रविवार, 27 अगस्त 2023
पुण्य सलिला मोक्षदायिनी - डॉ चंद्रकांत तिवारी - उत्तराखंड प्रांत
बुधवार, 23 अगस्त 2023
चांँद हमारी झोली में - डॉ. चंद्रकांत तिवारी
चांँद हमारी झोली में
प्रेम हमारी बोली में
कार्य सदा नित छुट्टी में
त्रिलोक हमारी मुट्ठी में ।
धरा से दूर थी चांँदनी कब
घूम आएंगे कुछ दिन अब
हमको निज विश्वास है
चांँद हमारे पास है ।
©डॉ. चंद्रकांत तिवारी
मंगलवार, 22 अगस्त 2023
प्रकृति का पुनर्मूल्यांकन- (भाग एक) - डॉ. चंद्रकांत तिवारी - उत्तराखंड प्रांत
प्रकृति का पुनर्मूल्यांकन- डॉ. चंद्रकांत तिवारी-
उत्तराखंड प्रांत
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सुंदरता की देवी साकार
कण-कण प्रकृति करती प्यार
ग्रीष्म,पावस और शीत फुहार
मन ऋतुराज बसंत-बहार
मध्य हिमालय शीतल जल-धार
बरस रहे हैं बिंदु हज़ार ।
चादर कोहरे की उड़-चली-ब्यार
बरस रही है पावस-जल-धार
हे ! हिम शिखरों के दिव्य साकार
प्रकृति सौंदर्य यहांँ नित्य-अपार
हिम प्रदेश यह पाषाण खंड
दिव्य हिमालय उत्तराखंड । (स्वरचित कविता)
संपूर्ण ब्रह्मांड में एक से बढ़कर एक ग्रह, नक्षत्र उपग्रह मौजूद हैं। इन सबके बीच हमारी पृथ्वी भी अनोखी और कई रहस्यों को अपने गर्भ में समेटे हुए है।
प्रकृति हमारी कल्पनाओं से भी कहीं अधिक सुंदर एवं मनभावन है। हमारी कल्पनाओं का क्षितिज तो बहुत सूक्ष्म एवं अल्पजीवी है। परंतु प्रकृति की सुंदरता समय के प्रत्येक पल के साथ बदलती रहती है। कई रंगों का समूह इसकी सुंदरता और रहस्य को गुणात्मक रूप में बढ़ाता रहता है।
प्रकृति अमूल्य है। इसकी प्रत्येक घटना एक संकेत है।
हमें इसका मूल्य पहचानना होगा। प्रकृति प्रेमी बनने की पहली शर्त पर्यावरण के प्रति समर्पण और सौहार्द्र की भावना होनी चाहिए। हम जिस समाज में रहते हैं वह चारों ओर से प्रकृति के सुंदर दृश्यों से घिरा हुआ है। जीव-जंतु, पशु-पक्षी वृक्ष-लताएं, फल-फूल, जल, जमीन, जंगल कुल मिलकर एक ऐसा प्राकृतिक परिवेश का निर्माण करते हैं जो हमारे जीवन के स्तर को जीने योग्य बनाता है। हम सब प्रकृति की ही संतान हैं। प्राकृतिक परिवेश में ही हम जन्म लेते हैं और अंततः अपने जीवन की विकास यात्रा को प्रकृति में ही समाहित करते हुए पुनः प्रकृति की गोद में नए बीज की तरह अंकुरित हो जाते हैं। कुल मिलाकर हम प्रकृति और इसकी परिधि से कभी अलग हो ही नहीं सकते हैं। प्रकृति हमारी सांसों में निरंतर गतिशील होते हुए हमें जीवन जीने की कला सिखाती है। प्रकृति हमें एक ऐसी शिक्षा देती है जो जीवन भर सतत-अनवरत और निरंतर गतिमान रहती है। प्रकृति की शिक्षा और प्रकृति का व्यवहार गुणात्मक फल कारक है। हम स्वयं परस्पर तो अलग हो सकते हैं परंतु प्रकृति से हम कभी भी अलग नहीं रह सकते। क्योंकि प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से हमारा जीवन प्रकृति की ही देन है।
सूर्य से हमें ऊर्जा मिलती है और चंद्रमा से शीतलता मिलती है। आकाशीय नक्षत्र हमारे ग्रह चाल के दिशा निर्देशक हैं। रात्रि विश्राम की स्थिति तो भोर का उजाला जीवन की नई दिशा है। वायु हमें प्राणवायु का बीज मंत्र देते हुए निरंतर पल्लवित, पुष्पित और प्रफुल्लित करती रहती है और ताजगी से परिपूर्ण बनाए रखती है। मिट्टी की महक हमें अपनी जड़ों से जोड़ें रखती है। प्रकृति की कोई भी वस्तु अकारण नहीं है। हर वस्तु का स्थान, समय और स्थिति सुनिश्चित है और मानवता के हितार्थ है। परंतु मनुष्य ही अपनी स्वार्थ-सिद्धि के लिए इस पारिस्थितिक चक्र को बिगाड़ने में तुला है। स्थिति ऐसी है कि जिस डाल पर मानवता बैठी है उसी डाल को अपनी कुछ स्वार्थ की पूर्ति के लिए कुल्हाड़ी से काट रही है।
हम कैसे भूल सकते हैं कि हमारे आराध्य देव, हमारे पूज्य देवी देवता भी तो प्रकृति से ही जुड़े हुए हैं। कैलाश पर्वत से लेकर क्षीरसागर, महासागर, नदी, तालाब, पोखर, जलाशय, ऊंचे घने जंगल, वृक्ष-लताएं, कंकड़-पत्थर, फल-फूल, पत्थर की मूर्तियों सभी तो प्रकृति के उपमान हैं। हमारे तीज-त्योहार सब प्रकृति की ही तो देन है। हम जन्म से ही प्रकृति से जुड़े और प्रकृति ही हमारे अंतर्मन में विराजमान है। कभी देवता बनकर कभी दानव बनकर तो कभी अतिमानव बनकर हमें जीवन जीने के नए-नए तौर-तरीके सिखाती है। तो दूसरी ओर जीने की प्रेरणा भी देती रही है। मानव सभ्यता की सार्थकता इसी बात में निहित है कि प्रकृति के विकास के साथ-साथ उसका भी विकास होता आया है। यह एक ऐसा संतुलन है जो तराजू के दोनों हिस्सों को समान परंतु मानवता के हितार्थ समर्पित बनाता है।
परंतु आज आधुनिक परिवेश की स्थिति कुछ और ही बयां करती है। जिस वैश्विक जगत में हम रहते हैं वह विकास के चक्रवात में फंसता जा रहा हैै। हम अपनी वास्तविक जन्मभूमि, मातृभूमि से अलग होते जा रहे हैं। गांव के गांव खाली होते जा रहे हैं। भाषा, साहित्य, संस्कृति सभ्यता के अखाड़ेबाजी में दम तोड़ रही है। परमार्थपरायण से बढ़कर भी मनुष्य के स्वार्थ हैं। ऐसे में प्रकृति की ओर अपनापन कहां रह जाता है? जिस पर्यावरण को लेकर ऊंचे-ऊंचे मंचों पर बड़ी-बड़ी बातें, बड़ी-बड़ी योजनाएं मन बहलाने के लिए होती हैं वह पर्यावरण प्रकृति से मनुष्य को दूर कर रहा है। ऐसी पर्यावरणीय योजनाओं एवं दावों में विकास तो है परंतु वृद्धि नहीं। जीवन तो है परंतु जीवन जीने की कला नहीं। बनावटी रंग तो हैं परंतु फूलों-सी कोमलता नहीं। दिखावा तो है परंतु सहजता नहीं। किराए की जिंदगी है परंतु अपनापन नहीं। गति तो है परंतु गहराई नहीं। कह सकते हैं कि एक लंबे सफर पर निकल चुके हैं। परंतु न लक्ष्य दिखता है न मंजिल दिखती है और न ही गंतव्य पर पहुंचने की कोई खुशी होगी। बस चलते ही जाना है एक अंधेरे और सुनसान जंगल से गुजरने वाले रास्ते पर।
हमें प्रकृति की शक्ति को पहचानना होगा। स्वयं की शक्ति से प्रकृति की शक्ति के साथ सामंजस्य स्थापित करते हुए जन-सामान्य के लिए प्राकृतिक संसाधनों के सुलभ संसाधनों को अपनाना होगा। विद्यालयी शिक्षा संकल्पना एवं शिक्षा की संरचना में प्रकृति के प्रमुख उपादानों को अपनाते हुए स्थानीय संसाधनों की उपादेयता को स्थायित्व प्रदान करना होगा। शिक्षण की मूलभूत संरचना को व्यवहारिक आधार प्रदान कराना होगा। तभी हम प्रकृति के साथ तादात्म्य स्थापित करते हुए शिक्षण प्रक्रिया को अनुप्रयोगों और स्थानीय संसाधनों से परिपूर्ण कर पाएंगे।
भौतिक संसाधनों की कमी को पूरा करने के लिए हमें, स्थानीय संसाधनों को शिक्षा व्यवस्था की मूलभूत संरचना के साथ जोड़ते हुए, शैक्षणिक संसाधनों की पूर्ति कर, शिक्षण व्यवस्था को प्रकृति से जोड़ना/ जोड़कर सृजनात्मकता एवं नवाचार स्थापित करने का प्रयास किया जा सकता है या कर सकते हैं।
शिक्षा, चिकित्सा और कृषि तीनों ही प्रकृति की देन हैं।
पर्यावरण दिवस को हमें कुछ विशेष नियमों के तहत अपने की आवश्यकता है। हमें इस नियामक दिन को पहचानना होगा जिसे हम पर्यावरण दिवस के रूप में मनाते हैं। हमें अपनी शिक्षा व्यवस्था में स्थानीय संसाधनों के अनुसार बदलाव करने होंगे। हमें ऐसी शिक्षा व्यवस्था को निर्मित करना होगा जो प्रायोगिक एवं व्यावहारिक स्तर पर हमें प्रकृति के विविध रूपों, उपमानों से अपनापन बनाए रखने में सक्षम बनाएं। पर्यावरणीय अध्ययन के सूत्र एवं उद्देश्य कक्षा-कक्ष शिक्षण तक ही सीमित नहीं होने चाहिए। यह सिद्धांत से अधिक व्यवहार का विषय है। यह तो प्रायोगिक विषय क्षेत्र है। इसे खुले आकाश के तले व्यावहारिक एवं प्रायोगिक रूप से ही सहजता एवं अपनेपन के साथ अपनाया जा सकता है।
क्रमशः.......
गुरुवार, 17 अगस्त 2023
व्यंग्य की तलाश - भाग तीन - डॉ. चंद्रकांत तिवारी - उत्तराखंड प्रांत
व्यंग्य की तलाश -(भाग तीन) - डॉ. चंद्रकांत तिवारी
विश्व के मानचित्र पर भारत महज एक देश ही नहीं बल्कि विभिन्न सभ्यताओं का समुच्चय है। यहाँ से निकली सभ्यताओं की छोटी-छोटी नदियों का जल विश्वसागर की जलसंधि को स्पर्श कर भारतवर्ष की संस्कृति के कई आयाम चिन्हित करता है। भारतवर्ष की संस्कृति में आत्मिक संतुष्टि का भाव गहराई से समाया हुआ है। यह भाव विदेशियों को इतना प्रभावित करता है कि विदेशी अपना घर-द्वार छोड़ यहाँ बसने को तैयार खड़े हैं। हम भारतीय हृदय से बड़े सरल, मन से बढ़े तरल और बिना वजह कोई हमें परेशान करे तो उसके लिए हम गरल हैं। जो भी हमारे समाज का हिस्सा बना वह पानी में चीनी की तरह घुल गया, और जो ऐसे छोटे गन्नों की पैदावार चीनी के मोटे दाने घुल नहीं पाये उसे हमने चुन-चुन कर बाहर निकाला और सिल-बट्टे पर कूट-कूट कर बुरादा बनाया। भारतीय समाज में एक विचित्र कौशल विकास आत्मिक रूप से जुड़ा हुआ है। हम हर उस टेढ़ी-मेड़ी चीज को ठोक-पीट कर सीधा बना देते हैं जो अनियंत्रित होकर समाज में बरगद के पेड़ की तरह विस्तारवादी नीति की तरह फैल रही होती है।
हमारे देश में वाद से बढ़कर विवाद है। हर विवाद पर संवाद है। संवाद से बढ़कर राष्ट्रवाद है। राष्ट्रवाद के आगे फुलस्टाॅप है। दुश्मन ने हमसे टकराने की कई बार नाकाम कोशिश की है परंतु हमारे राष्ट्रवादी गांडीव की तान सुनकर दुश्मन की पतलून गीली हो गई। उसकी बंद आँखें और सिकुड़ गई। क्योंकि हमारे पास राष्ट्रवाद है। हम भूखे-प्यासे रह सकते हैं परंतु राष्ट्रवाद हमारे लिए सर्वोपरि है। हमारा राष्ट्रवाद स्वदेशी है। जिसमें आत्मनिर्भरता का भाव गहराई से जुड़ा हुआ है। हमारे राष्ट्र की संवेदनाओं का प्रतीक धर्म में निहित है। धर्म हमारे लिए जीवन जीने की एक कला है। संस्कारों का नवगीत एवं तीज-त्योहारों और आपसी सहमति से संस्कृति की प्राकृतिक यात्रा की विरासत निर्मित करते हुए, धर्म दर्शन की रूपरेखा में परिणीती प्राप्त करती है। इच्छा , क्रिया और ज्ञान का समन्वित प्रयास ही धर्म दर्शन को वैश्विक स्तर पर स्थापित करता है। धर्म ने कर्म को स्वर्ग की राह पर नैसर्गिक प्रकृति -परिवेश के मध्य, हिमालय के श्वेत मस्तक से परिपूर्ण उच्चादर्शों के साथ उठना सिखाया। नैतिक चरित्र की आध्यात्मिक - प्राथमिक - अनुशासनात्मक पाठशाला धर्म दर्शन की वैश्विक परंपरा एवं आत्मिक चेतना में ही निहित है।
धर्म नियमित रूप से अनवरत- नैसर्गिक क्रिया - कलाप है। यह धुंधली चादर में उजली संभावित किरणों का दैविक प्रकाश है। यह हमारा पथ प्रदर्शित करता है। धर्म हमारी संस्कृति और समाज में पारिजात वृक्ष की तरह खड़ा है। जिसका कोई डुप्लिकेट मार्केट में नहीं बनाया जा सकता। हमारे धर्म में राम-घनश्याम, नंदकिशोर- मनमोहन, माखनचोर, बंशीधारी-कृष्ण मुरारी, त्रिनेत्रधारी, हजरत पीर, संत-फकीर, रहीम-कबीर आदि रहे हैं। हमारे यहाँ साधारण लोगों में असाधारण प्रतिभा है। माता जानकी प्रभु श्री राम हमारे आराध्य स्तुत्य हैं। इसीलिए हमारी संस्कृति बेजोड़ है। हमारी सभ्यता गंगाजल बनकर कई स्वदेशी - विदेशी मुर्दों को मोक्ष की राह दिखाती है। कई विदेशियों को माँ गंगा ने सीधे मोक्ष की प्राप्ति कराई है। यह उन मुर्दों का सौभाग्य है जिनकी राख को माँ गंगा अपने में धारण कर लेती है। गाय, गंगा, गीता और गांँव हमारी सनातन संस्कृति के चार अध्याय हैं।
महात्मा गाँधी भारत के ऐसे लाल थे जिन्होंने अंग्रेजी हुकूमत को पीला कर दिया था। गाँधी जी ने दक्षिण अफ्रीका में जो प्रयोग प्रारंभ किये थे उसकी स्थायी प्रयोगशाला भारत में स्थापित की और सत्य-अहिंसा के कैमिकल से जो कीटनाशक तैयार किया उसका छिड़काव सबसे पहले अंग्रेजों पर किया। अंग्रेज मन के काले और तन के गोरे थे। स्वदेशी कीटनाशक रूपी सत्य-अहिंसा के स्प्रे से दमा के रोगी हो गये। अब वह पहले की तरह खुली हवा में साँस न ले सके। जिस ओर से गाँधी जी का काफिला गुजरता अंग्रेज घबराते। एक साधारण से व्यक्ति ने अंग्रेजों की नींद उड़ा दी। अंग्रेजों को सपनों में भी गाँधी जी से डर लगता था। नमक बनाकर गाँधी जी ने अंग्रेजों को खुली चुनौती दे डाली। अंग्रेजों को अपने खुले जख्मों का डर सताने लगा कि कोई नमक न छिड़क दे। सत्य की सफेद धोती और हिंसा की रोकथाम के लिए लाठी लेकर गोरे अंग्रेजों को आगाह करते और कहते कि अभी भी समय है अपने देश लौट जाओ। कल को न अपने देश के रहोगे न भारत के रह सकोगे। यह भारतवर्ष है यहाँ के टुकड़ों पर कब तक पलते रहोगे। गाँधी जी का चरखा और खादी स्वदेशी भावना का नवाचार था। चरखा तो घर-घर में लोकप्रियता पा चुका था। देश में ऐसे कई चरखे सुदर्शन चक्र की तरह चलने लगे। मानों अंग्रेज सोच रहे हों कि हमारे गले की नाप का फंदा न जाने किस सुदर्शन चरखे में तैयार हो रहा है। चरखा राष्ट्रवादी भावनाओं का द्योतक और भारतीय पुनरुत्थान का अनवरत प्रतीक चिह्न है। जिससे बनने वाला सूत किसी हीरे की काट से कम न था। चरखे की गति और नमक का घोल,भारत की जनता और गाँधी के बोल, लाठी की आवाज, स्वदेशी बोल, अब तो तय था,अंग्रेजों का बिस्तरा गोल। हमारे स्वदेशी चरखे से बना हुआ खादी इतना मजबूत हुआ करता था कि अगर इस खादी को अंग्रेजों पर भीगो-भीगो कर मारा जाता तो उन्हें पता चलता कि भारत के पूत और चरखे के सूत की ताकत क्या होती है। खादी की मार और चरखे की धार का कोई मुकाबला न था साहब। राजनीति में खादी, गाँधी और चरखे का योग हर वोट की चोट पर दस्तक करता है। नेताओं को खादी का प्रयोग पता है। कि खादी का कहाँ और कैसे इस्तेमाल करना है। जिस लाठी से गाँधी जी ने आजादी का गोवर्धन पर्वत उठाया था वह गाँधी जी की निशानी आज भी मौजूद है। नेताओं के सफेद कुर्ते और पुलिस के डंडे स्वदेशी आत्मनिर्भरता की पहचान है। शायद गाँधी जी की भी यही इच्छा थी। इसीलिए पुलिस प्रशासन ने गाँधी जी का डंडा जनहित में थाम लिया और नेताओं ने खादी।
हमारी खादी सरहद की सुरक्षा के लिए प्रतिबद्ध है। चरखे से बनने वाला सूत का धागा हर भारतीय को सुदर्शन-सी गति देते हुए एक सूत्र में पिरोते हुए मजबूत दीवार का काम करता है। जिसके जोड़ फैबिकोल से भी मजबूत और टिकाऊ हैं। विश्व की किसी भी बड़ी दीवार से बढ़कर हम भारतीयों की राष्ट्रवादी विचारधारा है। हमारा देश पत्थर में भगवान को देखता हैं, पूजता है और मिट्टी का तिलक लगाकर सरहदों की रक्षा के लिए प्रतिबद्ध है। हमने कई बार सरहद पार से बिल खोदकर हमारी सरहद में घुस आने वाले ऊदबिलावों को कान पकड़ कर उलटी गिनती करवाई है। परंतु हमारे पड़ोसी ऊदबिलाव बड़े उद्दंडी हैं। खैर मांफ करना हमारी सनातन संस्कृति है। हम भारतीय हैं, मर्यादा में यहाँ पुरूषोत्तम हुए हैं। आज्ञा में नि: स्वार्थ भावप्रिय भरत शिरोमणि एवं कर्मवीर-कर्तव्यधीर दशरथ नंदन हुए । हम अतिथि को भगवान मानते हैं। परंतु क्षमा की भी कोई सीमा होती है। दधिचि की हड्डियों का वज्र अब तक हमारे पास है। अगर हमारी भक्ति शक्ति में बदले इससे पहले जितने समुद्र और पर्वत पार करके तुमने भारत में प्रवेश किया है उसी दिशा को वापस हो लें। अगर मर्यादा पुरुषोत्तम के वंशज कुपित हुए तो नाभी का अमृत कब सूख जाएगा यह समझ न आएगा। यह गाँधी का देश है तो यह सुभाष का भी देश है। यहाँ सावरकर हुए तो सरदार पटेल भी थे। यह देश कलाम का भी उतना ही है जितना कलम का है। यह देश आर्यों का है। कुरूवंशो की यहाँ शौर्य गाथा की लिखावट अमिट है। यहाँ की सेना के समक्ष दुश्मन भय से गीला और चेहरे से पीला हो जाता है। यहाँ छप्पन इंच का सीना है। हर विसंगतियों पर ताली है, थाली है, घंटी है और दीये की रोशनी पर राष्ट्रवाद के अंडे उबलते हैं ।
वैश्विक महामारी में भी गरीब के घर में उजाला है। हमारे पास विजन बड़ा है। हालाँकि हमारा देश अभी विकासशील की दौड़ में बहुत पीछे खड़ा है। लेकिन हर मुश्किलों में अजेय बनकर लड़ा है। राजनीति हमारे यहां व्यवसाय है। सभी नीतियों की धारा राजनीति से निकलती है। नेताजी का पैजामा छोटा-बड़ा हो सकता है परंतु राजनीति छोटी-बड़ी नहीं हो सकती। हां पेट बाहर जरूर निकल सकता है। अपनी सीमा से बाहर। राजनीति की बेबस परिधि से भी ज्यादा बाहर। पेट राजनीति का कुरुक्षेत्र है, जिसका युद्ध आज तक चल रहा है और आगामी सदियों तक चलता रहेगा।कुरुक्षेत्रे- कर्मक्षेत्रे- धर्मक्षेत्रे धरातलीय पृष्ठीय आवरण पर आज अर्जुन जिस मत्स्य को भेदने की कोशिश कर रहा है। वह बहुत दिनों पहिले ही मर चुकी है। हां मत्स्य का पेट फूल गया है। यह अनोखा दृश्य महासभा दे रही है। तभी अर्जुन का निशाना चूक गया और तीर पेट पर जा लगा। यह कहने की आवश्यकता नहीं कि पेट से क्या निकला होगा ! सब आश्चर्यचकित हैं, मौन हैं।
क्रमशः.......
शुक्रवार, 11 अगस्त 2023
व्यंग्य की तलाश - (भाग दो) - डॉ चंद्रकांत तिवारी - उत्तराखंड प्रांत
व्यंग्य की तलाश - (भाग दो)
डॉ. चंद्रकांत तिवारी - उत्तराखंड प्रांत
हिन्दू समाज की सबसे बड़ी धरोहर उसका वैदिक साहित्य है। इस साहित्य में सभी हिन्दुओं की आस्थाओं, श्रद्धा, भक्ति, आत्म-विश्वास तथा मानवीय जीवन मूल्यों का क्रिया-कर्म होता रहता है। संपूर्ण भारतीय वांग्मय उसी की धुरी पर टिका हुआ है। इस बात में शक नहीं कि साहित्य सत्य और काल्पनिक दोनों होता है, परंतु जहाँ तक मानवीय मूल्यों का सवाल है तो साहित्य समाज सापेक्ष अभिव्यक्त होता है। युगबोध एवं मूल्यबोध पर आधारित होता है।
आज देश में इतनी समस्याएँ हैं कि उन पर बातें करते हुए कई और समस्याएँ पैदा होने की पूरी संभावना है। हर समस्या के समाधान के लिए एक सरकारी योजना चाहिए। सरकारी योजनाएं डोली पर बैठती हुई किसी दुल्हन की तरह है। जिसका चीरहरण संभावित है। केंद्र सरकार अगर कोई योजना राज्य सरकारों को आबंटित करती है तो यहां बैठे भूखे सभासदों, मेयरों, और विधायकों के चेहरे खिलखिला उठते हैं। किसी लकड़बग्घे की तरफ जो फेंके हुए टुकड़े को नोंच नोंच कर खा जाता है।
कमीशनखोरी प्याज की परतों की तरह धीरे-धीरे खुलती है। असल में ग़रीब तबके का आदमी प्याज के उतरते छिलकों की तरह धीरे-धीरे निर्वस्त्र हो रहा होता है।
सरकारी परियोजना प्रेशर कुकर की वह सिटी है जो कभी बजती नहीं है लेकिन खाना पका देती है। उच्च पदों से लेकर ग्रामीण स्तर तक सबको धूप और बतासे चढ़ावे के रूप में चाहिए। सरकारी योजनाओं से मिलने वाला प्रसाद मन को आनंदित तो करता ही है आत्मा को भी प्रफुल्लित कर देता है। कर्मशील स्वयं आत्मानुशासित कर्मवीर है परन्तु कर्महीन स्व-आचरणहीन होने पर भी पूर्ण कर्म में अपूर्ण भाव को देखने का अभ्यस्त है । कर्महीन व्यक्तियों का सबसे सुंदर आभूषण सरकारी योजनाओं से मिलने वाला प्रसाद है। ऐसे प्रसाद को प्राप्त करने के लिए व्यक्ति को चहुँमुखी प्रतिभाशाली और समाज का सच्चा हितैषी स्वयं को दिखाना होता है। जो जितना कर्महीन होगा वह प्रसाद का उतना बड़ा दावेदार होगा। समाज के सारे बनावटी दुःख दर्द समेटकर अपने भीतर रखने की क्षमता ही व्यक्ति को भीतर से इस चरित्रहीन मंदिर का एकमात्र पुजारी बना देती है। ऐसे मंदिर का पुजारी हमेशा लोकतंत्र की आय पर निर्भर रहकर आत्मनिर्भर बना रहता है।
कर्म के द्वारा ही धर्म का पालन किया जाता है, कर्माभिमुख धर्म ही प्रेम का उपजीव्य है। क्योंकि प्रेम, संवेदना सभी मानवीय मूल्यों में सर्वोपरि है। आनंदोपलब्धि जीवन की अंतिम और एकमात्र वैकल्पिक पूंजी है। सभी विषयों में सर्वोपरि और मूल्यनिष्ठ। साहित्य की अनेक कालजयी कृतियाॅ मानवीय मूल्यों का विषय प्रवर्तन करती हैं। सचमुच वैसी ही पुस्तकों का साहित्य कालजयी एवं मानवीय मूल्यों का आधार होता है जिसके रचयिता सत्ता के गलियारे में जाकर चिंघाड़तें या घिंघियाते नहीं अपितु अपनी परंपरा से जुड़े रहते हैं और अपनी लेखनी से मानवता का सच्चा मार्गदर्शन करते हैं। आज मानवीय मूल्यों में बदलाव का स्तर कंकाल सदृश्य बनता जा रहा है जिसे स्वयं ओंकारेश्वर भी समझने में अक्षम होंगे। स्वयं ब्रह्म भी उदासीन भाव लिए ऊर्जा विहीन होंगे।
रामायण और महाभारत का विस्तृत कथानक कुर्सी की आत्मनिर्भरता और चरित्र की आत्महीनता के कई पहलू दर्शाता है। देश की कुर्सी हो या राजा का सिंहासन यह करोड़ों लोगों की भावनाएँ से बनी होती है। चुनाव के दौरान हर कार्यकर्ता के पसीने की बूँद से इसके खाँचे मजबूत बनें रहते हैं। लेकिन शायद जनता भी वोट देने के बाद अपने घर का रास्ता भटक गई है। राह में उसे अपना घर नहीं मिल रहा। चुनावी योजनाओं में सड़क निर्माण की बातें सोचता हुआ आम आदमी अचानक बड़े से गढ्ढे में गिरता है। ऐसे गढ्ढे जनता के आत्मविश्वास को बढ़ावा देने के लिए सड़कों पर छोड़ दिये जाते हैं। विगत दिनों कुछ कोरोना महामारी से बचने के लिए सुरक्षा घेरा समझकर नीचे गिरते हुए आत्मनिर्भर योजना का पूरा फायदा उठाने का प्रयास करते हैं।
आत्मनिर्भरता की दिशा में हमारे पास ढेरों जुगाड़ हैं। आत्मनिर्भरता अंधेरी रात में पैदा हुआ ऐसा बच्चा है जो स्कूल में दाखिले के लिए अपने माता-पिता का नाम खोज रहा है। हम भारतीय विश्वास को जगाने से पहले अंधविश्वास की संकरी गली के चक्कर लगाते हुए, टीका चंदन से माथा लाल कर भक्त होने का स्थायी प्रमाण-पत्र प्राप्त करते हैं। जब अंधविश्वास का पूजन हो जाता है तो हमारा विश्वास स्वतः ही ऊपर हो आता है। अंधविश्वास के चलते कई साधु संतों की अच्छी चल जाती है। खैर यह कर्म भी काफ़ी परिश्रम और जोख़िम से भरपूर है। निरपराध जनता ने घर की सुख शांति के लिए जिन साधु महात्माओं की भक्ति के गीत गाये और जिन संतों को समाज का सच्चा हितैषी समझा वही महात्मा उसके दूध की पतेली से मलाई ढूंढ-ढूंढ कर खा गये और कबाड़ीवाला पतेली ले भागा। देश में अंधविश्वास का अच्छा साम्राज्य फल-फूल रहा है। किसी की नौकरी लगाने का झांसा देकर, किसी की शादी कराने का लालच देकर, मानसिक बीमारी से लेकर शारीरिक समस्या तक का समाधान, किसी दम्पत्ति के बच्चे न हो सकें तो इन नीम हकीम बाबा-संतों के पास वह सारे साधन हैं जो उच्च कोटि के अस्पतालों में ढूंढने से भी न मिलें। मेडिकल का छात्र फेल हो जाएगा, परंतु नीम हकीम बाबा-संतों की नीम हकीकी चलती रहेगी।
हमारी संस्कृति बेजोड़ है। श्रद्धा भाव की यहां कोई कमी नहीं है। हमारे ईश्वर तो झूठे बेरों से ही प्रसन्नता का अनुभव करते हैं। अपने देवों को प्रसन्न करने के चक्कर में हमने हजारों लीटर दूध पत्थरों पर चढ़ाया है। हमारा समाज सभ्यता का वह नायाब नमूना है जो यह देखकर अनजान बना हुआ है कि जहां कई बच्चे दूध के अभाव में कुपोषण के शिकार होते हैं। उस देश में भगवान कैसे प्रसन्न रह सकते हैं। हमारे देव तो बाल मनोरम दृश्यों में ही देखे गए हैं। भूख लगी तो मटकी से माखन निकाल मित्रों संग बैठ खा लिया। शिशुओं में ही ईश्वर का वास होता है। भला दूध के बिना हमारे शिशु भूखे रहेंगे तो हमारे देव हम पर कुपित न होंगे। यह भला कैसा सामाजिक न्याय है?
भारत की संस्कृति में अधिकांश लोक देवताओं के निवास गुफाओं और कंदराओं में देखे जा सकते हैं। सभी देवता पत्थर के हैं कुछ लोहे से निर्मित भी हैं। अतीत में वृक्षों और भूमि की पूजा होती रही है। सूर्य और चंद्रमा वर्षों से बल्ब और ट्यूब्लाइट का काम करते आये हैं। हमने पेड़-पौधों के अलावा जानवरों में भी देवताओं को तलाशा हैं। हमारे अधिकांश देवताओं के जानवरों से अच्छे संबंध रहे हैं। इसीलिए हमारे आराध्य देवों ने अपना स्थायी निवास ऊँचे पहाड़ों और घने जंगलों को चुना। हमें प्रकृति से जुड़ना सीखाया। पशु-पक्षियों के व्यवहार द्वारा शिक्षा के संदेश दर्शाये। परंतु फिर भी हमारे आराध्य देव पत्थर के हैं उन्हें पूजने वाले पत्थरों से लड़ते हुए कभी पत्थरबाज कहलाते हैं तो कभी पत्थरों से मिली आग से अपनों का घर फूंकने को तैयार खड़े हैं। कहते हैं कि दूध का जला छांछ को भी फूंक-फूंक कर पीता है। जब हम दूध और छांछ में अंतर ही नहीं समझ रहे तो भ्रम की स्थिति में ही रहेंगे ना..!
क्रमशः ...
बुधवार, 9 अगस्त 2023
व्यंग्य की तलाश (भाग - एक)- ©डॉ चंद्रकांत तिवारी - उत्तराखंड प्रांत
व्यंग्य की तलाश - (भाग - एक)-
रंगों का स्पर्श शरीर से कहीं अधिक मन को प्रभावित करता है । रंगों को छूने से जो प्रसन्नता जो आत्मिक संतुष्टि मन को प्राप्त होती है उसको शब्दों में बयां नहीं किया जा सकता है क्योंकि यह भावनात्मक रूप से परिपूर्ण होकर एक-दूसरे को परस्पर संवाद करने की अनुमति प्रदान करता है। बालकों सी स्वच्छंदता, कल्पना की सीमा-रेखा से परे, नवजात शिशु सी कोमलता और यौवन की महत्वाकांक्षा भी रंगों का स्पर्श पाकर, तीव्र गति से लक्ष्य की ओर बढ़ती है। जिन रंगों को बालक एक दूसरे पर बड़ी आसानी से डालते हुए आनंद प्राप्त करते हैं उन्हीं रंगों को उम्रदराज लोग लगाने में घबराते हैं।
रंगो का स्पर्श उम्र की सीमाओं का अतिक्रमण कर सारे बंधनों को तोड़ कभी बचपन के रंग में रंग जाता है तो कभी जवानी के गोते खाता हुआ ऊंचे नील गगन में आजाद पंछी की तरह तैरता रहता है। साठ बरस की उम्र के गांठ को खोलने वाला चाहिए। गांठ खुल जाए तो अनुभव और ज्ञान के अपार स्रोत बहेंगे। हमारे बुजुर्गों में युवाओं का कलेजा है। उम्र का ग्राफ तो घटता बढ़ता रहता है। वैसे तो उम्र दिमागी बुखार का पारा है। जो थोड़ी गर्मी-सर्दी बढ़ने से ही गिरता-चढ़ता है। हमारे देश में बुजुर्गों को इतना सम्मान मिला है कि तितली की चंचलता और भंवरे की गुनगुनाहट को आदर्श मानकर उम्र की किसी भी सीढ़ी पर बाप बनकर फूल खिलाने की भिन्न-भिन्न रंगों से मधुरस लेने की छूट है। यौवन का रंग हमारे मार्गदर्शक बुजुर्गों की नसों में बुझते दीये की तरह हमेशा फड़फड़ाता रहता है। बसंत के मौसम की गुनगुनी धूप में घूमता हुआ कोई मनचला राजनीति का दबंग भंवरा रंगों की चहक-महक और चकाचैंध में भिनभिनाता हुआ तन-मन को भिगोकर आत्मसंतुष्टि का अनुभव करता है। समाज सेवा का तमगा अब कुछ फीका हो चला है।
कीचड़ का रंग बालकों की स्वछंदता का प्रतीक है। समानता का आधार है। जब तक कीचड़ में सभी बालक मिलकर एक नहीं हो जाते तब तक समानता के सारे आधार बेरंग हैं। लड़-झगड़ कर एक दूसरे के कपड़े फाड़ना और एक दूसरे पर कीचड़ उछालना मिट्टी फेंकना यही तो बचपन की अमीरी और गरीबी की एकरूपता की आजादी का रंग है। व्यक्ति की महत्वाकांक्षाएं जैसे-जैसे बड़ी होती हैं यही मिट्टी और कीचड़ उछालने के रंग दाग के रूप में बदल जाते हैं और बचपन इनसे कोसों दूर निकल जाता है। बच्चा जैसे- जैसे लंगोट से पैजामे तक पहुंचता है। मां बाप की चिंता घर की चारदीवारी से बाहर झांकने लगती है। उम्र के रोशनदान से झांकती हुई जवानी किसी भी परेशानी की चिंता का कारण हो सकती है। अमीर बच्चों और गरीब बच्चों का अंतर सरकारी और प्राइवेट स्कूल में बंट जाता है। जिससे हमारी शिक्षा के रंग भी अलग-अलग हो जाते हैं।
वैसे हमारी शिक्षा बहुरंगी है। यहां अपने रिस्क पर जितना चाहो पढ़ सकते हैं। हवा में तैरती हुई पतंग की तरह जितनी ऊंचाई तक जाना चाहो उड़ सकते हो। पतंग कटने का जिम्मा सरकार का नहीं है। भारत की शिक्षा प्रणाली की थाली में मिड डे मील की तरह जब चाहो खा लो या जब चाहो बजा लो। हमारी शिक्षा प्रणाली योजनाओं की दो नाली बंदूक से निकल चुकी है। गोली निशाने पर लगे या निशाना गोली के आगे आ जाए, इस बात से बेखबर कई डेली वेज शिक्षकों के वर्ग इस निशाने की परिधि के भीतर घूम रहे हैं। जिनमें अतिथि, तदर्थ, शिक्षामित्र, नियोजित शिक्षक, शिक्षक बंधु, ठेके के शिक्षक विश्व मानव या महामानव बनाने का जिम्मा अपने सिर उठाए हैं। इनकी जरा सी भूल विश्व मानव का हाजमा बिगाड़ सकती है। गंभीरता और भावुकता के बीच की संकरी गली से गुजरने का रिस्क तो खुद ही उठाना होगा साहब।
मनुष्य भावात्मक रूप से मूर्ख और कामचोर होते हुए भी हर सभा में विद्वता का परिचय देता है। इसे अभ्यास कहें या फिर परिस्थितियों से भी परिस्थितियाँ बनाकर उनसे बाहर निकलने की परिस्थिती में अभ्यस्त व्यक्ति, ही नेतृत्व कौशल में कुशल सामाजिक चोर कहलाता है। यह रंगों की शक्ति का प्रमाण है। भावनाओं की शक्ति का विस्तार है। रंग जिंदगी के अनेक भावों को दर्शाते हैं।
भाषा सृष्टि में सर्वत्र विद्यमान है। सृष्टि की किसी भी वस्तु को देखने के बाद अगर मस्तिष्क के प्रकोष्ठों पर बिंबात्मक दृश्य न उभरें तो भाषाई चेतना नौ रसों की भांति सुसुप्त बुद्धियुग के अवचेतनात्मक महासमर में पथविहीन सी नजर आती है। जिस प्रकार आत्मा मोक्ष मार्ग की प्राप्ति की तलाश में भटकती है, ठीक उसी प्रकार भाषा भी अपना पथ तलाश करने के लिए गूँज की भांति अखिल अनिश्चित अकल्पनीय ब्रह्मांड में ध्वन्यात्मक प्रतीकों का समुच्चय बन सार्थक शब्दों का नया शरीर पाने के लिए आतुर रहती है।
भाषा शिशु के भीतर उतनी ही सार्थक है जितनी वृद्ध के लिए श्वास। भाषा बनावटी रिश्तों के लिए भी उतनी ही सार्थक है जितनी कि समाज और साहित्य के निर्माण के लिए आवश्यक। भाषा का समाजशास्त्र उतना ही मुश्किल है जितना आलोचना की सामाजिकता। कवि हमेशा ही रचना की शब्दनुमा परिधि के भीतरी प्रकोष्ठों में आलोचना को अवचेतनात्मक रूप में रखते चलता है, फिर भी रचना आलोचना की मांग करती है। भाषा हमेशा नवीन शब्दनुमा आवरण को धारण करने में अपनी वास्तविक प्रासंगिकता खो देती है परंतु फिर भी रचना कालजयी बन जाती है।
भाषा का तांडव बड़ा विध्वंसकारी होता है। भाषा शिव के त्रिशूल से विष्णु के सुदर्शन से ब्रह्मा के कमंडल से निकलते हुए संपूर्ण प्रकृति को मधुर संगीत से वशीभूत कर देती है और पशु पक्षी जीव जंतु सभी इस भाषा के वशीकरण में शामिल हो जाते हैं और फिर भाषा अपना चक्र चलाती है। जो समय का चक्र है वही नियति का चक्र है। भाषा मनुष्य के साथ चूहे बिल्ली की तरह खेलती है। सांप नेवले की तरह किसी भी स्थिति के लिए मनुष्य को मौका देती है। हिरण की तरह दौड़ाती है तो बाघ की ऊंची छलांग मारकर अपने शिकार की श्वास नली को दबोच लेती है। मदारी की भाषा में बंदर अपनी पूरी जवानी उछल-कूद में बिता देता है। बंदर उस भाषा का गुलाम बन जाता है और भालू डुगडुगी की आवाज में सर के बल दौड़ता हुआ बार-बार बेवकूफ बनता है। नादानी में नाचता है और लोगों का मन बहलाता है। भालू की विवशता और बंदर की मजबूरी सब भाषा की करामाती सौगात है। भाषा भले व्यक्ति को निर्वस्त्र और नंगे को कपड़ा दे सकती है। भूखे को भोजन और धनवान को कबाड़ी भी बना सकती है। भाषा का अनुशासन पशु पक्षियों और जानवरों में इंसानों से अधिक देखा गया है। इंसानों को भाषा द्वारा ही हर प्रकार की शिक्षा दी जाती है। परंतु इसके विपरीत पशु पक्षियों एवं जानवरों को प्रकृति स्वयं शिक्षा देती है। प्रकृति की गोद में निरीह प्राणियों के लिए मातृत्व का भाव है। देवत्व की स्थापना है। देवी का स्तुत्य है और शिव प्रदेश का आशीर्वाद है। प्रकृति ने हमेशा रंग -बिरंगे वस्त्र दिए हैं। विकलांगों को राहत दी है। भिखारियों को भोजन दिया है। दुराचारियों को निवास भी दिए हैं। हमारे ईश्वर का निवास और हमारा अंतिम मोक्ष भी प्रकृति की गोद में ही निहित है। प्रकृति की गोद में हमारी सुबह दोपहर और शाम होती है और हमारी रात भी प्रकृति की गोद में ही अगली सुबह के इंतजार में पूर्ण होती है। पर हम चांडाल प्रकृति का इतना दोहन कर बैठे हैं कि संपूर्ण मानवता खतरे के निशान से ऊपर आ चुकी है। मानव जो अपने ज्ञान का इतना दंभ भरता है प्रकृति के समक्ष वह रेंगते हुए केंचुए के समान है। जिसको जंगली मुर्गी कभी भी अपना आहार बना लेती है।
जितनी प्रतिस्पर्धा हम इंसानों में है उससे कहीं अधिक प्रतिस्पर्धा का भाव पशु पक्षियों एवं जानवरों में देखा गया है। शेर और हिरण दोनों का मकसद एक ही होता है परंतु दोनों अपना-अपना धर्म निभाने के लिए दौड़ रहे होते हैं। प्रकृति की जीत हमेशा निर्दयी हाथों में होती है।
पशु-पक्षियों एवं जीव-जंतुओं का अनुशासन और प्रेम बड़े उच्च कोटि का होता है। चींटियों का अनुशासन मानव जीवन के लिए बहुत बड़ा दृष्टांत। हाथियों का झुंड अपनी मौजमस्ती/दादागिरी करता हुआ किसी के भी खेत में बेधड़क शराबी की तरह घुसकर गोबर गणेश कर सकता है। सूअरों का आतंक आजकल अपनी सरहद की सीमा रेखा को लांघ गया है। कुछ मनचले सूअर जंगल की सीमा रेखा को फांदकर अपने मनचले स्वभाव के अनुकूल लोगों के आलू खोदकर अपनी भड़ास निकालते हैं और अभिव्यक्ति की आजादी का राग अलापने लगते हैं। कुछ हमारे पाले हुए सूअर इतने अनभिज्ञ हैं कि स्थानीय संसाधनों का प्रयोग करते हुए भूलवश अपने सरल स्वभाव के कारण स्वच्छ भारत अभियान को चुनौती देते देखे जा सकते हैं। कीचड़ में नाक घुसा-घुसाकर सूर्य नमस्कार करता और आनंदोपलब्धि मनाता हुआ स्वर्गिक अनुभूति का परम सुख प्राप्त करता हुआ इसी परिवेश में जीवन जीने का अभ्यस्त हो चुका है। कीचड़ से जीवन का रस निचोड़ अपने यथार्थ से जुड़ा हुआ सूअरों का दल सभ्य और अभिजात्य समाज का अटूट हिस्सा है।
जानवरों की सभा से लेकर देश की महासभा तक भाषा एक बहुत बड़ा प्रश्न है। जिसका उत्तर खोजने के लिए भाषा के नाम पर कई विमर्श चल रहे हैं। प्रयोगशाला में कई प्रयोग हो रहे हैं। परंतु भाषा मौन बने हुए भी बहुत कुछ कह देती हैं। आज देश में भाषा का प्रश्न आम बात है अधिकांश लोग भाषा विमर्श के नाम पर पूरे का पूरा दिन बोलने में खपा देते हैं। होता तो कुछ नहीं है वही ढाक के तीन पात। हां लेकिन कुछ लोगों को भाषा के नाम पर काम मिल गया है। कुछ लोगों के लिए भाषा विमर्श सरकारी परियोजनाओं से उतरता हुआ कागज का जहाज जिस पर गुलाबी और हरे-हरे गांधीजी के चित्र बने हुए हैं उल्लू पर लक्ष्मी बैठकर स्वयं आई है तो भाषा अपने बिल से बाहर निकल कर इधर उधर झांकती है और दुल्हन की तरह घुंघट ओढ़ कर किसी किनारे में बैठ जाती है।
भाषा एक हथियार है वास्तविक हथियार नहीं, एक शाब्दिक विकल्प। भाषा दुःख का उत्सव है तो हर्ष का विलाप, भाषा संस्कृति का नगरकोट है तो राजनीति खण्डहर सदृश्य। भाषा मरुतप्राण सी शक्ति है तो श्वापदों का वाक-युद्ध। भाषा साहित्य और संस्कृति का उन्नयन व अवनमन है। भाषा स्वयं में अपनी वास्तविक प्रासंगिकता से कोसों दूर रहकर भी रचना को भू-खंड के सदृश्य वट-वृक्षों की कूॅची से निर्मित नवजात शिशु की भांति पालन-पोषण करती है। लेकिन इतना सब होने के बावजूद भी भाषा एक ऐसे नवजात शिशु का विलाप है जो अपनी मां की गोद से बिछड़ गई है। और सरकारी अस्पताल के किसी बेड पर वेंटीलेटर पर लेटी हुई है। देश के हर भाषा प्रेमी को उस दिन का इंतजार बड़ी बेसब्री से है कि जिस दिन यह बड़ी होगी अपने पैरों पर खड़ी होगी उसके बाद भाषा पर बात करने के लिए बचेगा क्या?
भाषा का खेल दिन-रात चलता रहता है। इस तरह भाषा की आड़ में पूरी रात शिव का तांडव नृत्य चलता है। इस तांडव का सूत्रधार कौरवों की सभा का धृतराष्ट्र बंद आंखों से पूरी रात भाषा के नाम पर नए-नए तरीके इजाद करेगा और सुबह होने पर किसी समाचार पत्र में उसे प्रकाशित करके अपने परिश्रम का पारितोष दर्शक दीर्घा से मांगने के लिए लालायित रहेगा।
मदारी ने हमें बंदर और भालू की तरह ही नचाया है। क्योंकि हमने सिर्फ डुगडुगी की ध्वनि सुनी है। हमने आवाज के पीछे कारणों का अध्ययन नहीं किया।
मनुष्य स्वभाव से कर्मशील और परिश्रमी होने के साथ-साथ भीतर से धूर्त और चालाक भी होता है। स्वाभाविक गुण के विपरीत अगर वह जाता है तो वह कामचोरी या आलस्य न होकर नवाचार का एक रूप भी हो सकता है। जिसे चिंतन कहा जा सकता है और वह एकांत में बैठकर ही उपजता है।
एकांत व्यक्ति के व्यक्तित्व को योगी बना देता है तो अकेलापन व्यक्ति के व्यक्तित्व को भोगी बना देता है और जो जरूरत से ज्यादा चालाक होने के साथ-साथ धूर्त होता है वह स्वयं को रोगी बना लेता है। क्योंकि ऐसे व्यक्ति के भीतर की रोमानियत स्वाभाविक रूप से खत्म हो जाती है और रिक्त स्थान पर सम-सामयिक एवं प्रासंगिक विषय पर आधुनिकता के कलेवर में लिपटी धूर्तता और चालाकियाँ उत्सुकतावश मस्तिष्क के प्रकोष्ठों पर अपना आयाम विकसित कर लेती हैं। साथ ही चुनौतियों से लड़ने की प्रेरणा भी देती हैं।
समाज हमेशा की तरह स्वयं वर्ग निर्धारित कर लेता है। अकारण ही धूल को भभूत समझकर अपने मस्तक पर लगाने का जोखिम उठा लेता है । और ऐसे व्यक्ति जो अपने रोजमर्रा के कार्यों का डंका पीटने वाले, महज तारीफ और सभा/महोत्सव के केंद्रीय स्थान पर अपनी भूमिका बनाये रखें हेतु ऐसे कार्यों में संलिप्तता दर्शानें का कार्य करते हैं, ऐसे व्यक्तियों के प्रति अकारण अपनी प्रतिबद्धता दर्शाते हैं जो महज राई को पर्वत बना देती हैं ,कामचोर/निठल्ले को नेता बना देती हैं, जिसे भाषा की समझ न हो उसे भाषा का संरक्षक/ शिक्षक बना देते हैं। गली-नुक्कड़ पर भीख मांगने वाले बाबाओं को अपना आदर्श मानकर साधकता दर्शानें में सुखानुभूति का अनुभव करती हैं । आज का मनुष्य भौतिक सुविधाओं का गुलाम बनता जा रहा है। असंतोष, अलगाववादिता, उपद्रव, स्त्रियों को निर्वस्त्र कर घुमाया जाना, जातिगत समीकरण को लेकर नैतिक चरित्र को अपमानित किया जाना, वोट - नोट - चोट की राजनीति, क्रांतियांँ, आंदोलन, असमानता, विषमता, अनैतिकता, अत्याचार, अपमान, असफलताएं, अस्थितरता, अवसाद, वासना, चिंता, संघर्ष, अनिश्चित्ता, हिंसा और कई वाद यह सब मानवीय सभ्यताओं के नैतिक चरित्र और आचरण को अंदर से दीमक की तरह खोखला कर रहे हैं। तो वहीं व्यक्तिवाद, जातिवाद, भाषावाद, क्षेत्रीयतावाद, हिंसावाद, भाई-भतीजावाद, क्षणवाद, अस्तित्ववाद, आधुनिकतावाद, उत्तरआधुनिकतावाद, विभिन्न समसामयिक स्थितियों के चलते समाज में बहुभाषावाद एवं बहुसंस्कृतिवाद सभी वादों के समानान्तर चरित्रहीनतावाद अपने पैर पसार चुका है और मानवीय मूल्यों और अपनत्व को भीतर से घाव कर रहा है, जिससे मनुष्यों के नैतिक चरित्र का अवमूल्यन हो रहा है। व्यक्तित्व के सभी निर्णय और योग्यता के सम्पूर्ण साक्षात्कार एवं मापदंड अब व्हट्सएप्प विश्वविद्यालय में होते हैं।
क्रमशः......
© डॉ चंद्रकांत तिवारी
सोमवार, 7 अगस्त 2023
सागर किनारे - डॉ चंद्रकांत तिवारी - उत्तराखंड प्रांत
सागर किनारे सूरज पुकारे
रेतों के महलों पर
लहरों के साये
चंचल रश्मियांँ - बेसुध उर्मियांँ
यौवन युगल पर
स्मृति सजाये
वैभव का सागर
निज भावों की गागर
लहरों की गुंजन मृदंग बजाये
लौटी तटों पर कोमल करों पर
सहज सरलता कोमल तरलता
मातृत्व स्पर्श-सा स्नेह-प्यारा
कोमल हृदय से करती दुलारा
छूकर चरण तल देती सहारा
वैभव की जननी मिलती दोबारा ।
लहरों की धारा
डूबा क्षितिज पर
ओझल किनारा
लोहित गगन पर
रोहित किनारा
मैं निज खड़ा हूंँ
सम्मुख तुम्हारे
भूतल किनारे
तटबंध सारे
लहरें पुकारे
हम-तुम सहारे
सागर पुकारे
क्षितिज धरा पर
सारस्वत किनारे
मिलते रहेंगे
हम-तुम किनारे।
स्वरचित कविता -
© चंद्रकांत तिवारी
fb-Chandra Tewari
थलीसैंण - पौड़ी गढ़वाल - डॉ चंद्रकांत तिवारी - उत्तराखंड प्रांत
सुबह हो गई भोर तिलक-सा
प्रखर-रश्मियां स्वेत वसन-सा
मस्तक उज्ज्वल यश गाता है
विश्व मुकुट-सा हिमसागर सेमल
हिम-देवालय हेमल चमकाता है।
सिंधु धरा-सा दक्षिण सागर
उत्तर विश्व हिमालय सागर
मध्य हिमालय का रचना खंड
दिव्य भाल-सा उत्तराखंड।
बहती नदियों की जल धारा
करती कल-कल गंगा धारा
मानस -केदार की मीठी बोली
निर्झर-सी बहती दूधातोली।
दिव्य शिलाओं की चोटी से सूरज की किरणें अभिसार हुई
थलीसैंण के प्रांगण में मां सरस्वती की तान हुई
गूंँज उठी देवभूमि की धरती
पावन किरणें मनुहार हुई
ऊंँची पावन शीला पर दीबा देवी मंदिर की जयकार हुई ।
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चौंरीखाल |
उर्मि रश्मियां धीरे-धीरे चौरीखाल से आती हैं
शांत तिमिर-घाटी थलीसैंण को
पलभर में चमकाती हैं
ऊंँचे-अडिग चीड़ों के वैभव
देवदार की हरियाली
प्रहरी भूतल - गवाक्ष खड़े
निज प्रतिनिधि बीजों से बढ़े
श्वेत हिम शिखरों की लाली
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पूर्वी न्यार |
वसुधा बहती-पूर्वी न्यार
लहराती हरियाली खेतों में बाली
कंठ-शीतल कल-कल मृदु-मनुहार
क्षितिज परिधि थलीसैंण साकार
अपनी गंगा -पूर्वी न्यार ।
ऊंँचे पर्वत गांँव- गंगा की धार
हिमालय के गांँव ईगास-बग्वाल
थलीसैंण की घाटी-पौड़ी गढ़वाल
दूधातोली पर्वत की सांँझ निराली
बाघों के जंगल बांँझ-वृक्ष हरियाली
सड़कें छोटी सर्पीली - बर्फीली धार
पुण्य मिले यहांँ दीवा देवी बारंबार ।
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हंसेश्वर |
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हंसेश्वर |
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बिंदेश्वर |
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बिंदेश्वर |
हंसेश्वर-बिंदेश्वर शिव प्रदेश परिधि में मिलता
थलीसैंण की घाटी में किरण सूर्य-सा खिलता
दिव्य हिमालय की यह गाथा
ज्ञान मनोहर की अभिलाषा
कंकड़ कंकड़ यश गाता है
पर्वत का मानस पुत्र यहांँ
श्रम कण का बरसाता है
हे दिव्य हिमालय तेरी धरती
निज कोना-कोना गाता है
थलीसैंण की घाटी में सूर्य-कमल दल खिलता है
चौरीखाल के जंगल में बाघों का डेरा मिलता है
असंख्य खग कुल का वैभव यहांँ
निज दिव्य हिमालय ढलता है
सेमल-सा हेमलता हिम शिखरों का जल
जब धरा वसन मुख भरता है ।
है प्रखर ज्योति की उज्ज्वल आभा
नदियों की कलकल धारा
यह दुधातोली की पर्वतमाला
झरने का कलरव गाता है
थलीसैंण की घाटी-पौड़ी में
किरण सूर्य-दल खिलता है।
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दुधातोली |
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दुधातोली |
पावन रज किरणों का रथ
जब धीरे-धीरे आता है
थलीसैंण का दिव्य भाल
धीरे-धीरे चमकाता है।
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वीर चंद्र सिंह गढ़वाली |
वीर चंद्र सिंह गढ़वाली की यश गाथा है
मध्य हिमालय का भूखंड थलीसैंण कहलाता है।
ऊंँचे ऊंँचे शैल खंड वीरों का मस्तक ऊंँचा करते
कलकल बहती नदियांँ तन शीतल मन हरते।
मातृभूमि-पुण्यभूमि तेरी जय हो थलीसैंण यश गायेगा
विवेक-ज्ञान, यश-वैभव का सूर्य हिमालय लायेगा।
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थलीसैंण |
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थलीसैंण |
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थलीसैंण |
स्वरचित कविता -
डॉ. चंद्रकांत तिवारी
fb-Chandra Tewari
चिंतन से चिंता धीरे-धीरे घटती है- डॉ चंद्रकांत तिवारी - उत्तराखंड प्रांत
चिंतन से चिंता धीरे-धीरे घटती है
प्रभु दर्शन की प्यास सदा
धीरे-धीरे बढ़ती है
बाधाएं विपरीत आ जाएं
घनघोर घटाएं छा जाएं
वह चरण वंदना करता है
मन-चित्त में चिंतन करता है
क्या दुख उसका कर पाएगा
सब वक्त बुरा कट जाएगा
साहस और विश्वास की सीढ़ी क़दम-क़दम पर चढ़ती है
प्रभु चिंतन से सबकी चिंता धीरे-धीरे घटती है।
गुरुवार, 3 अगस्त 2023
भारतीय ज्ञान परम्परा : प्रारूप एवं भविष्य (निज व्यक्तित्व की तलाश) ©डॉ. चंद्रकांत तिवारी
भारतीय ज्ञान परम्परा : प्रारूप एवं भविष्य
(निज व्यक्तित्व की तलाश)
©डॉ. चंद्रकांत तिवारी
सारांश -
"द्वंद्व मिट जाता है
द्वैत खो जाता है
एकांत की समाधि में
परमार्थ मिल जाता है ।
स्वार्थ खो जाता है
ज्ञान निहितार्थ में
परमार्थ मिल जाता है
सूक्ष्म श्रम यथार्थ में
आत्म अंक विस्तार में
ज्ञान सत्य पदार्थ में ।"
ज्ञान परंपरा की वैचारिकी की मूलभूत संरचना की विचारधारा, परंपरा, आधुनिकता, नैतिकता, धर्म, संस्कृति, सभ्यता, संस्कार, जीवन-जगत की सभी कोटियों से समाहित होता, व्यवहारिक संवेदना का प्रकृतिवादी, मनोवैज्ञानिक, अनुभवजनित, अभ्यासरत परिणाम है। नकारात्मक ऊर्जा से सकारात्मक परिणाम का प्रभाव भी ज्ञान परंपरा को दिशा-निर्देश एवं शक्ति जारी करता है। सकारात्मक दृष्टिकोण से नकारात्मक ऊर्जा का विलोपन भी ज्ञान परंपरा की विरासत शक्ति का ही परिणाम है।
सृजनशीलता और नवीनता ज्ञान परंपरा के आधार स्तंभ हैं।
जीवन के यथार्थ दृश्यों को हम किस रूप में देखते हैं, किस रूप में महसूस करते हैं, महसूस करने के बाद क्या हम उन साक्षात दृश्यों/वस्तुओं से अपनेपन का लगाव रख पाते हैं? ऐसा लगाव जो हमें बार-बार अपनी ओर आकर्षित करता हो। हमारे मन की रिक्तता को पूर्ण करता हो। हमारे जीवन के अवकाश को इंद्रधनुषी रंगों से भर देता हो। हमारी विषम और कठिन बनती जा रही जीवनशैली को सरल और सहज बना देता हो। हमारी कम पड़ती श्वांसों के मध्य रक्त का संचार करता हुआ जीवन की लालिमा के नए दृश्यों को उभरता हो। यह संभव है कि हम अंतिम स्पंदन तक स्वयं से ही संघर्ष कर रहे होते हैं परंतु जो प्रकृति हमने अपने लिए निर्मित की है वह एक ऐसी दुनिया है जो दो सगे-संबंधियों के अकेलेपन से भरी हुई है। जैसे जीवन का संगीत रिक्त हो गया है जीवन की तलाश में भटकता हुआ कवि हृदय शून्य की परिधि पर घूम रहा हो। स्वयं के प्रश्नों में ही उत्तर को तलाश कर रहा हो। कवि हृदय कई सौ हृदयों का समुच्चय है। उसकी अभिव्यंजना और अभिव्यक्ति से पहले उसकी देखने की शक्ति स्पर्श और गंध के अनुभवों का साक्षात् बिंम होती है। हवाओं में तैरता हुआ संगीत कवि की सांसों में घुलमिल कर साकार हो जाता है। यह सब एकांत की वीणा से निकला हुआ नादमय संगीत है। जीवन का वास्तविक जयघोष है। यही गुरु परंपरा की लोक संस्कृति का उत्थान मंच है। यही गुरुत्व शक्तियों की गतिविधियों का आत्मिक दर्शन जो व्यष्टि से समष्टि और समष्टि से व्यष्टि एवं मानवता की जन्मभूमि की विकास यात्रा का अंतिम और प्रारंभिक प्रस्थान बिंदु है।
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इतिहास गवाह है साहित्य ने भौगोलिक एवं प्राकृतिक परिवेश से नया जीवन दर्शन प्राप्त किया है और मनुष्य ने अपनी प्रज्ञा के बल पर अंतरिक्ष में अन्वेषक को नया आयाम दिया है। ज्ञान दर्पण के बल पर गूंगे को जुबान, अज्ञान को ज्ञान, अनैतिक को नैतिकता, परंपरा को आधुनिकता के कलेवर में लिपटा हुआ यथार्थ चरित्र दिया है। जिसकी सीमाएं अनंत है। जो अंतरिक्ष के अपार बिंदुओं को भी स्पर्श कर लेता है। भविष्य के गर्भ से यथार्थ के पुष्प खिलाने की क्षमता रखता है। नैतिकता के आवरण में लिपटा हुआ भारतीय चरित्र सनातन संस्कृति का जयघोष प्रभु श्री राम की अनंत विरासत का ज्योतिपुंज स्वयं अपने ही ज्ञान दर्पण के प्रारूप में भविष्य के सपने देखने वाला प्रत्येक भारतवासी के ज्ञान की पाठशाला का नैतिक चरित्र, अपनी परंपरा में राष्ट्र की यश गाथा का नाम है। कहने को भारत है। रहने को भारत है। यश और कीर्ति की सोने की चिड़िया और देश और विदेश में अपनी ज्ञान परंपरा से विश्व गुरु का कीर्ति स्तंभ भी है।
भारत अपने चरित्र से संपूर्ण विश्व का आदर्श बिंदु है। अपनी ज्ञान परंपराओं से संपूर्ण विश्व का पथ प्रदर्शक है।अपने नैतिक आचरण से विश्व की आंँख का तारा है।अपने कट्टर शत्रु पाकिस्तान का भी प्यारा है। इसका रज- रज प्रत्येक भारतवासी को न्यारा है। इसीलिए कहते हैं कि अखंड भारत हमारा है। भारतीय ज्ञान परंपरा भारत की मिट्टी में रची बसी है इसका विशाल चरित्र इसकी मिट्टी में समाया है। यहां का जनमानस मिट्टी से भी संवेदनात्मक रिश्ता बनता है। इसीलिए भारत विविधताओं से भरा है। विभिन्न संस्कृतियों की परंपराओं ऐसा प्रारुप है जो अपनी प्रज्ञा की ज्ञानमाला को वैश्विक क्षितिज पर आधुनिकता और नवीनता के विविध आयामों को लेकर अजस्र बुद्धिमत्ता का जयघोषित स्थापित कर रहा है।
भारत में ऐसे कई ऐतिहासिक एवं सांस्कृतिक स्थल हैं जो भारतीय ज्ञान परंपरा के आदि केंद्र हैं। यहां सामाजिक, सांस्कृतिक एवं धार्मिक इतिहास से जुड़े कई महत्वपूर्ण स्थल भारत की विरासत का हिस्सा हैं। जिनमें नालंदा, राजगीर, बोधगया और वैशाली नगर और गौतम बुद्ध से जुड़े स्थल हैं। वही अन्य स्थलों में कुरुक्षेत्र, मथुरा, वाराणसी, प्रयाग, हरिद्वार, सारनाथ, अयोध्या, खजुराहों, साँची, अजन्ता और एलोरा, पुरी आदि भारत के पुरा ऐतिहासिक स्थल हमारी विरासत की धरोहर हैं एवं प्राचीन ज्ञान परंपराओं की भारतीयता का दैदीप्यमान ज्योतिपुंज - सा जयघोष भी। भारतीय ज्ञान परंपरा के धार्मिक केंद्रों में उत्तराखंड राज्य का विशेष महत्व है यहां आने वाले श्रद्धालु भारतीय संस्कृति का हिस्सा हैं।
भारत की सांस्कृतिक विरासत की पृष्ठभूमि बहु-आयामी और बहु-भाषी है। जिसमें भारत का महान इतिहास, विलक्षणता से परिपूर्ण भूगोल और अविष्कारों से भरा है। मानवीय सरोकारों का प्रामाणिक दस्तावेज सिन्धु घाटी की सभ्यता के दौरान बनी और आगे चलकर वैदिक युग में विकसित हुई, बौद्ध धर्म एवं स्वर्ण युग की शुरुआत और उसके सूर्यास्तगमन के साथ-साथ फली-फूली और खुद पल्लवित-पुष्पित हुई। इसके साथ ही पड़ोसी देशों के रीति-रिवाज़, परम्पराओं और विचारों का भी इसमें समावेश मिलता है। पिछली पाँच सहस्राब्दियों से अधिक समय से भारत के रीति-रिवाज़, भाषाएँ, प्रथाएँ और परम्पराएँ इसके एक-दूसरे से परस्पर सम्बंधों में महान विविधताओं का एक अद्वितीय उदाहरण देती आ रही हैं।
ज्ञान का प्रारंभिक द्वार और प्रथम केंद्र है वाणी। वाणी का प्राथमिक अनुशासनात्मक व्यवहार है व्याकरण। ज्ञान की इसी परंपरा में पाणिनि ने दुनिया का पहला व्याकरण लिखा है। यास्क द्वारा भाषा के अनुशासनात्मकता पर निरुक्त लिखा गया है। पतंजलि ने योगसूत्र व भाषा अनुशासन लिखा है। योग विज्ञान वैज्ञानिक है एवं वैश्विक है। कौटिल्य का अर्थशास्त्र वैश्विक है। आचार्य वात्स्यायन का कामसूत्र, भरतमुनि का नाट्यशास्त्र तो इसी ज्ञान परंपरा में चरक और सुश्रुत संहिताएं आयुर्विज्ञान के रूप में प्रतिष्ठित एवं वैश्विक हैं। प्राचीन भारत ने दर्शन, ध्वन्यात्मक भाषा विज्ञान, अनुष्ठान, व्याकरण, खगोल विज्ञान, अर्थशास्त्र, सांख्य दर्शन सिद्धांत, तर्क़ दर्शन, जीवन दर्शन, आयुर्वेदिक चिकित्सा, ज्योतिषीय ज्ञान एवं संगीत शास्त्र विभिन्न विषयों को लेकर ज्ञान और परंपरा की खोज में शोधार्थियों एवं तत्व चिंतन करने वाले साधकों ने असाध्यवीणा को साधने में अपना संपूर्ण जीवन लगा दिया। सुखी मानवीय जीवन यात्रा की विरासत को अपनाने के लिए, तत्त्व चिंतन करने वाले विद्वानों द्वारा अनुसंधान किए गए। अणुबम से लेकर परमाणु बम तक शिक्षा, चिकित्सा और कृषि में नए-नए प्रयोग एवं नए-नए आविष्कार किए गए। प्राचीन सभ्यता एवं गुरुकुल परंपरा द्वारा मिलने वाला ज्ञान आज प्रायोगिक रूप में मशीनीकरण के द्वारा प्राप्त किया जाने लगा। प्राचीन काल से मध्य हिमालय की विरासत की परिधि में बैठकर वर्षो ऋषि-मुनियों द्वारा तपस्या की गई। तब जाकर मानव सभ्यता की विकास यात्रा का प्रारंभ, ज्ञान की चिंतन धाराओं का अजस्र स्रोत, हिमालय से बहने वाली नदी की धाराओं के समान जनमानस के हृदय को भीगोता हुआ मानव कल्याण की दिशा में अग्रसर हुआ।
प्राचीन ग्रंथों में ही जीवन का नवीनतम अभिनय प्रयोग है। बढ़ती मानवीय सभ्यता और विस्तृत होता आधुनिक जनमानस इस बात की अपेक्षा रखता है कि युगों-युगों से प्राचीन परंपराओं का ज्ञान-विज्ञान आज के प्रत्येक व्यक्ति की जीवन शैली के लिए, उसके रहन-सहन और उसके व्यवहारिक पक्ष के लिए, सामाजिक आचरण के साथ-साथ धार्मिक एवं सांस्कृतिक परंपराओं से जोड़ते हुए मानवीय सभ्यता के आत्मिक मिलन और नैतिक आचरण के लिए अत्यंत आवश्यक है।
वेदों में जीवन रस है। आनंद की विकास यात्रा का अमृत कलश है। वेद इस बात के प्रमाण हैं कि नियति और परंपरा के बीच ज्ञान-विज्ञान अपना क्या महत्व रखता है? विज्ञान ज्ञान से किस प्रकार भिन्न है? चरित्र नैतिकता से किस प्रकार जुड़ा हुआ है? दृष्टि किस प्रकार से सृष्टि से जुड़ी हुई है? व्यष्टि किस प्रकार से समष्टि से जुड़ी हुई है? साधारण व्यक्तित्व असाधारण कैसे बन जाता है? विशेष व्यक्ति सामान्य भाव भूमि पर कैसे अवतरित होता है ? लोक रंजक और लोकप्रिय कैसे बन जाता है? कैसे सबके हृदय का कंठहार बनते हुऐ सबकी आंँखों का नेत्र बिंदु बन जाता है? यह चिंता से आनंद की विकास यात्रा का प्रतिफल है। वेदों, उपनिषदों में जीवन रस है और वेदांग में जीवन का सार।
अपने निजी चरित्र से व्यक्तित्व तब उठता है जब अपने संस्कारों से अपनी ही संस्कृति के गले में सभ्यता का निष्कलंक हार चढ़ाता है। सभ्यताओं ने संस्कृति को हमेशा ही आदर दिया है। सत्कार किया है। संस्कृति के नैतिक चरित्र को मनोबल दिया है, तो वहीं दूसरी ओर संस्कृति ने सभ्यता को हृदय मंदिर में निवास दिया और संस्कार पर्वत की ओर अग्रसारित करते हुए विस्तृत हिमालय के श्वेत मस्तक को सूर्य की किरणों से सुशोभित कर मानव सभ्यता को उठना सिखाया है । यही भारतीय ज्ञान परंपरा की विरासत है। यही प्रज्ञा की योग समाधि । जनमानस की चिंता का प्रतिफल और ऋषि मुनियों की तपस्या का आध्यात्मिक अंश भी । जिसने स्वभाविक चिंतन परंपरा को प्रकृति के नैसर्गिक परिवेश के मध्य में जीवंत रखते हुए मानवीय संबंधों की कांवड़ यात्रा को स्थापित किया। दीपों के त्योहार और रंगों के उत्सव को, रक्षा के धागों को, नदी घाटों, तटों और सूरज, चांँद की उपासना पद्धति को, हृदय मंदिर में स्थान दिया। पत्थर में भगवान के दर्शन, बहते पानी को गंगा मांँ की संज्ञा देकर मनुष्य के नैतिक आचरण को भारतीयता के रंग में भिगो दिया है । यह भारतीय ज्ञान परंपरा का विस्तार है। अतीत के काल खंडों से सौभाग्य का ज्ञान कुंज है। जिसके लिए विदेशी व्यक्ति भी भारत भूमि में जन्म लेना अपना सौभाग्य समझता है। ऐसे भारत को विभिन्न नामों से जम्बूद्वीप, भारतखण्ड, हिमवर्ष, अजनाभवर्ष, भारतवर्ष, आर्यावर्त, हिन्द, हिन्दुस्तान और इंडिया समय-समय पर कहते हुए यहांँ के लोकमानस द्वारा हृदय में स्थान दिया गया। विभिन्न जातियों का मेल, विभिन्न संप्रदायों का मेल, ज्ञान की सीमा से परे, अपनत्व की भावना में समाया हुआ, एक ऐसा आत्मिक सागर बन गया जिसके उच्च शिखर पर ज्ञान परंपरा अपना विजयोत्सव एवं विजय पताका फहरा रही है। भारतीय ज्ञान परंपरा का यही अमर संगीत है।
भारत में ऋग्वेद लोकमंगल हितैषी ज्ञान परंपरा है। ज्ञान हिमालय-सा पवित्र विषय रहा है। ज्ञान सभी रहस्यों का उद्घाटन करता है। अंधेरे को चीरने के समान ज्ञान अपनी परंपरा का निर्वहन करता आया है। अपनी निजता की आहुति का अंशदान करता है। ज्ञान से धर्म-कर्म की रक्षा होती है। मनुष्य अपने भीतर के अहं साधता है। ज्ञान से ही अर्थ, काम और मोक्ष का त्रिकोण मिलता हैं। पाणिनि, पतंजलि, कौटिल्य, वात्स्यायन, भरतमुनि, चरक, सुश्रुत, आर्यभट्ट, वराहमिहिर आदि सभी विद्वान अपने पूर्ववर्ती आचार्यों का उल्लेख करते हैं। भारतीय अखंड ज्ञान परंपरा का परिचय देते हुए उसके प्राथमिक प्रारूप को निर्मित करते हैं।
भारत की सर्वोच्च शैक्षणिक संस्थाओं द्वारा जैसे यूजीसी ने नई शिक्षा नीति के अनुसरण को अपनाते हुए भारत की ज्ञान परंपरा को छात्र-छात्राओं, अध्यापकों के लिए मार्गदर्शी बताया है। चरित्र के निर्माण में सहायक एवं नैतिक आदर्श का केंद्र बताया है। भारतीय चिंतन शिविर को भारतीय सनातन संस्कृति एवं ज्ञान परंपरा के मूल से जोड़ने का कार्यक्रम बनाया है। ज्ञान का लक्ष्य केवल सूचना उपलब्ध कराना नहीं है अपितु ज्ञान, विज्ञान और दर्शन, इच्छा, भाव और कर्म सभी मिलजुल कर विश्व कल्याण की मंगल कामनाओं का सार्वभौमिक हित निर्मित कर रहे होते हैं।
वैदिक कालीन ज्ञान दर्शन-परंपरा मानवीय जीवन का स्वर्णिम उदय काल है। उत्साह, जिज्ञासा, जिजीविषा, जीवन का यथार्थ प्रश्नपत्र है। ऐसे प्रश्नपत्र के उत्तर लिखने के लिए मन-मस्तिक सदा चिंतनशील और तर्कशील बना रहे, इसके लिए निज व्यक्तित्व को सदा ज्ञान की विभिन्न कोटियों से परिष्कृत करते रहना ही अपनी सनातन धर्म संस्कृति का उचित निर्वहन करना है। ज्ञान की प्राप्ति के लिए व्यावहारिक और मनोवैज्ञानिक अनुभव तो संचारी भाव के समान हैं। परंतु जीवन की वास्तविक प्रज्ञा तो स्थायी भाव के रूप में रहस्यमयी स्थिति में रसमय होकर अनुभूति की अभिव्यक्ति और अभिव्यक्ति की अनुभूति स्वत: ही दिलाता रहता है। जीवन-जगत की स्थितियां तो उद्दीपन के रूप में अपना नैसर्गिक दृश्य बदलती रहती हैं। भारतीय ज्ञान परंपरा का वैचारिक ढांचा रस की मूलभूत निजता का मनोवैज्ञानिक आधार है। जिसका केंद्र मस्तिक से होकर स्नायु तंत्र तक लघु सरिता की तरह जीवन सरिता के विस्तृत आयाम पर बहता हुआ दिशा तय करता है। जिसका प्रकृति प्रदत्त एक आधार है। वह निराधार कैसे हो सकता है। ज्ञान की वास्तविक परंपरा और प्रारूप मनुष्य हृदय में विराजमान है। वह तो सहृदय की अभिव्यक्ति है। कवि हृदय की अनुभूति है। लोकमानस की विचारधारा है। और कह सकते हैं कि यह सभी सशक्त ज्ञान के उपकरण मात्र हैं। ज्ञान दर्शन की वैश्विक परंपरा ऋग्वेद सहित समस्त वैदिक संहिताओं, ग्रंथों में विश्व की पहली ज्ञान परंपरा का पोर्टफोलियो है।
भारतीय ज्ञान परंपरा में गुरुकुल शिक्षा के प्रमुख आधार केंद्र थे। शिक्षार्थी अठारह विद्याओं – छः वेदांग, चार वेद (ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद, अथर्वेद), चार उपवेद (आयुर्वेद, धनुर्वेद, गन्धर्व वेद, शिल्पवेद), मीमांसा, न्याय, पुराण तथा धर्मशास्त्र का अर्जन गुरु के निर्देशन में ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए अनुष्ठानपूर्वक अभ्यास कर अध्ययन करते थे। प्रशिक्षणार्थियों एवं विद्यार्थियों को ऐसे अध्ययन से मिलने वाला ज्ञान आजीविका निर्वहन के साथ-साथ कौशल विकास एवं व्यक्तित्व विकास में सहायक बना और इन ग्रंथों के अध्ययन से नेतृत्व कौशल विकसित हुआ। भारतीय ज्ञान परंपरा का देश-विदेशों में प्रचार-प्रसार हुआ।
त्याग, तपस्या, निज व्यक्तित्व की समाधि से निकलने वाला जीवन रस अमृत की बूंदों के समान गुरु ज्ञान की परंपरा का आधार बना। धन लोभ से परे वृत्तिसम्पन्न तथा धन की तृष्णारूपी नैसर्गिक प्रवृत्ति से परे आचार्य एवं कुलगुरू ही शैक्षिक भारतीय ज्ञान परंपरा पद्धति में शिक्षक माना गया है।
भाषा के लिखित रूप जिसमें शिक्षा, चिकित्सा और कृषि पर आधारित ग्रंथ हमें विरासत के रूप में प्राप्त हुए हैं। पुरातनपंथी यह ज्ञान परंपरा मनुष्य का मार्ग निर्देशन कर रही है। अप्रतिम, अमूल्य, अनवरत, अक्षुण्ण भारतीय ज्ञान परंपरा में वेद ग्रंथों को, पुराण ग्रंथों को अप्रतिम माना गया है। प्राचीन काल में गीत, संगीत, चित्रकला और स्थापत्य सहित सभी ज्ञान-विज्ञान के अनुशासनात्मक क्रिया कलाप आधुनिक परिवेश के लिए एक प्रारूप का निर्माण करते हैं। कमोबेश यह देखने में आया है कि काल परिस्थितियों के यथार्थवादी प्रवाह में यह ज्ञान परंपरा अपनी वास्तविक जड़ों से टूट-सी गई हैं। कहीं ना कहीं एक सनातन पद्धति में कुछ बिखराव सा आ रहा है। जिसे आज शोधात्मक दृष्टि से देखने की आवश्यकता है। व्यवहारिक जीवन में धारण करने की महत्वपूर्ण उपादेयता भी सनातन ज्ञान परंपरा की शक्ति को बचाए रख सकती हैं।
ऋग्वेद संपूर्ण कलाओं से भरा पड़ा है। संगीत की कला में सामवेद उत्कृष्ट कोटि का है। यजुर्वेद में सौंदर्यपूर्ण छंदों का अप्रतिम विधान निर्मित है। अथर्ववेद तो पूरा सांसारिक गतिविधियों का गठजोड़ है। भारत में सौंदर्य शास्त्र की हजारों वर्ष पुरानी ज्ञान परंपरा है। भारतीय ज्ञान परंपरा अद्वितीय ज्ञान और प्रज्ञा का प्रतीक है जिसमें ज्ञान और विज्ञान, लौकिक और पारलौकिक, कर्म और धर्म तथा भोग और त्याग का अद्भुत समन्वय है। यही हमारी ज्ञान परंपरा का मूलभूत और स्थाई प्रारूप है। जिसमें भविष्य के सुनहरे, विविध आयामी दृष्टिकोण व्याप्त हैं। यह तो हम मानवों की नैसर्गिक प्रवृत्ति है कि हम कहां से कितना ज्ञान प्राप्त करते हैं। प्राचीन का कितना अनुसरण हम अपने नवीन जीवन में धारण करते हैं। यह देश गुरु परंपरा का देश रहा है। यहां प्राणों से बढ़कर रक्त का मूल्य चुकाया जाता है। भारतीय ज्ञान पद्धति, वैश्विक परंपरा की परिधि की विशाल जीवन यात्रा है। कल, आज और कल इसका प्रारूप और भविष्य यहां की मिट्टी और भौगोलिक परिवेश यहां की संस्कृति और यहां के धार्मिक आचरण में दिखता है।
भारतीय चिंतन परंपरा को ढूंढने के लिए किसी पद एवं प्रतिष्ठा की कोई अभिलाषा नहीं होनी चाहिए। अगर उस चिंतन परंपरा को यथार्थ के धरातल पर ढूंढना है तो व्यक्ति एवं मानव सभ्यता को स्वयं के भीतर अपने ईश्वर को तलाश करना होगा। वह किसी रण क्षेत्र में नहीं मिलेगा और नहीं देवालय में मिलेगा। मंदिर, मस्जिद, गिरजाघर में नहीं मिलेगा। यह कोई वेद ग्रंथ या कुरान बाइबल या गुरु ग्रंथ साहब, अगर वह चिंतन परंपरा हम सबको प्राप्त होगी तो हमारी स्वयं की आत्मा एवं हमारे मन के भीतरी आवरण चित्र में दिखाई देगा। कहा भी गया है कि ईश्वर कण कण में विराजमान है। हिंदी साहित्य का भक्ति काल और संतों की आदि परंपरा जिसमें निर्गुण और सगुण दोनों ने ही अपने-अपने स्तर से अपने आराध्य देव को अपने स्वयं के भीतर ढूंढने का प्रयास किया। यही भारतीय चिंतन परंपरा का मूल है। जिससे अनपढ़ और बड़ा ज्ञानी व्यक्ति कबीर घट- घट में प्राप्त करता है। बंद आंखों से जिसे सूरदास जैसी कविता बाल लीलाओं का वर्णन करती है। प्रेम की पीर में मग्न कवि मलिक मोहम्मद जायसी जिसके मूल के अर्थों में ही स्वयं को पाता है और लौकिक-अलौकिक की जिज्ञासाओं को समझने का प्रयास करता है। स्वयं अपने को दास भाव से समर्पित पूजा अर्चन करने वाला कवि तुलसीदास प्रभु श्री राम के दिव्य अलौकिक रूप को रामचरित्र मानस में साकार करता है। यह सब भारतीय परंपरा का चिंतनीय विकास ही तो है। जिसे आधुनिक काल में कवि जयशंकर प्रसाद चिंता से आनंद लोक की अमर यात्रा का वर्णन करते हुए अपनी चिंतन परंपरा को समझने एवं समझाने का प्रयत्न कर रहे हैं। संपूर्ण हिंदी साहित्य भी अतीत एवं वर्तमान के काल खंडों से होते हुए सतत विकासात्मक नदी की तरह भारतीय चिंतन परंपरा के कई विविध आयामों को रेखांकित करता हुआ बढ़ रहा है।
गीता में कर्म योग का संदेश मनुष्य को भौतिक जगत में जीने की प्रेरणा देता है। आज संपूर्ण समाज के समक्ष अगर कोई व्यक्ति बुरी आत्माओं की परिधि में स्वयं कैद हो जाता है तो गीता का संदेश उसका मार्गदर्शन तय करता है। यह वही संदेश है जो अर्जुन जैसे गांडीवधारी वीर धुरंधर योद्धा को रणक्षेत्र में अग्निकुंड के समान वीर पुरुष बना देता है। यह भारतीय चिंतन परंपरा का ही ज्वलंत प्रमाण है कि व्यक्ति लक्ष्य विहीन होने के बावजूद भी सकारात्मक जीवन दृष्टि को धारण करते हुए अपने लक्ष्य को प्राप्त करने में सक्षम होता है। यह साधारण बात तो है परंतु इस साधारण बात के भीतर भारतीय चिंतन परंपरा की असाधारणता गहराई से अपनी जड़े जमाई हुई है।
भारतीय ज्ञान परंपरा की इस पद्धति को आज विश्वविद्यालय स्तर पर अपनाने की महत्वपूर्ण आवश्यकता है। ज्ञान विचारधारा का विषय नहीं है। विचारधारा ज्ञान का विषय हो सकता है। ज्ञान किसी भी व्यक्ति के मस्तिष्क के भीतर राजमुकुट-सा जड़ित, चमकते हिमालय की तरह, हीरे के समान है। आज जहांँ लोभ एवं अपराध दिन-प्रतिदिन बढ़ता जा रहा है, मनुष्य स्वभाव से ही लालची है। ऐसी स्थिति में भारतीय प्राचीन ज्ञान परंपरा का अनुसरण एवं शिक्षण विद्यालय एवं विश्वविद्यालय का आधार बने, यह अत्यंत आवश्यक बन जाता है।