*प्रकृति का पुनर्मूल्यांकन-*
©चंद्रकांत
संपूर्ण ब्रह्मांड में एक से बढ़कर एक ग्रह, नक्षत्र उपग्रह मौजूद हैं। इन सबके बीच हमारी पृथ्वी भी अनोखी और कई रहस्यों को अपने गर्भ में समेटे हुए है।
प्रकृति हमारी कल्पनाओं से भी कहीं अधिक सुंदर एवं मनभावन है। हमारी कल्पनाओं का क्षितिज तो बहुत सूक्ष्म एवं अल्पजीवी है। परंतु प्रकृति की सुंदरता समय के प्रत्येक पल के साथ बदलती रहती है। कई रंगों का समूह इसकी सुंदरता और रहस्य को गुणात्मक रूप में बढ़ाता रहता है।
प्रकृति अमूल्य है। इसकी प्रत्येक घटना एक संकेत है।
हमें इसका मूल्य पहचानना होगा। प्रकृति प्रेमी बनने की पहली शर्त पर्यावरण के प्रति समर्पण और सौहार्द्र की भावना होनी चाहिए। हम जिस समाज में रहते हैं वह चारों ओर से प्रकृति के सुंदर दृश्यों से घिरा हुआ है। जीव-जंतु, पशु-पक्षी वृक्ष-लताएं, फल-फूल, जल, जमीन, जंगल कुल मिलकर एक ऐसा प्राकृतिक परिवेश का निर्माण करते हैं जो हमारे जीवन के स्तर को जीने योग्य बनाता है। हम सब प्रकृति की ही संतान हैं। प्राकृतिक परिवेश में ही हम जन्म लेते हैं और अंततः अपने जीवन की विकास यात्रा को प्रकृति में ही समाहित करते हुए पुनः प्रकृति की गोद में नए बीज की तरह अंकुरित हो जाते हैं। कुल मिलाकर हम प्रकृति और इसकी परिधि से कभी अलग हो ही नहीं सकते हैं। प्रकृति हमारी सांसों में निरंतर गतिशील होते हुए हमें जीवन जीने की कला सिखाती है। प्रकृति हमें एक ऐसी शिक्षा देती है जो जीवन भर सतत-अनवरत और निरंतर गतिमान रहती है। प्रकृति की शिक्षा और प्रकृति का व्यवहार गुणात्मक फल कारक है। हम स्वयं परस्पर तो अलग हो सकते हैं परंतु प्रकृति से हम कभी भी अलग नहीं रह सकते। क्योंकि प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से हमारा जीवन प्रकृति की ही देन है।
सूर्य से हमें ऊर्जा मिलती है और चंद्रमा से शीतलता मिलती है। आकाशीय नक्षत्र हमारे ग्रह चाल के दिशा निर्देशक हैं। रात्रि विश्राम की स्थिति तो भोर का उजाला जीवन की नई दिशा है। वायु हमें प्राणवायु का बीज मंत्र देते हुए निरंतर पल्लवित, पुष्पित और प्रफुल्लित करती रहती है और ताजगी से परिपूर्ण बनाए रखती है। मिट्टी की महक हमें अपनी जड़ों से जोड़ें रखती है। प्रकृति की कोई भी वस्तु अकारण नहीं है। हर वस्तु का स्थान, समय और स्थिति सुनिश्चित है और मानवता के हितार्थ है। परंतु मनुष्य ही अपनी स्वार्थ-सिद्धि के लिए इस पारिस्थितिक चक्र को बिगाड़ने में तुला है। स्थिति ऐसी है कि जिस डाल पर मानवता बैठी है उसी डाल को अपनी कुछ स्वार्थ की पूर्ति के लिए कुल्हाड़ी से काट रही है।
हम कैसे भूल सकते हैं कि हमारे आराध्य देव, हमारे पूज्य देवी देवता भी तो प्रकृति से ही जुड़े हुए हैं। कैलाश पर्वत से लेकर क्षीरसागर, महासागर, नदी, तालाब, पोखर, जलाशय, ऊंचे घने जंगल, वृक्ष-लताएं, कंकड़-पत्थर, फल-फूल, पत्थर की मूर्तियों सभी तो प्रकृति के उपमान हैं। हमारे तीज-त्योहार सब प्रकृति की ही तो देन है। हम जन्म से ही प्रकृति से जुड़े और प्रकृति ही हमारे अंतर्मन में विराजमान है। कभी देवता बनकर कभी दानव बनकर तो कभी अतिमानव बनकर हमें जीवन जीने के नए-नए तौर-तरीके सिखाती है। तो दूसरी ओर जीने की प्रेरणा भी देती रही है। मानव सभ्यता की सार्थकता इसी बात में निहित है कि प्रकृति के विकास के साथ-साथ उसका भी विकास होता आया है। यह एक ऐसा संतुलन है जो तराजू के दोनों हिस्सों को समान परंतु मानवता के हितार्थ समर्पित बनाता है।
परंतु आज आधुनिक परिवेश की स्थिति कुछ और ही बयां करती है। जिस वैश्विक जगत में हम रहते हैं वह विकास के चक्रवात में फंसता जा रहा हैै। हम अपनी वास्तविक जन्मभूमि, मातृभूमि से अलग होते जा रहे हैं। गांव के गांव खाली होते जा रहे हैं। भाषा, साहित्य, संस्कृति सभ्यता के अखाड़ेबाजी में दम तोड़ रही है। परमार्थपरायण से बढ़कर भी मनुष्य के स्वार्थ हैं। ऐसे में प्रकृति की ओर अपनापन कहां रह जाता है? जिस पर्यावरण को लेकर ऊंचे-ऊंचे मंचों पर बड़ी-बड़ी बातें, बड़ी-बड़ी योजनाएं मन बहलाने के लिए होती हैं वह पर्यावरण प्रकृति से मनुष्य को दूर कर रहा है। ऐसी पर्यावरणीय योजनाओं एवं दावों में विकास तो है परंतु वृद्धि नहीं। जीवन तो है परंतु जीवन जीने की कला नहीं। बनावटी रंग तो हैं परंतु फूलों-सी कोमलता नहीं। दिखावा तो है परंतु सहजता नहीं। किराए की जिंदगी है परंतु अपनापन नहीं। गति तो है परंतु गहराई नहीं। कह सकते हैं कि एक लंबे सफर पर निकल चुके हैं। परंतु न लक्ष्य दिखता है न मंजिल दिखती है और न ही गंतव्य पर पहुंचने की कोई खुशी होगी। बस चलते ही जाना है एक अंधेरे और सुनसान जंगल से गुजरने वाले रास्ते पर।
शिक्षा, चिकित्सा और कृषि तीनों ही प्रकृति की देन हैं। हमें इस नियामक दिन को पहचानना होगा जिसे हम पर्यावरण दिवस के रूप में मनाते हैं। हमें अपनी शिक्षा व्यवस्था में स्थानीय संसाधनों के अनुसार बदलाव करने होंगे। हमें ऐसी शिक्षा व्यवस्था को निर्मित करना होगा जो प्रायोगिक एवं व्यावहारिक स्तर पर हमें प्रकृति के विविध रूपों, उपमानों से अपनापन बनाए रखने में सक्षम बनाएं। पर्यावरणीय अध्ययन के सूत्र एवं उद्देश्य कक्षा-कक्ष शिक्षण तक ही सीमित नहीं होने चाहिए। यह सिद्धांत से अधिक व्यवहार का विषय है। यह तो प्रायोगिक विषय क्षेत्र है। इसे खुले आकाश के तले व्यावहारिक एवं प्रायोगिक रूप से ही सहजता एवं अपनेपन के साथ अपनाया जा सकता है।
हमारी शिक्षा व्यवस्था ऐसी होनी चाहिए कि जिसके केंद्र में हमें यह सिखाया जाना चाहिए कि हम अपनी प्रकृति को किस प्रकार से सुरक्षित रखते हुए उसका संरक्षण कर सकें। हमारी विद्यालयी शिक्षा के केंद्र में पर्यावरण संबंधी ज्ञान होना चाहिए। स्कूली पाठ्यक्रम में हमें बदलाव करने की आवश्यकता है। हमें एक ऐसा पाठ्यक्रम निर्मित करना होगा जो विद्यार्थियों को सैद्धांतिक पक्ष के साथ-साथ व्यावहारिक कौशलों में भी कुशल एवं पारंगत बनाएं। छात्रों को आत्मविश्वासी , आत्मजीवी बना सकें। उनके हाथों को प्राकृतिक रूप से काम मिल सके। गति मिल सके। सक्रियता मिले। अनुभव एवं स्पर्श मिल सके। कुछ ऐसा कार्य करना होगा जिससे विद्यालय से उत्तीर्ण होकर निकलने वाला विद्यार्थी आसानी से अपना जीवन यापन कर सके। हमें अपने स्कूली पाठ्यक्रम में ढांचागत परिवर्तन करना होगा। कक्षा-कक्ष शिक्षण को स्थानीय संसाधनों से जोड़ना होगा। प्रकृति के प्रांगण में ऐसे कई उद्योग हैं। कई कुटीर उद्योग और कई लघु उद्योग विद्यार्थियों को नवजीवन दे सकते हैं। इस बात को सरकार एवं प्रशासन को समझना होगा। पर्यावरण शिक्षा का केंद्र पाठ्यक्रम ही नहीं है। किताबी ज्ञान ही नहीं है। उससे बढ़कर भी बहुत कुछ है। परंतु हम पर्यावरण शिक्षा को मात्र पाठ्यक्रम तक ही समाहित करके चल रहे हैं। हम अपने छात्रों को पर्यावरण संबंधी ज्ञान तो रटा देते हैं परंतु व्यावहारिक एवं प्रायोगिक स्तर पर हम उन्हें प्रकृति के साथ जोड़ने में नाकाम रहे हैं। जब तक हम अपने छात्रों को प्रकृति के विभिन्न आयामों से नहीं जोड़ेंगे, कृषि एवं सहकारिता, पशुपालन, मौन पालन, मत्स्य पालन, मुर्गी पालन, भेड़ पालन इसी तरह के अन्य कई लघु एवं कुटीर उद्योग जिससे आजीविका और रहन-सहन सुचारू एवं सरल गति से चल सके यह सब विद्यालयी शिक्षा के केंद्र में होना चाहिए। तब तक हम उन विद्यार्थियों के भीतर पर्यावरण शिक्षा के प्रति अपनापन पैदा नहीं कर पाएंगे। हमें तो अपने विद्यार्थियों को प्रकृति प्रेमी बनाना है। हमारी शिक्षा व्यवस्था में हमें अपने विद्यार्थियों को प्रकृति के नजदीक ले जाकर जीवन जीने की कला सिखाना है। प्रकृति को सहेजने का भाव तभी विकसित हो पाएगा जब हम प्रकृति से तादात्म्य स्थापित कर पाएंगे। हमें प्राथमिक स्तर से ही यह कार्य प्रारंभ कर देना चाहिए। बच्चों का हृदय कोमल होता है। प्रकृति की संवेदनाओं को सहेजने की शक्ति उनके भीतर अधिक होती है। इसके लिए विद्यालय स्तर पर प्राचार्य और व्याख्याताओं को, विश्वविद्यालय स्तर पर विभागाध्यक्ष एवं कुलपति को जिले स्तर पर डीएम और विधायकों को राज्य स्तर पर मुख्यमंत्री द्वारा समय-समय पर विशेष आयोजनों एवं कार्यनीतियों द्वारा, विशेष रूप से अपना शत-प्रतिशत योगदान देना होगा। तभी पर्यावरण शिक्षण के सूत्र एवं उद्देश्य सफल हो पाएंगे नहीं तो स्थितियां ढांक के तीन पात वाली कहावत ही चरितार्थ होती रहेगी। हमें कवियों एवं साहित्यकारों के जीवन को प्रकृति की विभिन्न गतिविधियों के साथ जोड़ते हुए चलना होगा। सरकारी आंकड़ों को पूरा करने के लिए हमें दिवस मनाने की कोई आवश्यकता नहीं है। हमें तो दिवस उसकी वास्तविक रूपरेखा एवं कार्य-योजना, कार्य-नीति और निश्चित उद्देश्यों पर अपनाने की जरूरत है।
छात्रों को पर्यावरण का अध्ययन करवाते वक्त हमें अंतरसंबद्धता के सूत्र को पहचानते हुए पर्यावरण का अन्य विषयों से तुलनात्मक अध्ययन-अध्यापन करवाना होगा। कक्षा-कक्ष शिक्षण की पहली शर्त अंतरसंबद्धता के सिद्धांत पर आधारित होनी चाहिए। भूगोल, इतिहास, कृषि, सामाजिक विज्ञान, विज्ञान, चिकित्सा शास्त्र, साहित्य एवं मानव शास्त्र सभी के केंद्र में पर्यावरण नीतियों का समुच्चय है। और भाषा तो एक ऐसा साधन है जो व्यक्ति को स्थानीय होने का मौका देती है। स्थानीय गतिविधियों से जोड़ती है। स्थानीय विषय वस्तु से जोड़ती है। इस प्रकार पर्यावरण का शिक्षण और अध्ययन सहज, सरल एवं प्रकृति की प्रवृत्ति के अनुरूप बनेगा तो मानवता का विकास उस विकास की प्रकृति के अनुरूप ही चलता रहेगा।
इस प्रकार प्राथमिक स्तर से लेकर उच्च शिक्षा तक विशेष पर्यावरणीय अध्ययन-अध्यापन द्वारा देश में विशेषज्ञों, शोधार्थियों, नवाचारों का विकास होगा। जो आज वर्तमान महामारी के दौर में अति आवश्यक है। आज हमारे विश्वविद्यालयों में पर्यावरण संबंधी, उसकी मूलभूत संकल्पनाओं को आधार बनाते हुए समग्रतावादी विकास के लिए, नवाचारी रूप से विभिन्न आयामों पर शोध कार्य किया जाने की आवश्यकता है। हमें भाषा एवं साहित्य को कृषि एवं पर्यावरण से जोड़ते हुए अध्ययन करना होगा। हमें भूगोल एवं इतिहास के साथ-साथ पर्यटन को भी पर्यावरण से जोड़ना होगा। बढ़ती जनसंख्या एवं वर्तमान संदर्भों के आधार पर हमें नये चिकित्सा सिद्धांत पर्यावरण विज्ञान द्वारा ही खोजने होंगे। प्रकृति की गोद में जीवन और मरण, विष और अमृत दोनों ही है यह तो हमारी पात्रता होनी चाहिए कि हम किसका चयन करते हैं। वर्तमान समय में शोध हो रहा है वह पर्याप्त नहीं है। परंतु शोध के साथ-साथ हम वास्तविकता से अलग भी होते जा रहे हैं। हमारे शोध मानवता के विकास कार्यों के लिए होने चाहिए। न की मानवता के विनाश के लिए।हम अपनी जड़ों से दूर होते जा रहे हैं। इस दिशा की ओर हमें गंभीर चिंतन करने की आवश्यकता है। सोचना होगा देश के आम नागरिक को। क्योंकि आम नागरिक की मूलभूत आवश्यकताएं, उसका रहन-सहन और खान-पान प्रकृति से ही जुड़ा हुआ है। हमें लोकल फॉर वोकल की दिशा में कार्य करना होगा।
शिक्षा, चिकित्सा और कृषि में अपार संभावनाएं हैं। मध्य हिमालयी क्षेत्र और उच्च हिमालयी क्षेत्र में असंख्य मूल्यवान धरोहर बांह पसारे खड़ी है। जीवन रक्षक औषधियों का विशाल भंडार यहां की अपार संपदा में बिखरा पड़ा है। प्रकृति सर्वदाता है। मनुष्य जन्म से ही प्रकृति का ऋणी है और आजीवन रहेगा। वर्तमान संदर्भों में प्रकृति को समझना प्रासंगिक बन गया है। इसलिए प्रकृति के विभिन्न आयामों का ठीक से पुनर्मूल्यांकन होना चाहिए। हमें इस दिशा में सतत एवं क्रियाशील होकर कार्य करना होगा।
पर्यावरण शिक्षा का एक अन्य मुख्य आधार सामान्य जनमानस को पर्यावरण की शिक्षा देना भी है। क्योंकि कम ज्ञान के कारण सामान्य जनमानस द्वारा भी पर्यावरण को अधिकांश रूप से क्षति पहुंचाई जाती है। हमारा साधारण एवं स्थानीय जनमानस अगर पर्यावरण संरक्षण को समझेगा तो प्रकृति की धरोहर सुरक्षित एवं संवर्धित रह पाएगी। इस संबंध में सूचना एवं तकनीकी द्वारा, डिजिटल माध्यम द्वारा, इंटरनेट मीडिया द्वारा, ऑनलाइन शिक्षण द्वारा, वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग के द्वारा, टेलीकम्युनिकेशन द्वारा, सभी सूचना तकनीकिओं का इस्तेमाल करते हुए, स्थानीय भाषा में, लोक गीतों में, नुक्कड़ नाटकों द्वारा पोस्टरों द्वारा, चौपालों द्वारा, कठपुतलियों के खेलों द्वारा, सोशल यूटिलिटी प्रोडक्टिव वर्क के माध्यम से, आंगनवाड़ी द्वारा, ग्राम सभाओं द्वारा, ब्लॉक स्तर द्वारा, जिले स्तर पर डीएम द्वारा एवं स्थानीय वॉलिंटियर्स द्वारा जागरूकता बनाते हुए राज्य स्तरीय एवं केंद्र स्तरीय मूल्यांकन एवं आंकलन किया जाना चाहिए। पर्यावरण शिक्षण एवं प्रकृति का अध्ययन नैतिक शिक्षा के केंद्र में होना चाहिए। इस बात में कोई शक नहीं रह जाता कि पर्यावरणीय अध्ययन का मूल्यांकन बहुत जरूरी है। यह मूल्यांकन तभी संभव होगा जब प्रकृति का पुनर्मूल्यांकन किया जा सकेगा। क्योंकि प्रकृति के प्रांगण में पर्यावरणीय क्षेत्र, जैव-विविधता, जीव-संरक्षण, जल, जीवन और जमीन निहित है। पर्यावरण की काल्पनिक चारदीवारी के भीतर संपूर्ण प्राणी जगत, प्राणी जगत के समकक्ष समाज और समाज के सापेक्ष परिवार और प्रत्येक परिवार मनुष्यों का एक समूह है। रिश्ते-नाते, भावनाओं का समुच्चय हैं। जो अपनी संपूर्ण गतिविधियों के लिए प्रकृति पर ही निर्भर रहता है। हमें प्रकृति की विभिन्न शक्तियों को पहचानना होगा। इसलिए प्रकृति के विविध उपादानों का पुनर्मूल्यांकन बहुत जरूरी है। मानवता के इतिहास का, उसके उद्भव का, उसके विकास का पुनर्मूल्यांकन बहुत जरूरी है। उसके रहन-सहन का, उसके खानपान का, उसके तीज-त्योहारों का, उसके परस्पर संबंधों का, उसका जीव-जगत, पादप संपदाओं से, आत्मिक संबंधों का पुनर्मूल्यांकन बहुत जरूरी है। हमें प्रकृति को अपने मन के भीतर ढूंढना होगा और अपने मन को दूसरे के मन से मिलाने का भाव रखना होगा। हमें प्रकृति से तादात्म्य स्थापित करते हुए अपनेपन का एहसास भावात्मक स्तर पर ढूंढना होगा। हमें प्रकृति से भावनात्मक रूप से जुड़ने की जरूरत है। परमार्थ के कल्याण के लिए यथार्थ से लड़ना होगा, वह भी बिना स्वार्थ के।
क्या हम ऐसा कर पाएंगे ?
"पर्वत, जंगल के आधार, वृक्ष लगाओ कई हजार
मिट्टी, पानी और फुहार, मानवता को मिलेगा प्यार
कदम बढ़ाओ मिलकर चार, सुखी रहेगा घर-परिवार
सुखी रहेगा घर-परिवार, शीतल-शीतल मंद-बयार।"
© डॉ चंद्रकांत तिवारी
fb-Chandra Tewari
5 जून 2021 पर विशेष
Achha Vecharniya Lekh !
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