मानव सभ्यता का इतिहास रचनात्मकता एवं नवाचारों से भरा है। रचनात्मकता प्लेटो के अनुकरण सिद्धांत की परिधि से गुजरते हुए अरस्तू के अनुकरण सिद्धांत का पुनर्सृजनवादी नवाचारिक दृष्टिकोण है।जो कल्पना के यथार्थ को पुनर्जीवित करता रहता है। साथ ही कल्पना की शक्ति, नई-नई उद्भावनाओं के साथ मानव मन को सक्रिय एवं ऊर्जा से परिपूर्ण करते हुए निरंतर चिंतनशील बनाती है और समाज के लिए अमूल्य-उपहार उपलब्ध कराती है। कल्पना की सबसे बड़ी शक्ति यही है कि कल्पनाशील व्यक्ति सीमित संसाधनों में साधारण होते हुए भी असाधारण कार्य कर जाता है और यह सकारात्मक-चिंतन सृजन के साथ-साथ प्रकृति का पुनर्सृजन भी है।
इस महाकालेश्वरी-धरणी पर सृजन-पुनर्सृजन-विसर्जन की प्रक्रिया निरंतर-नित-नित और अनवरत चलती रहती है। कल्पना का मिश्रण सभी में रहता है।
मनुष्य सृजन और विध्वंस का महापिण्ड है। सृजन में कल्पना का मृदुरस मिल जाये तो समग्र प्राणी-जगत अपनी रचनात्मकता से धरा पर नूतन स्वर्ग स्थापित कर देगा और अगर मन कल्पना की सीमाओं का अतिक्रमण करते हुए उसकी शक्ति का तिरस्कार करे और अपने निज स्वार्थ के लिए संपूर्ण प्राणी-जगत को चिंता के महाचक्र में धकेल दे तो यह धरती के विनाश की भयावह त्रासदी होगी साथ ही वर्तमान का विसर्जन होगा। क्योंकि चिंता और चिंतन दोनों ही मन की विपरीत स्थितियाँ है।
कमजोर बड़ा मानव का मन
चिंता-चिंता का शोर है
चिंतन-अभिमुख विभ्रांत-पथिक
सृजन-पथ की सुंदर भोर है
एकांत के हाथों में रख हाथ
क्या पुनर्सृजन का भी कोई अंतिम छोर है
उठ सुन प्रकृति की वैभव-तान
कल्पना की जो विभ्रांत-डोर है।
आत्म-चिंतन की वैतरणी का बुद्धियुद्ध-सा
जीवन की कोमल अभिलाषाओं का
क्षितिज के मुहाने पर चमकता अंतिम विभोर है।
©डाॅ0चंद्रकांत तिवारी
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