का है।
यह शान्ति धर्ममूलक है। धर्मों रक्षित रक्षितः-ऐसा प्राचीन संदेश विश्व का अस्तित्व और रक्षा के लिए ही प्रेरित है। इसका मुख्य उद्देश्य, व्यक्ति, समाज और राष्ट्रों को आपसी द्वेष, असंतोष आदि से दूर कर शान्ति, सहिष्णुता आदि का पाठ पढ़ाना है।
वैश्विक शांति की स्थापना हेतु प्रतिवर्ष 21 सितंबर को अंतर्राष्ट्रीय शांति दिवस या ‛विश्व शांति दिवस’ के रूप में मनाया जाता है। संयुक्त राष्ट्र महासभा द्वारा इसकी घोषणा 1981 में की गई तथा 1982 में पहली बार ‛अंतर्राष्ट्रीय शांति दिवस’ मनाया गया। 1982 से 2001 तक अंतर्राष्ट्रीय शांति दिवस सितंबर माह के तीसरे मंगलवार को मनाया जाता था लेकिन सन 2002 से 21 सितंबर को ‛अंतर्राष्ट्रीय शांति दिवस’ मनाने की तारीख निर्धारित की गई। इसका प्रमुख उद्देश्य है अहिंसा और संघर्ष विराम का अवलोकन करते हुए शांति के आदर्शों को मजबूत करना। संयुक्त राष्ट्र संघ कला, साहित्य, सिनेमा संगीत एवं खेल जैसे क्षेत्रों से अंतर्राष्ट्रीय शांति को बढ़ावा देने के लिए शांति दूतों की नियुक्ति भी करता है। इस दिवस को सफेद कबूतर उड़ाकर शांति का पैगाम भी दिया जाता है।
संप्रदायवाद एवं आतंकवाद वैश्विक शांति के समक्ष सबसे बड़े अवरोधक हैं। विविध प्रकार की आतंकी गतिविधियों से दुनिया के किसी न किसी कोने में हर रोज अस्थिरता देखने को मिलती है। हिंसा से हिंसा बढ़ती है, 'घृणा', घृणा को जन्म देती है और प्रेम से प्रेम की अभिवृद्धि होती है। अतः यह निश्चित है कि बिना प्रेम और अहिंसा के विश्व में शान्ति स्थापित नहीं हो सकती। शान्ति के अभाव में मानव जाति का विकास सम्भव नहीं।
आज विश्व के सभी धर्म, संप्रदाय, पंथ और आध्यात्मिक आस्था वाले समूहों में समन्वय की आवश्यकता है। अब परंपराओं और सिद्धांतों का सार लेकर रहन सहन के स्वस्थ तौर-तरीकों को विकसित करने की आवश्यकता है। आज सामाजिक संगठन की सबसे छोटी इकाई परिवार के पुनर्गठन की भी आवश्यकता है जोकि सदैव मानव की प्राथमिक पाठशाला रही है।
वर्तमान विश्व युद्ध, संघर्ष, पलायन, महामारी एवं पर्यावरण संकट जैसी अनगिनत समस्याओं का सामना कर रहा है। वर्तमान विश्व को सशंकित दृष्टि से देखते हुए इतिहासकार युवाल नोआ हरारी अपनी पुस्तक ‛21 Lessons for the 21st Century’ में कहते हैं कि, “अपनी प्रजाति को संगठित करने के लिए हमने मिथक रचे। खुद को शक्तिशाली बनाने के लिए हमने प्रकृति को वश में किया। अपने विचित्र उद्देश्यों की पूर्ति के लिए हम जीवन की पुनर्रचना कर रहे हैं। लेकिन क्या हम अब भी खुद को जान पाए हैं या हमारे आविष्कार हमें अप्रासंगिक बना देंगे?
विश्व शांति का अर्थ केवल हिंसा न होना नहीं है, बल्कि ऐसे समाजों का निर्माण है जहां सभी को यह अहसास हो कि वे आगे बढ़ सकते हैं और फल-फूल सकते हैं. हमें एक ऐसी दुनिया का निर्माण करना है जहां सभी के साथ उनकी जाति, नस्ल, धर्म की परवाह किए बिना समान व्यवहार किया जाए. 1981 में संयुक्त राष्ट्र द्वारा घोषित यह दिन, मानवता के लिए सभी मतभेदों से ऊपर उठने, शांति के लिए प्रतिबद्ध होने और शांति की संस्कृति के निर्माण में योगदान करने का दिन है।
पण्डित जवाहरलाल नेहरू ने विश्व में शांति और अमन स्थापित करने के लिए पाँच मूल मंत्र दिए थे, इन्हें 'पंचशील के सिद्धांत' भी कहा जाता है। यह पंचसूत्र, जिसे 'पंचशील' भी कहते हैं, मानव कल्याण तथा विश्व शांति के आदर्शों की स्थापना के लिए विभिन्न राजनीतिक, सामाजिक तथा आर्थिक व्यवस्था वाले देशों में पारस्परिक सहयोग के पाँच आधारभूत सिद्धांत हैं।
इसके अंतर्गत निम्नलिखित पाँच सिद्धांत निहित हैं-
1- एक दूसरे की प्रादेशिक अखंडता और प्रभुसत्ता का सम्मान करना।
2- एक दूसरे के विरुद्ध आक्रामक कार्रवाई न करना।
3- एक दूसरे के आंतरिक विषयों में हस्तक्षेप न करना।
4- समानता और परस्पर लाभ की नीति का पालन करना।
5- शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व की नीति में विश्वास रखना।
माना जाता है अगर विश्व उपर्युक्त पाँचों बिंदुओं पर अमल करे तो हर तरफ़ सुख शांति समृद्धि होगी।
वैश्विक स्तर पर पर्यावरणीय संकट से निपटने के लिए अब तक अनगिनत प्रयास किए गए हैं। स्टॉकहोम सम्मेलन(1972) से लेकर ग्लासगो(2021) तक सतत प्रयास इसके प्रमुख उदाहरण हैं। दुनिया भर को परमाणु खतरों से बचाने के लिए अब तक पीटीबीटी(1963), एनपीटी(1968) तथा सीटीबीटी(1996) जैसी अनेक महत्त्वपूर्ण संधियाँ की गई हैं। युद्ध की परिस्थितियों तथा हथियारों की होड़ को खत्म करने के लिए निशस्त्रीकरण तथा शस्त्र नियंत्रण जैसी अवधारणाएं काम कर रही हैं।
असंतुलित आर्थिक विकास भी संपूर्ण विश्व के समक्ष एक प्रमुख चुनौती है। अंधाधुंध औद्योगीकरण ने पर्यावरण असंतुलन को जन्म दिया है जोकि वैश्विक शांति की स्थापना में बाधक है।
लंबे उपनिवेशवादी दौर से मुक्त हुई दुनिया के समक्ष आज भी साम्राज्यवाद, बाजारवाद एवं उपभोक्तावाद की गंभीर चुनौती है जिसने गहरे असंतोष को जन्म दिया है। हथियारों की होड़ ने सम्पूर्ण विश्व को अब बारूद के मकान के रूप में तब्दील कर दिया है। हथियार निर्माण अब एक उद्योग का रूप ले चुका है जिसका उद्देश्य वैश्विक तनाव निर्मित कर हथियार बेचना है। रूस-यूक्रेन युद्ध समकालीन दुनिया का एक नग्न यथार्थ है कि विज्ञान एवं तकनीकी विकास के साथ हम आज भी युद्धों में उलझे हुए हैं। युद्ध और आंतरिक विघटन से पलायन की समस्या उत्पन्न हो रही है जिससे शरणार्थी समस्या समस्त विश्व के समक्ष एक बड़ी चुनौती साबित हो रही है।
शिक्षा में मानव सभ्यता का विकास है सकारात्मक और नैतिक मूल्य से संपन्न शिक्षा मानव चरित्र का आदर्श स्थापित करती है शिक्षा में समग्र मानव कल्याण की भावना शांति शिक्षा के रूप में पाठ्यक्रम में समाहित होनी चाहिए। क्योंकि शिक्षा का उद्देश्य मानव कल्याण ही है और चरित्रवान व्यक्तित्व का निर्माण करना भी।
पाठ्यक्रम में ऐसी विश्व शांति संबंधी शिक्षा की परिकल्पना को स्थापित करते हुए विद्यालयी शिक्षा को नया आकार और रूप दिया जा सकता है। ऐसी व्यापक और समावेशी लोक हितकारी शिक्षा के निम्नलिखित उद्देश्यों में क्रमशः -
(1) व्यक्तियों का उचित बौद्धिक और भावनात्मक विकास हो सकेगा।
(2) सामाजिक जिम्मेदारी और एकजुटता की भावना विकसित हो सकेगी ।
(3) सभी के प्रति समानता और भाईचारे के सिद्धांतों का पालन किया जा सकेगा।
(4) व्यक्ति की आलोचनात्मक एवं तर्कशील समझ विकसित एवं सक्षम बनाया जा सकेगा
उपर्युक्त शांति शिक्षा की अवधारणा काफी व्यापक और वास्तव में सकारात्मक एवं सृजनात्मक है। शांति शिक्षा की आवश्यकता और महत्व अपरिहार्य है । क्योंकि इसका उद्देश्य प्रत्येक व्यक्ति को एक-दूसरे के साथ शांति से रहना सिखाना है। यह हिंसा को हतोत्साहित करता है और समानता को बढ़ावा देता है। विश्व बंधुत्व की भावना का विकास करता है।
संयुक्त राष्ट्र के अनुसार, विश्व शांति का अर्थ केवल हिंसा न होना नहीं है, बल्कि ऐसे समाजों का निर्माण है जहां सभी को यह अहसास हो कि वे आगे बढ़ सकते हैं और फल-फूल सकते हैं. हमें एक ऐसी दुनिया का निर्माण करना है जहां सभी के साथ उनकी जाति, नस्ल, धर्म की परवाह किए बिना समान व्यवहार किया जाए।
वैश्विक शांति स्थापित करने में भारत सदैव अग्रणी देशों में शामिल रहा है। प्राचीन काल से ही शांति एवं सद्भाव भारतीय संस्कृति की मूल विशेषताएं रही हैं। भारत अनेक धर्मो की जन्मस्थली है। इन धर्मों ने दुनिया भर में शांति एवं मानवता का संदेश दिया। “वसुधैव कुटुंबकम” की अवधारणा हिंदू धर्म की प्रभु प्रमुख विशेषता रही है। बौद्ध एवं जैन धर्म ने दुनिया भर में अहिंसा, अस्तेय, अपरिग्रह का पाठ पढ़ाया। सल्तनत काल, मुगल काल एवं ब्रिटिश काल में भी भारत ने सहिष्णुता को ही बढ़ावा दिया। भारत ने बाहर से आयी संस्कृतियों को भी अपने में समाहित किया। विभिन्न धर्मों के असंख्य संप्रदायों ने भी सदैव शांति एवं सद्भाव स्थापित करने की दिशा में न सिर्फ सैद्धांतिक विचारों का प्रतिपादन किया बल्कि सक्रियतापूर्वक आम जनमानस में उसका प्रचार प्रसार भी किया। उपनिवेशवाद के दौर में भी भारत ने रचनात्मक तरीके से संपूर्ण विश्व को शांति का संदेश दिया। स्वामी विवेकानंद का शिकागो में दिया गया भाषण आखिर कौन भूल सकता है? पराधीनता की स्थिति में भी यहां के विद्वानों ने न सिर्फ भारतीय समाज को जागृत किया बल्कि उनका असर पूरी दुनिया पर पड़ा। महात्मा गाँधी और उनका चिंतन मुख्य रूप से सत्य, अहिंसा और सत्याग्रह के तरीके पूरी दुनिया में लोकप्रिय हैं। महात्मा गाँधी के अहिंसक आंदोलन ने कई पराधीन देशों में स्वतंत्रता की अभिलाषा उत्पन्न की और उनके साधन अनेक देशों को स्वाधीनता प्राप्ति में सहायक साबित हुए। नेल्सन मंडेला जैसे लोगों को स्वाधीनता प्राप्ति की प्रेरणा और आत्मबल गाँधी से ही मिला। आज गाँधी की ‛सर्वोदय’ की अवधारणा समस्त विश्व के समक्ष विकास का एक समावेशी मॉडल है।
वर्तमान दौर में हम एक वैश्वीकृत दुनिया में रह रहे हैं। यह दुनिया एक गाँव के रूप में तब्दील हो गई है जिसे मैकलुहान ने “ग्लोबल विलेज” की संज्ञा दी है। एक प्रक्रिया और प्रवाह के रूप में वैश्वीकरण ने दुनिया को एक दूसरे से जोड़ते हुए अंतरनिर्भरता को बढ़ावा दिया है। वैश्वीकरण के इस दौर में युद्ध, असंतोष, अवसाद, पलायन, पर्यावरणीय असंतुलन संपूर्ण विश्व के समक्ष प्रमुख चुनौती है। इसलिए वर्तमान विश्व की एक महत्त्वपूर्ण आवश्यकता शांति एवं भाईचारे की स्थापना करना है।
आज प्रत्येक व्यक्ति को यह समझना होगा कि इंसानियत ही सबसे बड़ा धर्म है। मानव कल्याण की सेवा से बढ़कर कोई धर्म नहीं है। भाषा, संस्कृति, पहनावे भिन्न-भिन्न हो सकते हैं, लेकिन विश्व के कल्याण का मार्ग एक ही है। मनुष्य को नफरत का मार्ग छोड़कर प्रेम के मार्ग पर चलना चाहिए।
सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामया।
सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चित् दुःखभाग् भवेत्।।
सभी सुखी होवें, सभी रोगमुक्त रहें, सभी मंगलमय के साक्षी बनें और किसी को भी दुःख का भागी न बनना पड़े।
संदर्भ - wikipedia-org
bharatdiscovery.org
hindicurrentaffairs.adda
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शुक्रवार, 1 सितंबर 2023
देव-मंदिर प्रकृति के अंश मात्र बिंब...! डॉ. चंद्रकांत तिवारी - उत्तराखंड प्रांत
देव-मंदिर प्रकृति के अंश मात्र बिंब...!
डॉ. चंद्रकांत तिवारी - उत्तराखंड प्रांत
कस्तूरी कुंडल बसे, मृग ढूँढत बन माहि ।
ज्यो घट घट राम है, दुनिया देखे नाही ।
कबीर दास जी ने ईश्वर की महत्ता बताते हुये कहा है कि कस्तूरी हिरण की नाभि में होता है ,लेकिन इससे वो अनजान हिरन उसके सुगन्ध के कारण पूरे जगत में ढूँढता फिरता है ।ठीक इसी प्रकार से ईश्वर भी प्रत्येक मनुष्य के ह्रदय में निवास करते है, परन्तु मनुष्य इसें नही देख पाता । वह ईश्वर को मंदिर ,मस्जिद, और तीर्थस्थानों में ढूँढता रहता है ।
कबीर ने अन्यत्र भी कहा है कि -
मोको कहां ढूंढे रे बंदे,
मैं तो तेरे पास में ।
ना मंदिर में, ना मस्जिद में,
ना काबे कैलाश में ।
मैं तो तेरे पास में ।
निस्संदेह देव मंदिर आस्था के आध्यात्मिक केंद्र हैं। मनुष्य अपनी निष्क्रिय पड़ी हुई आध्यात्मिक चेतना को जगाने के लिए आस्था के केंद्र मंदिरों का भ्रमण करता है। परंतु आध्यात्मिक चेतना के लिए भक्तिमय होकर अपने आराध्य देव को ढूंढने का प्रयत्न करता है।
अनुभूति की अभिव्यक्ति और अभिव्यक्ति की अनुभूति ही आध्यात्मिक चेतना है। मंदिर वह पवित्र स्थान है जहांँ दिव्य ऊर्जा प्राप्त होती है।
उत्तराखंड देवभूमि स्थान-स्थान पर देवी-देवताओं के मंदिरों से पवित्र भूमि का वरण करती है। यहांँ हिमालय से निकलने वाली मोक्षदायिनी मांँ गंगा शिव जटाशंकर त्रिदेवपुरी को भी नित-नित पावन करती है। यहांँ भक्ति पत्थर, मृदा,घाट, जल, वृक्ष, पहाड़ कई रूपों में दिखेगी। यह सभी स्थानीय पूजनीय स्थल हैं।
भक्ति का स्वरूप तो सगुण और निर्गुण है। किसी ने मूर्तियों में अपने ईश्वर की तलाश कर ली और किसी को प्रकृति के कण-कण में ईश्वर का रूप दिखाई देता है । परंतु ईश्वर कहांँ है ? हम ईश्वर की तलाश क्यों करते हैं ? हम मंदिर क्यों जाते हैं ? यह स्वयं में शोध का विषय है। क्योंकि मनुष्य स्वयं की तलाश करते-करते एक ऐसे एकांत की तलाश करता है जो विभिन्न संस्कृतियों का नादमय सौंदर्य है और ऐसा सौंदर्य जो एकांत के उपजता है और पनपता है । मनुष्य को अकेला ना होकर एकांत प्रिय होना चाहिए। क्योंकि एकांतप्रिय सृजनात्मकता का प्रतीक है। नवाचार का प्रतीक है। तभी वह अपने ईश्वर की तलाश कर सकता है । हालांकि मंदिर की संरचना अपने आप में अलग है। नि:संदेह मंदिर एक ऐसा पवित्र स्थान है जहांँ हम सभी स्वार्थ भावनाओं से ऊपर उठकर परमार्थ की तलाश करते हैं अर्थात आत्म साक्षात्कार करते हैं।
प्रकृति सभी की जीवन सहचरी है। आधार स्थली है। यह सभी का साक्षात्कार करती है, अपने मौन प्रश्नों से। जिसके उत्तर लिखित कम प्रायोगिक अधिक हैं।
प्रकृति ही ईश्वर है। देव-मंदिर प्रकृति के अंश मात्र बिंब...!
व्यंग्य की तलाश भाग -४ डॉ. चंद्रकांत तिवारी- उत्तराखंड प्रांत
व्यंग्य की तलाश - भाग - ४
डॉ. चंद्रकांत तिवारी - उत्तराखंड प्रांत
व्यक्ति के कर्मों की ध्वनि शब्दों से ऊंची होती है। घर दीवारों और ईट गारे से ही निर्मित नहीं होता है। घर तो बनता है मन की समृद्धि से। घर की समृद्धि से कहीं अधिक मन की समृद्धि बहुत बड़ी चीज है। मन की समृद्धि के लिए दूसरे के सुख में अपने सुख को तलाश करना पड़ेगा और दूसरे के दुख में सहभागी बनना पड़ेगा। कुल मिलाकर समृद्धि का भाव तभी जागृत होगा जब सुख के साथ-साथ दुख का भी बराबर में हिस्सा हो। दूसरे के तवे में रोटी सेंकने का भाव त्यागना होगा तो वहीं बहती गंगा पर डुबकी मारने का विचार कर्तव्यबोध से विमुख बनाता है। हमें राजनीति के जंगल में घुसकर दंगल करने की आवश्यकता नहीं। राजनीति घने जंगल का रास्ता है जिसमें साधारण व्यक्ति अपने घर का मार्ग तलाश कर रहा होता है। जीवन एक फूल है और प्रेम उसकी सुगंध। हम जैसे फूल उगाएंगे हमें वैसी सुगंध मिलेगी। हम जिस दुनिया में रहते हैं वहां नागफनी के कांटे हैं तो गुलाब के फूल भी हैं। हमारे गुलाब में कांटे भी हैं परंतु यह कांटे गुलाब की रक्षा के लिए ही होते हैं। प्रकृति ने हर खूबसूरत वस्तु को नैसर्गिक सुरक्षा प्रदान की है। परंतु हमें काले और गोरे रंग का भेद नहीं करना चाहिए। प्रकृति में भी काली और गोरी नदियां बहते हुए संगम में एक साथ पुनः मिल जाती हैं। बड़े-बड़े महासागरों में गर्म और शीतल जलधारा आपस में मिलकर कई जीवों का निवास स्थान होती हैं। परंतु जीवन का एक सत्य यह भी है कि छोटी मछलियां बड़ी मछलियों का ही आहार बनती हैं। राजनीति भी समुद्र की उस मछली के समान है जिसको हजम करना इतना आसान नहीं है। देश को चलाना साधारण व्यक्ति का असाधारण कार्य होता है। असाधारण होने के बाद भी व्यक्ति साधारण बना रहे तो वही व्यक्ति देश का नेतृत्व और संपूर्ण विश्व में प्रेम और आदर्श स्थापित कर सकता है।
क्रमशः...
रविवार, 27 अगस्त 2023
पुण्य सलिला मोक्षदायिनी - डॉ चंद्रकांत तिवारी - उत्तराखंड प्रांत
बुधवार, 23 अगस्त 2023
चांँद हमारी झोली में - डॉ. चंद्रकांत तिवारी
चांँद हमारी झोली में
प्रेम हमारी बोली में
कार्य सदा नित छुट्टी में
त्रिलोक हमारी मुट्ठी में ।
धरा से दूर थी चांँदनी कब
घूम आएंगे कुछ दिन अब
हमको निज विश्वास है
चांँद हमारे पास है ।
©डॉ. चंद्रकांत तिवारी
मंगलवार, 22 अगस्त 2023
प्रकृति का पुनर्मूल्यांकन- (भाग एक) - डॉ. चंद्रकांत तिवारी - उत्तराखंड प्रांत
प्रकृति का पुनर्मूल्यांकन- डॉ. चंद्रकांत तिवारी-
उत्तराखंड प्रांत
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सुंदरता की देवी साकार
कण-कण प्रकृति करती प्यार
ग्रीष्म,पावस और शीत फुहार
मन ऋतुराज बसंत-बहार
मध्य हिमालय शीतल जल-धार
बरस रहे हैं बिंदु हज़ार ।
चादर कोहरे की उड़-चली-ब्यार
बरस रही है पावस-जल-धार
हे ! हिम शिखरों के दिव्य साकार
प्रकृति सौंदर्य यहांँ नित्य-अपार
हिम प्रदेश यह पाषाण खंड
दिव्य हिमालय उत्तराखंड । (स्वरचित कविता)
संपूर्ण ब्रह्मांड में एक से बढ़कर एक ग्रह, नक्षत्र उपग्रह मौजूद हैं। इन सबके बीच हमारी पृथ्वी भी अनोखी और कई रहस्यों को अपने गर्भ में समेटे हुए है।
प्रकृति हमारी कल्पनाओं से भी कहीं अधिक सुंदर एवं मनभावन है। हमारी कल्पनाओं का क्षितिज तो बहुत सूक्ष्म एवं अल्पजीवी है। परंतु प्रकृति की सुंदरता समय के प्रत्येक पल के साथ बदलती रहती है। कई रंगों का समूह इसकी सुंदरता और रहस्य को गुणात्मक रूप में बढ़ाता रहता है।
प्रकृति अमूल्य है। इसकी प्रत्येक घटना एक संकेत है।
हमें इसका मूल्य पहचानना होगा। प्रकृति प्रेमी बनने की पहली शर्त पर्यावरण के प्रति समर्पण और सौहार्द्र की भावना होनी चाहिए। हम जिस समाज में रहते हैं वह चारों ओर से प्रकृति के सुंदर दृश्यों से घिरा हुआ है। जीव-जंतु, पशु-पक्षी वृक्ष-लताएं, फल-फूल, जल, जमीन, जंगल कुल मिलकर एक ऐसा प्राकृतिक परिवेश का निर्माण करते हैं जो हमारे जीवन के स्तर को जीने योग्य बनाता है। हम सब प्रकृति की ही संतान हैं। प्राकृतिक परिवेश में ही हम जन्म लेते हैं और अंततः अपने जीवन की विकास यात्रा को प्रकृति में ही समाहित करते हुए पुनः प्रकृति की गोद में नए बीज की तरह अंकुरित हो जाते हैं। कुल मिलाकर हम प्रकृति और इसकी परिधि से कभी अलग हो ही नहीं सकते हैं। प्रकृति हमारी सांसों में निरंतर गतिशील होते हुए हमें जीवन जीने की कला सिखाती है। प्रकृति हमें एक ऐसी शिक्षा देती है जो जीवन भर सतत-अनवरत और निरंतर गतिमान रहती है। प्रकृति की शिक्षा और प्रकृति का व्यवहार गुणात्मक फल कारक है। हम स्वयं परस्पर तो अलग हो सकते हैं परंतु प्रकृति से हम कभी भी अलग नहीं रह सकते। क्योंकि प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से हमारा जीवन प्रकृति की ही देन है।
सूर्य से हमें ऊर्जा मिलती है और चंद्रमा से शीतलता मिलती है। आकाशीय नक्षत्र हमारे ग्रह चाल के दिशा निर्देशक हैं। रात्रि विश्राम की स्थिति तो भोर का उजाला जीवन की नई दिशा है। वायु हमें प्राणवायु का बीज मंत्र देते हुए निरंतर पल्लवित, पुष्पित और प्रफुल्लित करती रहती है और ताजगी से परिपूर्ण बनाए रखती है। मिट्टी की महक हमें अपनी जड़ों से जोड़ें रखती है। प्रकृति की कोई भी वस्तु अकारण नहीं है। हर वस्तु का स्थान, समय और स्थिति सुनिश्चित है और मानवता के हितार्थ है। परंतु मनुष्य ही अपनी स्वार्थ-सिद्धि के लिए इस पारिस्थितिक चक्र को बिगाड़ने में तुला है। स्थिति ऐसी है कि जिस डाल पर मानवता बैठी है उसी डाल को अपनी कुछ स्वार्थ की पूर्ति के लिए कुल्हाड़ी से काट रही है।
हम कैसे भूल सकते हैं कि हमारे आराध्य देव, हमारे पूज्य देवी देवता भी तो प्रकृति से ही जुड़े हुए हैं। कैलाश पर्वत से लेकर क्षीरसागर, महासागर, नदी, तालाब, पोखर, जलाशय, ऊंचे घने जंगल, वृक्ष-लताएं, कंकड़-पत्थर, फल-फूल, पत्थर की मूर्तियों सभी तो प्रकृति के उपमान हैं। हमारे तीज-त्योहार सब प्रकृति की ही तो देन है। हम जन्म से ही प्रकृति से जुड़े और प्रकृति ही हमारे अंतर्मन में विराजमान है। कभी देवता बनकर कभी दानव बनकर तो कभी अतिमानव बनकर हमें जीवन जीने के नए-नए तौर-तरीके सिखाती है। तो दूसरी ओर जीने की प्रेरणा भी देती रही है। मानव सभ्यता की सार्थकता इसी बात में निहित है कि प्रकृति के विकास के साथ-साथ उसका भी विकास होता आया है। यह एक ऐसा संतुलन है जो तराजू के दोनों हिस्सों को समान परंतु मानवता के हितार्थ समर्पित बनाता है।
परंतु आज आधुनिक परिवेश की स्थिति कुछ और ही बयां करती है। जिस वैश्विक जगत में हम रहते हैं वह विकास के चक्रवात में फंसता जा रहा हैै। हम अपनी वास्तविक जन्मभूमि, मातृभूमि से अलग होते जा रहे हैं। गांव के गांव खाली होते जा रहे हैं। भाषा, साहित्य, संस्कृति सभ्यता के अखाड़ेबाजी में दम तोड़ रही है। परमार्थपरायण से बढ़कर भी मनुष्य के स्वार्थ हैं। ऐसे में प्रकृति की ओर अपनापन कहां रह जाता है? जिस पर्यावरण को लेकर ऊंचे-ऊंचे मंचों पर बड़ी-बड़ी बातें, बड़ी-बड़ी योजनाएं मन बहलाने के लिए होती हैं वह पर्यावरण प्रकृति से मनुष्य को दूर कर रहा है। ऐसी पर्यावरणीय योजनाओं एवं दावों में विकास तो है परंतु वृद्धि नहीं। जीवन तो है परंतु जीवन जीने की कला नहीं। बनावटी रंग तो हैं परंतु फूलों-सी कोमलता नहीं। दिखावा तो है परंतु सहजता नहीं। किराए की जिंदगी है परंतु अपनापन नहीं। गति तो है परंतु गहराई नहीं। कह सकते हैं कि एक लंबे सफर पर निकल चुके हैं। परंतु न लक्ष्य दिखता है न मंजिल दिखती है और न ही गंतव्य पर पहुंचने की कोई खुशी होगी। बस चलते ही जाना है एक अंधेरे और सुनसान जंगल से गुजरने वाले रास्ते पर।
हमें प्रकृति की शक्ति को पहचानना होगा। स्वयं की शक्ति से प्रकृति की शक्ति के साथ सामंजस्य स्थापित करते हुए जन-सामान्य के लिए प्राकृतिक संसाधनों के सुलभ संसाधनों को अपनाना होगा। विद्यालयी शिक्षा संकल्पना एवं शिक्षा की संरचना में प्रकृति के प्रमुख उपादानों को अपनाते हुए स्थानीय संसाधनों की उपादेयता को स्थायित्व प्रदान करना होगा। शिक्षण की मूलभूत संरचना को व्यवहारिक आधार प्रदान कराना होगा। तभी हम प्रकृति के साथ तादात्म्य स्थापित करते हुए शिक्षण प्रक्रिया को अनुप्रयोगों और स्थानीय संसाधनों से परिपूर्ण कर पाएंगे।
भौतिक संसाधनों की कमी को पूरा करने के लिए हमें, स्थानीय संसाधनों को शिक्षा व्यवस्था की मूलभूत संरचना के साथ जोड़ते हुए, शैक्षणिक संसाधनों की पूर्ति कर, शिक्षण व्यवस्था को प्रकृति से जोड़ना/ जोड़कर सृजनात्मकता एवं नवाचार स्थापित करने का प्रयास किया जा सकता है या कर सकते हैं।
शिक्षा, चिकित्सा और कृषि तीनों ही प्रकृति की देन हैं।
पर्यावरण दिवस को हमें कुछ विशेष नियमों के तहत अपने की आवश्यकता है। हमें इस नियामक दिन को पहचानना होगा जिसे हम पर्यावरण दिवस के रूप में मनाते हैं। हमें अपनी शिक्षा व्यवस्था में स्थानीय संसाधनों के अनुसार बदलाव करने होंगे। हमें ऐसी शिक्षा व्यवस्था को निर्मित करना होगा जो प्रायोगिक एवं व्यावहारिक स्तर पर हमें प्रकृति के विविध रूपों, उपमानों से अपनापन बनाए रखने में सक्षम बनाएं। पर्यावरणीय अध्ययन के सूत्र एवं उद्देश्य कक्षा-कक्ष शिक्षण तक ही सीमित नहीं होने चाहिए। यह सिद्धांत से अधिक व्यवहार का विषय है। यह तो प्रायोगिक विषय क्षेत्र है। इसे खुले आकाश के तले व्यावहारिक एवं प्रायोगिक रूप से ही सहजता एवं अपनेपन के साथ अपनाया जा सकता है।
क्रमशः.......
गुरुवार, 17 अगस्त 2023
व्यंग्य की तलाश - भाग तीन - डॉ. चंद्रकांत तिवारी - उत्तराखंड प्रांत
व्यंग्य की तलाश -(भाग तीन) - डॉ. चंद्रकांत तिवारी
विश्व के मानचित्र पर भारत महज एक देश ही नहीं बल्कि विभिन्न सभ्यताओं का समुच्चय है। यहाँ से निकली सभ्यताओं की छोटी-छोटी नदियों का जल विश्वसागर की जलसंधि को स्पर्श कर भारतवर्ष की संस्कृति के कई आयाम चिन्हित करता है। भारतवर्ष की संस्कृति में आत्मिक संतुष्टि का भाव गहराई से समाया हुआ है। यह भाव विदेशियों को इतना प्रभावित करता है कि विदेशी अपना घर-द्वार छोड़ यहाँ बसने को तैयार खड़े हैं। हम भारतीय हृदय से बड़े सरल, मन से बढ़े तरल और बिना वजह कोई हमें परेशान करे तो उसके लिए हम गरल हैं। जो भी हमारे समाज का हिस्सा बना वह पानी में चीनी की तरह घुल गया, और जो ऐसे छोटे गन्नों की पैदावार चीनी के मोटे दाने घुल नहीं पाये उसे हमने चुन-चुन कर बाहर निकाला और सिल-बट्टे पर कूट-कूट कर बुरादा बनाया। भारतीय समाज में एक विचित्र कौशल विकास आत्मिक रूप से जुड़ा हुआ है। हम हर उस टेढ़ी-मेड़ी चीज को ठोक-पीट कर सीधा बना देते हैं जो अनियंत्रित होकर समाज में बरगद के पेड़ की तरह विस्तारवादी नीति की तरह फैल रही होती है।
हमारे देश में वाद से बढ़कर विवाद है। हर विवाद पर संवाद है। संवाद से बढ़कर राष्ट्रवाद है। राष्ट्रवाद के आगे फुलस्टाॅप है। दुश्मन ने हमसे टकराने की कई बार नाकाम कोशिश की है परंतु हमारे राष्ट्रवादी गांडीव की तान सुनकर दुश्मन की पतलून गीली हो गई। उसकी बंद आँखें और सिकुड़ गई। क्योंकि हमारे पास राष्ट्रवाद है। हम भूखे-प्यासे रह सकते हैं परंतु राष्ट्रवाद हमारे लिए सर्वोपरि है। हमारा राष्ट्रवाद स्वदेशी है। जिसमें आत्मनिर्भरता का भाव गहराई से जुड़ा हुआ है। हमारे राष्ट्र की संवेदनाओं का प्रतीक धर्म में निहित है। धर्म हमारे लिए जीवन जीने की एक कला है। संस्कारों का नवगीत एवं तीज-त्योहारों और आपसी सहमति से संस्कृति की प्राकृतिक यात्रा की विरासत निर्मित करते हुए, धर्म दर्शन की रूपरेखा में परिणीती प्राप्त करती है। इच्छा , क्रिया और ज्ञान का समन्वित प्रयास ही धर्म दर्शन को वैश्विक स्तर पर स्थापित करता है। धर्म ने कर्म को स्वर्ग की राह पर नैसर्गिक प्रकृति -परिवेश के मध्य, हिमालय के श्वेत मस्तक से परिपूर्ण उच्चादर्शों के साथ उठना सिखाया। नैतिक चरित्र की आध्यात्मिक - प्राथमिक - अनुशासनात्मक पाठशाला धर्म दर्शन की वैश्विक परंपरा एवं आत्मिक चेतना में ही निहित है।
धर्म नियमित रूप से अनवरत- नैसर्गिक क्रिया - कलाप है। यह धुंधली चादर में उजली संभावित किरणों का दैविक प्रकाश है। यह हमारा पथ प्रदर्शित करता है। धर्म हमारी संस्कृति और समाज में पारिजात वृक्ष की तरह खड़ा है। जिसका कोई डुप्लिकेट मार्केट में नहीं बनाया जा सकता। हमारे धर्म में राम-घनश्याम, नंदकिशोर- मनमोहन, माखनचोर, बंशीधारी-कृष्ण मुरारी, त्रिनेत्रधारी, हजरत पीर, संत-फकीर, रहीम-कबीर आदि रहे हैं। हमारे यहाँ साधारण लोगों में असाधारण प्रतिभा है। माता जानकी प्रभु श्री राम हमारे आराध्य स्तुत्य हैं। इसीलिए हमारी संस्कृति बेजोड़ है। हमारी सभ्यता गंगाजल बनकर कई स्वदेशी - विदेशी मुर्दों को मोक्ष की राह दिखाती है। कई विदेशियों को माँ गंगा ने सीधे मोक्ष की प्राप्ति कराई है। यह उन मुर्दों का सौभाग्य है जिनकी राख को माँ गंगा अपने में धारण कर लेती है। गाय, गंगा, गीता और गांँव हमारी सनातन संस्कृति के चार अध्याय हैं।
महात्मा गाँधी भारत के ऐसे लाल थे जिन्होंने अंग्रेजी हुकूमत को पीला कर दिया था। गाँधी जी ने दक्षिण अफ्रीका में जो प्रयोग प्रारंभ किये थे उसकी स्थायी प्रयोगशाला भारत में स्थापित की और सत्य-अहिंसा के कैमिकल से जो कीटनाशक तैयार किया उसका छिड़काव सबसे पहले अंग्रेजों पर किया। अंग्रेज मन के काले और तन के गोरे थे। स्वदेशी कीटनाशक रूपी सत्य-अहिंसा के स्प्रे से दमा के रोगी हो गये। अब वह पहले की तरह खुली हवा में साँस न ले सके। जिस ओर से गाँधी जी का काफिला गुजरता अंग्रेज घबराते। एक साधारण से व्यक्ति ने अंग्रेजों की नींद उड़ा दी। अंग्रेजों को सपनों में भी गाँधी जी से डर लगता था। नमक बनाकर गाँधी जी ने अंग्रेजों को खुली चुनौती दे डाली। अंग्रेजों को अपने खुले जख्मों का डर सताने लगा कि कोई नमक न छिड़क दे। सत्य की सफेद धोती और हिंसा की रोकथाम के लिए लाठी लेकर गोरे अंग्रेजों को आगाह करते और कहते कि अभी भी समय है अपने देश लौट जाओ। कल को न अपने देश के रहोगे न भारत के रह सकोगे। यह भारतवर्ष है यहाँ के टुकड़ों पर कब तक पलते रहोगे। गाँधी जी का चरखा और खादी स्वदेशी भावना का नवाचार था। चरखा तो घर-घर में लोकप्रियता पा चुका था। देश में ऐसे कई चरखे सुदर्शन चक्र की तरह चलने लगे। मानों अंग्रेज सोच रहे हों कि हमारे गले की नाप का फंदा न जाने किस सुदर्शन चरखे में तैयार हो रहा है। चरखा राष्ट्रवादी भावनाओं का द्योतक और भारतीय पुनरुत्थान का अनवरत प्रतीक चिह्न है। जिससे बनने वाला सूत किसी हीरे की काट से कम न था। चरखे की गति और नमक का घोल,भारत की जनता और गाँधी के बोल, लाठी की आवाज, स्वदेशी बोल, अब तो तय था,अंग्रेजों का बिस्तरा गोल। हमारे स्वदेशी चरखे से बना हुआ खादी इतना मजबूत हुआ करता था कि अगर इस खादी को अंग्रेजों पर भीगो-भीगो कर मारा जाता तो उन्हें पता चलता कि भारत के पूत और चरखे के सूत की ताकत क्या होती है। खादी की मार और चरखे की धार का कोई मुकाबला न था साहब। राजनीति में खादी, गाँधी और चरखे का योग हर वोट की चोट पर दस्तक करता है। नेताओं को खादी का प्रयोग पता है। कि खादी का कहाँ और कैसे इस्तेमाल करना है। जिस लाठी से गाँधी जी ने आजादी का गोवर्धन पर्वत उठाया था वह गाँधी जी की निशानी आज भी मौजूद है। नेताओं के सफेद कुर्ते और पुलिस के डंडे स्वदेशी आत्मनिर्भरता की पहचान है। शायद गाँधी जी की भी यही इच्छा थी। इसीलिए पुलिस प्रशासन ने गाँधी जी का डंडा जनहित में थाम लिया और नेताओं ने खादी।
हमारी खादी सरहद की सुरक्षा के लिए प्रतिबद्ध है। चरखे से बनने वाला सूत का धागा हर भारतीय को सुदर्शन-सी गति देते हुए एक सूत्र में पिरोते हुए मजबूत दीवार का काम करता है। जिसके जोड़ फैबिकोल से भी मजबूत और टिकाऊ हैं। विश्व की किसी भी बड़ी दीवार से बढ़कर हम भारतीयों की राष्ट्रवादी विचारधारा है। हमारा देश पत्थर में भगवान को देखता हैं, पूजता है और मिट्टी का तिलक लगाकर सरहदों की रक्षा के लिए प्रतिबद्ध है। हमने कई बार सरहद पार से बिल खोदकर हमारी सरहद में घुस आने वाले ऊदबिलावों को कान पकड़ कर उलटी गिनती करवाई है। परंतु हमारे पड़ोसी ऊदबिलाव बड़े उद्दंडी हैं। खैर मांफ करना हमारी सनातन संस्कृति है। हम भारतीय हैं, मर्यादा में यहाँ पुरूषोत्तम हुए हैं। आज्ञा में नि: स्वार्थ भावप्रिय भरत शिरोमणि एवं कर्मवीर-कर्तव्यधीर दशरथ नंदन हुए । हम अतिथि को भगवान मानते हैं। परंतु क्षमा की भी कोई सीमा होती है। दधिचि की हड्डियों का वज्र अब तक हमारे पास है। अगर हमारी भक्ति शक्ति में बदले इससे पहले जितने समुद्र और पर्वत पार करके तुमने भारत में प्रवेश किया है उसी दिशा को वापस हो लें। अगर मर्यादा पुरुषोत्तम के वंशज कुपित हुए तो नाभी का अमृत कब सूख जाएगा यह समझ न आएगा। यह गाँधी का देश है तो यह सुभाष का भी देश है। यहाँ सावरकर हुए तो सरदार पटेल भी थे। यह देश कलाम का भी उतना ही है जितना कलम का है। यह देश आर्यों का है। कुरूवंशो की यहाँ शौर्य गाथा की लिखावट अमिट है। यहाँ की सेना के समक्ष दुश्मन भय से गीला और चेहरे से पीला हो जाता है। यहाँ छप्पन इंच का सीना है। हर विसंगतियों पर ताली है, थाली है, घंटी है और दीये की रोशनी पर राष्ट्रवाद के अंडे उबलते हैं ।
वैश्विक महामारी में भी गरीब के घर में उजाला है। हमारे पास विजन बड़ा है। हालाँकि हमारा देश अभी विकासशील की दौड़ में बहुत पीछे खड़ा है। लेकिन हर मुश्किलों में अजेय बनकर लड़ा है। राजनीति हमारे यहां व्यवसाय है। सभी नीतियों की धारा राजनीति से निकलती है। नेताजी का पैजामा छोटा-बड़ा हो सकता है परंतु राजनीति छोटी-बड़ी नहीं हो सकती। हां पेट बाहर जरूर निकल सकता है। अपनी सीमा से बाहर। राजनीति की बेबस परिधि से भी ज्यादा बाहर। पेट राजनीति का कुरुक्षेत्र है, जिसका युद्ध आज तक चल रहा है और आगामी सदियों तक चलता रहेगा।कुरुक्षेत्रे- कर्मक्षेत्रे- धर्मक्षेत्रे धरातलीय पृष्ठीय आवरण पर आज अर्जुन जिस मत्स्य को भेदने की कोशिश कर रहा है। वह बहुत दिनों पहिले ही मर चुकी है। हां मत्स्य का पेट फूल गया है। यह अनोखा दृश्य महासभा दे रही है। तभी अर्जुन का निशाना चूक गया और तीर पेट पर जा लगा। यह कहने की आवश्यकता नहीं कि पेट से क्या निकला होगा ! सब आश्चर्यचकित हैं, मौन हैं।
क्रमशः.......
शुक्रवार, 11 अगस्त 2023
व्यंग्य की तलाश - (भाग दो) - डॉ चंद्रकांत तिवारी - उत्तराखंड प्रांत
व्यंग्य की तलाश - (भाग दो)
डॉ. चंद्रकांत तिवारी - उत्तराखंड प्रांत
हिन्दू समाज की सबसे बड़ी धरोहर उसका वैदिक साहित्य है। इस साहित्य में सभी हिन्दुओं की आस्थाओं, श्रद्धा, भक्ति, आत्म-विश्वास तथा मानवीय जीवन मूल्यों का क्रिया-कर्म होता रहता है। संपूर्ण भारतीय वांग्मय उसी की धुरी पर टिका हुआ है। इस बात में शक नहीं कि साहित्य सत्य और काल्पनिक दोनों होता है, परंतु जहाँ तक मानवीय मूल्यों का सवाल है तो साहित्य समाज सापेक्ष अभिव्यक्त होता है। युगबोध एवं मूल्यबोध पर आधारित होता है।
आज देश में इतनी समस्याएँ हैं कि उन पर बातें करते हुए कई और समस्याएँ पैदा होने की पूरी संभावना है। हर समस्या के समाधान के लिए एक सरकारी योजना चाहिए। सरकारी योजनाएं डोली पर बैठती हुई किसी दुल्हन की तरह है। जिसका चीरहरण संभावित है। केंद्र सरकार अगर कोई योजना राज्य सरकारों को आबंटित करती है तो यहां बैठे भूखे सभासदों, मेयरों, और विधायकों के चेहरे खिलखिला उठते हैं। किसी लकड़बग्घे की तरफ जो फेंके हुए टुकड़े को नोंच नोंच कर खा जाता है।
कमीशनखोरी प्याज की परतों की तरह धीरे-धीरे खुलती है। असल में ग़रीब तबके का आदमी प्याज के उतरते छिलकों की तरह धीरे-धीरे निर्वस्त्र हो रहा होता है।