"भाषा का उदय और विस्तार"-
जब समाज में विश्रृंखलता उत्पन्न होकर उसकी गति को अवरुद्ध कर देती है, चारों ओर अव्यवस्था का साम्राज्य छा जाता है, विरोध रूपी दानव का ताण्डव सर्वत्र दृष्टिगोचर होने लगता है, परिणामत: सामाजिक, धार्मिक,राजनैतिक,नैतिक एवं सांस्कृतिक मूल्यों में शैथिल्य आ जाता है। उसी समय परिस्थितियाँ किसी एक ऐसी भाषा को जन्म देती हैं जो संपूर्ण विरोधी तत्वों एवं गतिरूद्धता के निमित्तों का परिष्कार करके उसमें पारस्परिक सहयोग और समानता/समंवयता उत्पन्न करती है ।
भाषा रेत की तरह है, जिसे मुट्ठी में संभालकर नहीं रखें तो फिसल जाऐगी। निस्संदेह भावों तथा विचारों का प्रकटीकरण ही भाषा है। भाषा सामाजिक वस्तु है। इसका प्रवाह अविच्छिन्न है। यह सर्व-व्यापक है।सम्प्रेक्षण का मौखिक साधन है ।भाषा अर्जित वस्तु है,क्योंकि यह व्यवहार द्वारा अर्जित की जाती है । भाषा सहज और नैसर्गिक क्रिया है।सामाजिक दृष्टि से इसका स्तरीयकरण होता है। यह परिवर्तनशील है क्योंकि यह संयोगात्मकता से वियोगात्मकता की ओर उन्मुख होती है।भाषा स्थिरीकरण और मानकीकरण से प्रभावित होती है। यह पहले उच्चरित रूप में परिवर्तित होती है ।स्वतंत्र ढाॅचा लिए भौगोलिक रूप से स्थानीयकृत होती है। इतना सब होने के बावजूद भी भाषा में न जाने कितनी अर्थों की पर्तों का समागम होता है। न जाने कितने गूढ़ भावों का समंदर हिलोरें लेता रहता है। भाषा तो कवि हृदय की प्रेमिका का नयन बिंदु है। नायिका के अंग-अंग की उज्ज्वल आभा है। नेता का कलात्मक भाषण है तो अभिनेता का सचित्र रंगमंचीय मुद्राओं सहित नृत्य है। यह तो आलोचक की कलम से निकला मोती है, और पत्रकार की लेखनी का ज्वलंत मुद्दा है। कहना न होगा कि यह भारतवर्ष के हिंदी विभाग द्वारा शिक्षित शोधार्थी बेरोजगार की मन की भड़ास है। फिर भी भाषा शिक्षक के लिए यह उसके पुत्र के समान है। हिंदी भाषा के संदर्भ में यह जन समूह के हृदय का विकास है। तो उसके शिक्षण के संदर्भ में संपूर्ण धरती पर बीजारोपण के समान है।
चन्द्रकान्त तिवारी
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