गुरुवार, 9 नवंबर 2023

शिक्षा में प्रकृति और स्थानीयता- ©डॉ. चंद्रकांत तिवारी

 शिक्षा में प्रकृति और स्थानीयता-

©डॉ. चंद्रकांत तिवारी 

 An examination-free, practical and hands-on curriculum will have to be created which will make the students proficient and proficient in theoretical as well as professional skills. To make students self-confident and self-reliant. Their hands can work naturally. Can get speed. Get active. Can get experience and touch. Some work has to be done so that the student passing out of school can easily earn his living.👆


👇The developmental structure of experts, researchers, innovations and organizations will have to be identified in the country through special natural education study and teaching from primary level to higher education.👆


👆👆If we are not including nature education in educational institutions today then it does not bode well for our future. This will also be painful for our life.👆👆


प्राकृतिक शिक्षा का एक अन्य मुख्य आधार सामान्य जनमानस को पर्यावरणीय एवं प्राकृतिक शिक्षा देना भी है। क्योंकि कम ज्ञान के कारण सामान्य जनमानस द्वारा भी पर्यावरण को अधिकांश रूप से क्षति पहुंचाई जाती है। हमारा साधारण एवं स्थानीय जनमानस अगर पर्यावरण संरक्षण को समझेगा तो प्रकृति की धरोहर सुरक्षित एवं संवर्धित रह पाएगी। इस संबंध में सूचना एवं तकनीकी द्वारा, डिजिटल माध्यम द्वारा, इंटरनेट मीडिया द्वारा, ऑनलाइन शिक्षण द्वारा, वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग के द्वारा, टेलीकम्युनिकेशन द्वारा, सभी सूचना तकनीकिओं का इस्तेमाल करते हुए, स्थानीय भाषा में, लोक गीतों में, नुक्कड़ नाटकों द्वारा पोस्टरों द्वारा, चौपालों द्वारा, कठपुतलियों के खेलों द्वारा, सोशल यूटिलिटी प्रोडक्टिव वर्क के माध्यम से, आंगनवाड़ी द्वारा, ग्राम सभाओं द्वारा, ब्लॉक स्तर द्वारा, जिले स्तर पर डीएम द्वारा एवं स्थानीय वॉलिंटियर्स द्वारा जागरूकता बनाते हुए राज्य स्तरीय एवं केंद्र स्तरीय मूल्यांकन एवं आंकलन किया जा सकता है। 


पर्यावरण शिक्षण एवं प्रकृति का अध्ययन नैतिक शिक्षा के केंद्र में होना चाहिए। इस बात में कोई शक नहीं रह जाता कि पर्यावरणीय अध्ययन का मूल्यांकन बहुत जरूरी है। यह मूल्यांकन तभी संभव होगा जब प्रकृति का पुनर्मूल्यांकन किया जा सकेगा। क्योंकि प्रकृति के प्रांगण में पर्यावरणीय क्षेत्र, जैव-विविधता, जीव-संरक्षण, जल, जीवन और जमीन निहित है। पर्यावरण की काल्पनिक चारदीवारी के भीतर संपूर्ण प्राणी जगत, प्राणी जगत के समकक्ष समाज और समाज के सापेक्ष परिवार और प्रत्येक परिवार मनुष्यों का एक समूह है। रिश्ते-नाते, भावनाओं का समुच्चय हैं। जो अपनी संपूर्ण गतिविधियों के लिए प्रकृति पर ही निर्भर रहता है। 


हमें प्रकृति की विभिन्न शक्तियों को पहचानना होगा। इसलिए प्रकृति के विविध उपादानों का पुनर्मूल्यांकन बहुत जरूरी है। मानवता के इतिहास का, उसके उद्भव का, उसके विकास का पुनर्मूल्यांकन बहुत जरूरी है। उसके रहन-सहन का, उसके खानपान का, उसके तीज-त्योहारों का, उसके परस्पर संबंधों का, उसका जीव-जगत, पादप संपदाओं से, आत्मिक संबंधों का पुनर्मूल्यांकन बहुत जरूरी है। हमें प्रकृति को अपने मन के भीतर ढूंढना होगा और अपने मन को दूसरे के मन से मिलाने का भाव रखना होगा। हमें प्रकृति से तादात्म्य स्थापित करते हुए अपनेपन का एहसास भावात्मक स्तर पर ढूंढना होगा। हमें प्रकृति से भावनात्मक रूप से जुड़ने की जरूरत है। परमार्थ के कल्याण के लिए यथार्थ से लड़ना होगा, वह भी बिना स्वार्थ के। क्या हम ऐसा कर पाएंगे ?


प्राथमिक स्तर से लेकर उच्च शिक्षा तक विशेष प्राकृतिक शिक्षा अध्ययन-अध्यापन द्वारा देश में विशेषज्ञों, शोधार्थियों, नवाचारों, संगठनों का विकासात्मक ढांँचा चिंहित करना होगा। छात्रों को अपने परिवेश एवं पर्यावरण का अध्ययन करवाते वक्त हमें अंतरसंबद्धता के सूत्र को पहचानते हुए पर्यावरण का अन्य विषयों से तुलनात्मक अध्ययन-अध्यापन करवाना होगा। कक्षा-कक्ष शिक्षण की पहली शर्त अंतरसंबद्धता के सिद्धांत और स्थानीय-परिवेशगत विविध आयामों पर आधारित होगी तो छात्र-छात्राओं को सीखने के लिए अधिक प्रेरित करेगी। भूगोल, इतिहास, कृषि, सामाजिक विज्ञान, विज्ञान, चिकित्साशास्त्र, साहित्य एवं मानवशास्त्र सभी के केंद्र में पर्यावरणीय नीतियों का समुच्चय है। भाषा तो एक ऐसा साधन है जो व्यक्ति को स्थानीय होने का मौका देती है। स्थानीय गतिविधियों से जोड़ती है। व्यक्ति के व्यक्तित्व को देहाती बना देती है और देहाती को शहरीकृत ढांँचे में ढाल देती है। स्थानीय विषयवस्तु से सांस्कारित हो जाती है और भावनात्मक संबंधों को सतत जोड़ती है। इस प्रकार अगर पर्यावरण का शिक्षण और अध्ययन सहज, सरल एवं प्रकृति की प्रवृत्ति के अनुरूप बनेगा तो मानवीय जनजीवन एवं मानवता का विकास उस विकास की प्रकृति के अनुरूप ही चलता रहेगा। प्रकृति संरक्षण और संवर्धन के संस्कार विद्यार्थी जीवन में विकसित करने होंगे।


एक ऐसा परीक्षाविहीन व्यावहारिक और प्रायोगिक पाठ्यक्रम निर्मित करना होगा जो विद्यार्थियों को सैद्धांतिक पक्ष के साथ-साथ व्यवसायिक कौशलों में भी कुशल एवं पारंगत बनाएं। छात्रों को आत्मविश्वासी , आत्मजीवी बना सकें। उनके हाथों को प्राकृतिक रूप से काम मिल सके। गति मिल सके। सक्रियता मिले। अनुभव एवं स्पर्श मिल सके। कुछ ऐसा कार्य करना होगा जिससे विद्यालय से उत्तीर्ण होकर निकलने वाला विद्यार्थी आसानी से अपना जीवन यापन कर सके। हमें अपने स्कूली पाठ्यक्रम में ढांचागत परिवर्तन करना होगा। कक्षा-कक्ष शिक्षण को स्थानीय संसाधनों से जोड़ना होगा। 


प्रकृति के प्रांगण में ऐसे कई उद्योग हैं। कई कुटीर उद्योग और कई लघु उद्योग विद्यार्थियों को नवजीवन दे सकते हैं। इस बात को सरकार एवं प्रशासन को समझना होगा। पर्यावरण शिक्षा का केंद्र पाठ्यक्रम ही नहीं है। किताबी ज्ञान ही नहीं है। उससे बढ़कर भी बहुत कुछ है। परंतु हम पर्यावरण शिक्षा को मात्र पाठ्यक्रम तक ही समाहित करके चल रहे हैं। हम अपने छात्रों को पर्यावरण संबंधी ज्ञान तो रटा देते हैं परंतु व्यावहारिक एवं प्रायोगिक स्तर पर हम उन्हें प्रकृति के साथ जोड़ने में नाकाम रहे हैं। जब तक हम अपने छात्रों को प्रकृति के विभिन्न आयामों से नहीं जोड़ेंगे, कृषि एवं सहकारिता, पशुपालन, मौन पालन, मत्स्य पालन, मुर्गी पालन, भेड़ पालन इसी तरह के अन्य कई लघु एवं कुटीर उद्योग जिससे आजीविका और रहन-सहन सुचारू एवं सरल गति से चल सके यह सब विद्यालयी शिक्षा के केंद्र में होना चाहिए। अगर हम आज शैक्षणिक संस्थानों में प्राकृतिक शिक्षा को शामिल नहीं कर रहे हैं तो यह हमारे आने वाले भविष्य के लिए यह शुभ संकेत नहीं है। यह हमारे जीवन-जगत के लिए भी दुखदाई होगा।


क्रमशः सकारात्मक प्रयास अपेक्षित.....!

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