आंँखों पर हिमालय- डॉ. चंद्रकांत तिवारी - उत्तराखंड प्रांत
पैरों से मस्तक की ओट किए गंगा पर्वत भी चढ़ती हैमस्तक की शीर्ष जटाओं से गंगा चरणों तक बहती है
मस्तक पर फिर से शीश झुका गंगा धारा बन बहती है
मस्तक-मस्तक की चोट लिए गंगा शीतल मन हरती है
मस्तक की कुटिल-कटारों पर वैभव के तीव्र प्रहारों पर
कष्टों के दंश निगलती है यहांँ गंगा कण-कण ढलती है।
शिला-शैल पर्वतमाला श्वेत वसन-सा गलता है
शिव प्रदेश का कौमार्य यहांँ हिमजल स्वयं पिघलता है
समतल तल-सम पाने को पानी-सा पेय उतरता है
नेत्रों की करुण पुकारों पर हिम-धवल अभिसारों पर
सूखे-कंठों की अभिलाषाओं पर मस्तक के शिखर पिघलते हैं
बिन भाषा ज्ञान के अश्रु यहांँ वातायन में बहते हैं
तन शीतल मन हरने को हाथों गंगाजल भरने को
सब संकल्प यहीं रह जाते हैं हम धारा-प्रवाह बढ़ जाते हैं।
हे गिरिधर ! गिरीप्रांत, गिरिवर, नगतल -पगतल नगपति विशाल
चरणों पर शीश झुकाता हूंँ तुम ही रक्षक तुम ही ढाल
नगपति मेरे जगपति विशाल मेरी मिट्टी के हिमगिरी भाल
ओट तुम्हारी बैठे हैं मांँ पार्वती शिव-शंकर महाकाल
तुम जननी-तुम ही त्रिकाल, हर प्रश्नों के उत्तर की ढाल।
तुम स्रोत-वाहिनियों के जीवन-आधार
जीवन-जगत के पारावार
मैं भी लौट गया इस पार
हाथों में गंगा जल की धार
हे सृष्टि विनायक भूतल-धार
पार लगाओ जीवन पतवार
कविता सरिता बहती सत्कार
अखिल विश्व के पालनहार
हे हिमगिरी के उज्ज्वल आधार
सर्वत्र तुम्हारा संगीत सितार
कैसे हो जीवन मनुहार!
एकांत प्रांत में बैठा- बैठा
पथिक जीवन-मन कुछ खोज रहा
कंकड़-पत्थर हाथों में लिए
अपना घर-आंगन जोड़ रहा
एकांत प्रांत में बैठा- बैठा
हिम आंँचल को टोह रहा
हिम प्रदेश का होकर भी
निज वातायन को खोज रहा
हिमाचल के प्रांगण में बैठा
निज आलय को खोज रहा।
मन में भी तो कितने सागर
नित-नित उठते गिरते हैं
कितने ही अखंड-पर्वत यहांँ
पल भर में बनते गिरते हैं
मन में रोज पिघलता है
हर रोज हिमालय ढलता है
हिम प्रदेश का वासी हूंँ
आंँखों से हिमालय बहता है
वह हिमगिरि का वासी है
जिन आंँखों पर हिमालय बसता है
पथरीली कंकड़ राहों पर
मन हंसता-हंसता बसता है।
©चंद्रकांत
fb-Chandra Tewari
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