किस मिट्टी के बनते हैं दीये
जो रोशन करते हैं
अंधेरे घर को
झोपड़ी को
और चौखट को
खुशियों से भरते हैं।
किस मिट्टी के बनते हैं दीये
किस मिट्टी के बनते हैं खिलौनें जो बिकते हैं बाजारों में
मोल-भाव होता है खरीददारों में
बचपन से बचपन की दूरी को बांटते हैं
उमंगों के रंगों को छांटते हैं
कहीं बनते हैं शोभा
किसी पूंजीपति के बेडरूम की
कहीं टूटकर जाते हैं बिखर
बचपन के सवालों में।
किस मिट्टी से बनते हैं भगवान
किन-किन हाथों से बनते हैं भगवान
किन-किन हाथों में बिकते हैं भगवान
मोल-भाव होता है हर धर्म के बाजारों में
बिक जाते हैं भगवान खरीददारों में
घर के मंदिर की शोभा बन जाते हैं भगवान
कई चौराहों पर दिख जाते हैं भगवान
कहीं हाथों को जोड़ते दिख जाते हैं इंसान
अपने दुख को सुनाते रो-पड़ते हैं इंसान
सब देखकर भी चुप हो जाते हैं भगवान
मिट्टी के भगवान
सबके अपने-अपने भगवान
कहीं छोटे तो कहीं बड़े
पत्थर की चारदीवारी में
खड़े-बैठे और लेटे हैं भगवान
दीये, खिलौनें और भगवान सब मिट्टी की संतान
अंतर-मतभेद रंगों का
कुछ लिपटे-महंगे रंगों-लिबास
कुछ सिमटे आभूषणों में बेहिसाब
कहीं घीं के दीयों की रौनकें
कहीं बुझते कगारों की आग के दीये
कहीं श्मशानों में बेहिसाब जलते चिरागों के दीये।
मिट्टी भी कैसी-कैसी होती है
जिस सांचे में डालो ढल जाती
है
मां की तरह
पक कर अंगारों में ढल जाती है
प्यासी पथराई आंखों की तरह
हां मां की तरह।
मिट्टी तुम मिट्टी ही रहना
अपनी महक और ताज़गी में
मां के आशीर्वाद की तरह
जल से-जंगल से-पेड़ों की जड़ों से
कभी जुदा ना होना
मेरी भाषा से-मेरे अपनों से
दीया बनकर बाती संग
आलोकित करना पथ के पथिक का पथ ।
© डॉ. चंद्रकांत तिवारी
fb-Chandra Tewari
May 2021
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