राष्ट्रधर्म और आचरण की शक्ति ©डॉ. चंद्रकांत तिवारी
राष्ट्रधर्म और आचरण की शक्ति
©डॉ. चंद्रकांत तिवारी
भाषा, साहित्य, संस्कृति और धर्म समाज को निरंतर नियंत्रित, अनुशासित, पुनर्निर्मित एवं पुनर्जीवित करते रहते हैं। यह समाज को सांस्कृतिक परंपराओं एवं आध्यात्मिकता की धार्मिक भावनाओं से मिलाकर एकसूत्र में समन्वित करते हैं । नैतिक-अनैतिक में भेद स्थापित करते हैं । आदर्श मनुष्यता के चरित्र को निरंतर तलाश करते रहते हैं।
यह जीवन समाज के चार अध्याय हैं। हम सभी इन चारों आधार स्तंभ को अपने मध्य पाते हैं। राष्ट्र की एकता और राष्ट्रवाद के लिए उपर्युक्त चारों आधार स्तंभों का होना जरूरी है। भाषा, साहित्य, संस्कृति और धर्म द्वारा ही जीवन को समृद्ध किया जा सकता है। धर्म में सभी तत्वों का विलय हो जाता है। धर्म आचरण की आधारशिला है। आचरण धर्म को युगों-युगों तक जीवंत बनाए रखता है।
धर्म जीवन की आंतरिक भाषा है। धर्म तो दर्शन का विषय है, प्रदर्शन का नहीं है। मुट्ठीभर मिट्टी लेकर संकल्पवान अगर राष्ट्र के प्रति अपनेपन का एहसास पैदा नहीं करता, अपने राष्ट्र के लिए सद्भावना नहीं रखता, तो ऐसे व्यक्ति का होना व्यर्थ है। सीमित सीमाओं वाला ऐसा विचार पुरुष स्वयं विचारशून्य है। जिसकी सीमाएं देश की सीमाओं की रक्षा करने में भी असमर्थ हैं। आचरण की सभ्यता व्यक्ति को सभ्य बनाती है। किंतु उससे पहले व्यक्ति को स्वयं के विचारों को धार्मिक आध्यात्मिकता एवं सांस्कृतिक जागरण से पुनर्जीवित करना होता है। संस्कृति भी तभी महान हो सकती है जब धर्म कर्माभिमुख होकर प्रगति के सोपानों पर बढ़ता रहे।
संस्कार संस्कृति की प्राथमिक पाठशाला है। छोटे शिशुओं में जीवन की दिशा और दशा तय करती है। कह सकते हैं कि शिक्षा का प्राथमिक आधार संस्कारों में ही फलता और फूलता है। छोटे नवजात शिशुओं में संस्कारों को दिशा देते हुए हम धर्म का ही आचरण पूर्ण कर रहे होते हैं। धर्म मानवीय प्रवृत्ति का नैसर्गिक गुण है। यह प्रकृति प्रदत्त है। हम कभी भी धर्म से विमुख नहीं हो सकते हैं । जब तक हम इस धरती में जीवन यापन कर रहे होते हैं तब तक हम प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से धर्म का निर्वहन कर रहे होते हैं। क्योंकि धर्म आस्था और विश्वास का साक्षात चरित्र है। धर्म व्यक्ति को शक्ति प्रदान करता है। सच्चा धर्म राष्ट्रीय भावनाओं से प्रेरित होता है और राष्ट्र के लिए सर्वस्व निछावर करने का स्वप्न देखा है। यह साधारण व्यक्ति को असाधारण बनाता है। इसे पुनर्जीवित, जीवित और जीवंत बनाए रखने के लिए व्यक्ति को उच्च आदर्श एवं लक्ष्य स्थापित करने होते हैं। यह हिमालय की तरह पवित्र और विशाल, साहस और रसयुक्त रहस्यों का प्रतीक होता है।
धर्म आचरण से पूर्ण व्यक्ति ईश्वर से भी साक्षात्कार स्थापित कर लेता है। ऐसे व्यक्ति के हृदय में समाज की पीड़ा और समाज की चिंता हमेशा बनी रहती है। अंततः धर्म का नैतिक चरित्र राष्ट्र सेवा में निहित है।
राष्ट्रीय भावना से प्रेरित राष्ट्रवाद भी भाषा, साहित्य, संस्कृति और धर्म का ही गठजोड़ है। यह भाषा की विचारधारा है। साहित्य का लिखित रूप है। संस्कृति रूपी सभ्यताओं और परंपरागत ज्ञान का समन्वित रूप है। धर्म का दर्शन और एकीकरण साधना द्वारा संचालित मानवीय सरोकारों का प्रामाणिक दस्तावेज है। धर्म सर्वोपरि है और आध्यात्मिक बिंबों का नैतिक चरित्र है। क्योंकि यह भाव, क्रिया और ज्ञान का समन्वित रूप है। धर्म व्यक्ति के व्यक्तित्व को योगी बना देता है। धर्म का आध्यात्मिक रूप व्यक्ति को मर्यादित आचरण व्यतीत करने में सहायक है। वहीं धर्म का व्यवहारिक रूप जीवन जगत से जुड़े रहने की शिक्षा देता है। ईश्वर का होना और धर्म का होना एक ही बात है, ज्यादा अंतर नहीं है।
व्यक्ति से ही समाज का निर्माण होता है और समाज ही राष्ट्र की प्रगति एवं तरक्की का सूचक है। राष्ट्रधर्म सर्वोपरि है । राष्ट्र सर्वोपरि है । व्यक्ति का व्यक्तित्व और आचरण की शक्ति ही राष्ट्रधर्म का निर्माण करती है। राष्ट्र के लिए व्यक्ति को निजी रूप से भी शत-प्रतिशत परिश्रम और अपने स्थान पर रहकर निरंतर मेहनत करते रहना चाहिए। यही सच्चा राष्ट्र धर्म है। यही आचरण की शक्ति है।
राष्ट्रधर्म का कोई सर्टिफिकेट नहीं होता है। यह तो देशसेवा और शत-प्रतिशत कर्म-क्षेत्र का प्रतिफल है। जब व्यक्ति अपने परिवेश से जुड़कर अपने समाज को नियंत्रित करते हुए अपने प्रांत की प्रतिष्ठा में वृद्धि करता है तो धर्म अपना क्रमशः सकारात्मक दिशा में कार्य कर रहा होता है।
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