रविवार, 31 अक्टूबर 2021

माइग्रेशन और रिवर्स-माइग्रेशन : एक पुनर्मूल्यांकन-* डॉ. चंद्रकांत तिवारी

*माइग्रेशन और रिवर्स-माइग्रेशन : एक पुनर्मूल्यांकन-             

*डॉ. चंद्रकांत तिवारी

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समाज समाजिक संबंधों का जाल है। समाज में रहकर ही मनुष्य रिश्ते-नाते भावनाओं का आदान-प्रदान करता है। नए रिश्ते बनाने के साथ-साथ पुराने रिश्तों को भी निभाता हुआ चलता है। समाज के संरचनात्मक ढांचे को कई कारक प्रभावित करते हैं, यही कारक उसके विकास की गति को भी बरकरार रखते हुए कभी प्रभावित करते हैं तो कभी उसकी गति को अवरुद्ध भी करते हैं। समाज में रहकर ही मनुष्य रिश्ते-नातों की नई आधारशिला को निर्मित करता है।

व्यक्ति एक स्थान से दूसरे स्थान, एक प्रदेश से दूसरे प्रदेश इस आशा और विश्वास से स्थानांतरण करता है कि वह नए स्थान में जाकर नये जीवन को नई दिशा दृष्टि देते हुए गति प्रदान करेगा। परंतु जीवन का वास्तविक यथार्थ समय की विपरीत गति को तय करता हुआ, तीव्र आवेगो को झेलता हुआ, विपरीत धाराओं को पार करने के समान है। कह सकते हैं कि जीवन कई विसंगतियों से भरा पड़ा है। इन विसंगतियों को संघर्षपूर्ण और धैर्य बनाए रखते हुए सतत एवं ईमानदारीपूर्वक ज़िया जा सकता है। मनुष्य अगर अपना आत्मबल धारण करते हुए अपने कर्तव्य पथ पर निरंतर सकारात्मक ऊर्जा के साथ चलता रहे तब।

मध्य हिमालयी पर्वतीय अंचल में बसा उत्तराखंड अपनी भौगोलिक संपदा के लिए विख्यात है। परंतु यहां का जनजीवन और यहां का समाज आज अपनी स्वयं की जड़ों से ही विमुख होता हुआ दिखता है। भौतिक सुख-सुविधाओं, संसाधनों के लिए स्थान का परिवर्तन व्यक्ति को भीतर से खोखला तो बनाता ही है साथ ही अपने पैतृक निवास की वस्तुओं के प्रति लापरवाह भी बनाता है। अपने बच्चों की शिक्षा के लिए और चिकित्सा और आवागमन के संसाधनों के साथ-साथ शहरी जनजीवन को भोगने की इच्छा व्यक्ति को अपनी जड़ों से विमुख बना रही है। और यह विमुखता व्यक्ति के भीतर स्वार्थ का गुण विकसित कर रही है। आज व्यक्ति अपने मूल स्थान, अपने पैतृक गांव को सिर्फ नगरीकरण की बढ़ती चमक-दमक एवं नगरीय जनजीवन को भोगने की चाह लिए अपने जन्म स्थान से पलायन कर गया और शहरी जीवन का मजदूर बन गया। पिछले कई वर्षों का अगर मूल्यांकन किया जाए तो यह स्थिति और भी डराने वाली है। क्योंकि सभ्यता और संस्कृति के केंद्र गांव आज सुनसान, बेजुबान बड़े-बड़े ताले दरवाजों पर  लटकाए हुए हैं। शहर की गलियां और सड़कें आधुनिकता के शोर-शराबे से बौखलाई हुई चिल्ला-चिल्ला कर इस बात का इंसाफ मांग रही हैं कि यह जनसंख्या का इतना बड़े पैमाने पर घनत्व कहां तक सही है? नगरीकरण और औद्योगिकरण की बढ़ती लोकप्रियता, शहरों की रोशनी, सड़कों की रंगीन लाइटें, कांच की बड़ी-बड़ी खिड़कियां और दरवाजे, ऊंचे भवन, अच्छे अस्पताल, इंग्लिश मीडियम के स्कूल और जीवन यापन करने के लिए एक छोटी सी नौकरी शहर में मिल ही तो जाता है। रहने के लिए तो इंसान समझौता कर ही लेता है। एक छोटे से कमरे में पूरा परिवार आराम की नींद निकाल लेता है। कभी-कभी तो मेहमान इस छोटे से कमरे में अतिथि सत्कार प्राप्त कर लेते हैं। ऐसा जनजीवन है शहर का, जो लोग गांव से पलायन करके शहरों में आ रहे हैं वह कुछ इस प्रकार का ही जनजीवन भोग रहे हैं। यह नगरीकरण की क्रांति है। इस नगरीकरण की क्रांति में व्यक्ति तंदुरुस्त होने के साथ-साथ बीमार भी होता है। एक बड़े पैमाने में स्थान परिवर्तन पलायनवादी सोच को जन्म देता है। मानसिक पलायन के साथ-साथ शारीरिक पलायन के विभिन्न आयामों को भी उजागर करता है। यह स्थिति पलायन की विभीषिका के रूप में सामने आती है।

इस बात पर ज़रूर गौर कीजिएगा कि उत्तर प्रदेश से अलग होने के बाद, नया राज्य बनने के बाद उत्तराखंड का विकास पलायन की डरावनी तस्वीर लेकर ही सामने नजर आता है। हालांकि पलायन पहले भी रहा है किंतु आज लोगों ने अपने पैतृक और मूल गांव केवल इस लोभ के कारण छोड़ दिए कि उन्हें शहरी जन जीवन के साथ अपने बच्चों के लिए बेहतर शिक्षा, चिकित्सा प्राप्त हो सके। वास्तविकता तो यही है कि आज तक उत्तराखंड के ग्रामीण और पर्वतीय क्षेत्रों में विकास बहुत धीमी गति से या नहीं के बराबर हुआ है या उस गति से नहीं हुआ जिस गति से होना चाहिए था। पर्वतीय प्रदेशों में इतनी आपदाएं हैं कि मौसम की कुछ भी छोटी-मोटी घटनाओं में कोई न कोई मरता जरूर है। यहां ध्यान देने की बहुत जरूरत है। 

अब ग्रामीण क्षेत्रों का विकास सरकार की पहली प्राथमिकता में होना चाहिए। सरकार को पलायन रोकने के लिए क्षेत्रीय विकास योजनाएं बनानी चाहिए। लघु व कुटीर उद्योगों को स्थाई रूप से स्थापित करना चाहिए‌। नए विश्वविद्यालयों का गठन करना चाहिए। अब समय आ गया है कि उत्तराखंड के ग्रामीण क्षेत्रों का विकास सरकार की पहली प्राथमिकता का एजेंडा होना चाहिए। शिक्षा, चिकित्सा और कृषि को लेकर उत्तराखंड राज्य में अपार संभावनाएं हैं। इस दिशा में सरकार कारगर प्रयास करें तो पलायन पर रोक लग सकती है। अभी रिवर्स माइग्रेशन के तहत सरकार को एक ब्लू प्रिंट तैयार कर लेना चाहिए। जिसके केंद्र में रोजगार प्रमुखता से होना चाहिए। आवागमन के संसाधनों के रूप में पक्की और स्थाई सड़कों का निर्माण भी प्रमुखता से होना चाहिए। अब निर्णय जनता द्वारा चुनी गई सरकार को ही करना है।

 विगत दो वर्षों में संपूर्ण विश्व के समक्ष ऐसी कई चुनौतियां सामने आई हैं जिनका सामना करना साधारण मानव के लिए एक दुष्कर कार्य था। परंतु भारतीय जन समाज अपना सनातन धर्म एवं साधारण जीवन परिवेश को जीने का अभ्यस्त होने के साथ-साथ अपने नैतिक आचरण के बल पर ही इन विसंगतियों के बीच जीवन यापन करता आया। विगत दो वर्ष भारतीय जन समाज के लिए बहुत ही घातक एवं मर्मस्पर्शी रहे हैं। संवेदना का अथाह सागर जिसकी नींव में जलती हुई चिताएं इस बात की गवाह बनी की संपूर्ण मानवता कुछ स्वार्थ लोगों की भेंट चढ़ती हुई नजर आ रही थी। परंतु मारने वाले से बचाने वाला बड़ा होता है।  विधाता ने ही मनुष्य को जन्म दिया है तो संघर्ष करने के लिए उसे विवेकशील प्राणी भी बनाया है। उसके शारीरिक ढांचे में सबसे ऊपर उसके मस्तिष्क को स्थान दिया है। आज भारत संपूर्ण विश्व में अगर अपनी कीर्ति एवं यश से जाना जाता है तो वह बुद्धिजीवी एवं बुद्धिमान प्राणियों के बल पर ही जाना जाता है। भारतीय जन समुदाय के प्रतिनिधित्व करने वाले ऐसे वीर, वीर पुरुषों का यह मस्तिष्क विजय पताका की तरह हवाओं के संग लहरें खाता हुआ तिरंगे की भांति शोभा पाता है।

विगत दो वर्षों में कोरोना महामारी ने संपूर्ण मानव समाज के सभी कारकों को प्रभावित किया। सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक, धार्मिक और भौगोलिक कारकों के साथ-साथ पर्यावरणीय जनजीवन भी कई विविधताओं के साथ बदलते समय में स्वयं परिवर्तित होता रहा। इसे संयोग कहें या विधाता की लिखावट एक अदृश्य दुश्मन जिसे वैज्ञानिक भाषा में विषाणु की संज्ञा दी गई और कोविड-19 नाम से चिन्हित किया गया। यह एक ऐसा प्रश्न चिन्ह बनकर उभरा जिसने आम लोगों की ज़िंदगियों को काल की भेंट चढ़ा दिया।

कोरोना के दौर में देश की आर्थिक स्थिति एक प्रकार से सुस्त पड़ गई और विकास के सभी पहिए मंद गति से चलने लगे। इसका एक बहुत बड़ा कारण लॉकडाउन की समस्या था। परंतु इस लॉकडउन के कारण जहां विकास की गति मंद हुई वहीं दूसरी ओर कई जिंदगियां काल का ग्रास बनने से बच गई। यह एक विरोधाभास ही था। परंतु इस विरोधाभास में मानवता विजय होकर अपनी मंजिल की ओर बढ़ रही थी और अदृश्य विषाणु से जंग लड़ रही थी। एक ऐसी जंग जिसमें मृत्यु आलिंगन करने को तैयार थी परंतु मनुष्य का आत्मबल विजयी होता दिखाई दिया और मानवता ने नया कीर्तिमान स्थापित किया।

करोना के दौर में जहां आर्थिक स्थिति, मज़दूर वर्ग, सामाजिक संरचना, विकास की गति, संवेदनाएं सभी स्तरों पर जिंदगी सहमी एवं ठहरी हुई सी लगने लगी थी, उसी बीच लोगों का बड़े-बड़े महानगरों से ग्रामीण क्षेत्रों की ओर रिवर्स पलायन भी देखने को मिला। यह एक ऐसा जनसैलाब था, एक ऐसा तांडव था जो विगत कई वर्षों से न जाने किस बात की प्रतीक्षा कर रहा था। परंतु वर्तमान समय इस बात का साक्षी बन गया कि महानगरीय जनजीवन इस जनसैलाब को अपने आंगन में स्थान न दे पाया और रिवर्स माइग्रेशन के तहत कई लोग अपने गांव की ओर बढ़ चले। यह दृश्य भावनाओं को तार-तार करने वाला था।

आवागमन के संसाधन एवं भौतिक चुनौतियों के मध्य भावनाओं को झंकृत कर देने वाले ऐसे कई दृश्य सामने आए जब कई सौ किलोमीटर लोगों ने पैदल यात्राएं की। कई लोग महानगरों से पैदल तो चले परंतु गांव पहुंचते-पहुंचते रास्ते में ही उनके प्राण चले गए। विधाता की ऐसी लिखावट शायद ही इतिहास में दर्ज होगी कि मजबूर, ग्रामीण मानवता ने अपने प्राणों को बचाने के लिए अपने प्राण गंवा दिए और भविष्य के गर्भ में ऐसे कई प्रश्न को छोड़ दिया जो आज भी उत्तर की तलाश में है। 

इस कोरोना काल में सबसे अधिक नुकसान हमारे विद्यालय स्तर की शिक्षा को हुआ है। विद्यालय में भी मुख्य रूप से प्राथमिक स्तर के विद्यार्थी जो पहले से ही पढ़ने में कमजोर थे उनकी शिक्षा व्यवस्था तो पटरी पर आ गई। पर्वतीय क्षेत्रों के विद्यालयों का तो क्या कहना क्योंकि वह भौतिक एवं शैक्षणिक दोनों ही संसाधनों की कमी से जूझ रहे थे, कोविड-19 महामारी ने तो इसे और बुरी तरह से क्षतिग्रस्त किया। देश में विद्यालयी शिक्षा बहुत विचारणीय बिंदु है। विद्यालयी शिक्षा की बात करते हैं तो मूल्यांकन और प्रश्न पत्र के ढांचे एवं उनके बीच का अंतर स्पष्ट रूप से ज्ञात होना चाहिए। क्योंकि पहले से अधिक प्रतिशत में विद्यार्थी स्कूली शिक्षा में अच्छे अंको से पास हुए हैं।यह तो मूल्यांकन पद्धति पर प्रश्न उठता है। साथ ही विद्यालयी शिक्षा की व्यवस्था को भीतर से खोखला भी करता है। विद्यार्थियों को अच्छे अंको से पास करना यह मूल्यांकन पद्धति का विचारणीय बिंदु है।

हालांकि दूसरी ओर हमारे अध्यापकों ने इस बीच ऑफलाइन और ऑनलाइन के अंतर को भी समझा और डिजिटल की नई दुनिया में प्रवेश भी किया। परंतु यह ऑनलाइन का विकल्प भारत जैसे देश में सभी विद्यालयों में कारगर एवं सटीक रूप से लागू न हो सका। बहुत सारे विद्यालय तो पिछले 2 वर्षों में अधिकांश तो बंद ही रहे। अगर एक आंकलन किया जाए तो कम से कम डेढ़ वर्ष तो पूरी तरह विद्यालय बंद ही रहे हैं। इतने लंबे समय का अंतराल विद्यार्थियों को मनोवैज्ञानिक रूप से, शैक्षिक रूप से एवं अकादमिक रूप से एवं पाठ्यचर्या संबंधी गतिविधियों एवं उपलब्धियों से भी कमजोर बनाता है। वर्तमान प्रतिस्पर्धा में ऐसे अंको का क्या महत्व रह जाता है। जो बढ़ा-चढ़ाकर विद्यार्थियों को दिए गए हैं।

हमारे देश में तो स्कूलों की शिक्षा व्यवस्था का स्तर एवं उसकी गुणवत्ता का स्तर पहले से ही चिंता का विषय बना हुआ है। इसको कोविड ने और भी बुरी तरह से प्रभावित किया है। कहीं ना कहीं तो सिस्टम की भी कमी रही है। आनी वाले कुछ वर्षों तक सरकार को अध्यापकों के साथ मिलकर लगातार विद्यालयी शिक्षा के स्तर को सुधारना होगा। इसके लिए सबसे पहले योग्य अध्यापकों का और सतत एवं सक्रिय उर्जावान शिक्षकों का शिक्षा व्यवस्था में चयन करना होगा। ऐसे अध्यापक जिनको अपना नैतिक कर्तव्य विद्यार्थी के हितार्थ समर्पित करना होगा और शासन- प्रशासन के द्वारा सर्वप्रथम विद्यालयी शिक्षा व्यवस्था को भौतिक एवं शैक्षणिक संसाधनों की पूर्ति को शत-प्रतिशत सुलभ करना होगा। आईसीटी संबंधी तकनीकी युग में अध्यापकों को निपुण भी बनाना होगा। इसके लिए अध्यापक प्रशिक्षण की भी जिला स्तर पर डाइट, एससीईआरटी, एनसीईआरटी एवं उच्च शिक्षा के क्षेत्र में टीचिंग लर्निंग सेंटर महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है।

शिक्षा व्यवस्था और स्थानीय जनजीवन इस भीषण महामारी की भेंट चढ़ गया। हालांकि गुरु का कर्तव्य बड़ा पावन एवं पुनीत होता है। फिर भी हमारा सिस्टम इस प्रकार परिपक्व नहीं था। कि यह महामारी के दौरान सुचारू रूप से कार्य कर पाता। शिक्षा व्यवस्था के सभी चरण इस कोरोना महामारी के दौर में बुरी तरह प्रभावित हुए। विगत दो वर्षों का इतिहास शिक्षा के क्षेत्र में एक ऐसे मूल्यांकन को लेकर आया जो कभी पहले देखने में न हुआ था। नियमित कक्षाएं जब चला करती थी, तब का मूल्यांकन और आज कोरोनावायरस के दौरान जो मूल्यांकन हुआ है, उसका तुलनात्मक अंतर यही बताता है कि हमें अपने विद्यार्थियों का मूल्यांकन नए संदर्भ में करना चाहिए था। मूल्यांकन का कई बिंदुओं पर पुनर्मूल्यांकन भी करना चाहिए। क्योंकि करोना महामारी के दौरान मूल्यांकन में अंको का ग्राफ बहुत तीव्र गति से बड़ा है। यह परंपरागत कक्षाओं और वर्चुअल क्लासरूम के तुलनात्मक अंतर को भी प्रश्नचिन्ह लगाता है। कि शिक्षा व्यवस्था आख़िर किस दिशा-दृष्टि की ओर बढ़ रही है? हम किस प्रकार के मूल्यांकन को सही समझ सकते हैं? कि हमें ऐसा कैसा मूल्यांकन करना चाहिए जो विद्यार्थियों को अंको की अपेक्षा व्यावहारिक एवं प्रायोगिक रूप से कुशाग्र एवं बुद्धिमान, सक्षम एवं प्रभावशाली, देशभक्त एवं राष्ट्रवादी नागरिक बनाएं। अपनी मिट्टी से जोड़ना सिखाएं, अपनी मिट्टी से प्रेम करना सिखाए, अपने वतन के लिए मरना मिटना सिखाएं, अपने लोगों से प्रेम करना सिखाए। क्या यह संभव है? क्या इन सब बातों पर हम गौर कर सकते हैं? हमें क्या करना चाहिए इस बात का मूल्यांकन कौन करेगा? इस बात की क्या गारंटी है कि हम जो कार्य कर रहे हैं उसके प्रतिफल सही दिशा-निर्देश पर आधारित होंगे? ऐसे कई प्रश्न है इन सब प्रश्नों पर हमें आत्ममंथन करना चाहिए। तभी हम सच्चे राष्ट्रभक्त बन सकेंगे और देश सेवा में अपना शत-प्रतिशत योगदान दे सकेंगे।

क्या उपर्युक्त इन प्रश्नों का पुनर्मूल्यांकन होना चाहिए? क्या कोरोना काल में शिक्षा का पुनर्मूल्यांकन होना चाहिए? क्या सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक, धार्मिक इन सब स्थितियों का वर्तमान संदर्भ में पुनर्मल्यांकन होना चाहिए? उपर्युक्त बिन्दुओं के पुनर्मूल्यांकन के मूल्यांकन का उत्तरदायित्व का मूल्यांकन कौन करेगा? यह शोध का विषय भी है और समझ का भी।

रविवार, 25 जुलाई 2021

आंखों पर हिमालय भाग-2 ©डॉ चंद्रकांत तिवारी

 *आंखों पर हिमालय* * भाग-2

© डॉ. चंद्रकांत तिवारी

     बर्फीली चोटियां किसका मन नहीं मोहती। कौन है जो बरसात के सुखद आनंद को ना लेना चाहे। हरी घास पर नंगे पैर दौड़ना और कल-कल करती हुई नदियों पर दोनों हाथों से एक दूसरे पर हवाओं में पानी उछालना, छोटे गोल-गोल पत्थरों को प्यार से सहलाते हुए किसी मां का शिशु को सुलाते हुए- सा वात्सल्य प्रेम का अनुभव करना, ऊंचे घने देवदार के वनों को देर तक निहारना और उसकी हरियाली से अपने मन को और हरा करना, चीड़ के जंगलों में घंटों सांए-सांए की आवाज को सुनते रहना, ऊंचे पर्वतों पर जीवन की ऊंचाइयों को छूने की कल्पना करना और काले घने मदमाते हुए जल से भरे बादलों के स्पर्श को अनुभव करना किसी भी व्यक्ति को अपनी और आकर्षित कर सकते हैं। अपने आप में सम्मोहित करने की शक्ति रखता है यह परिवेश। यह हिमालयी प्रदेश इसकी नैसर्गिकता, इसकी खूबसूरती, यहां की ऋतुएं, यहां की रातें और यहां भोर का उजाला जीवन का एकमात्र एकांत है प्राकृतिक शक्तियों का महाकुंज, जो जीवन जीने की कलात्मक गतिविधियों को केंद्रित करता है। यही संस्कृति का नादमय संगीत है। यही लोक संस्कृति का उत्थान मंच है। यही क्षेत्रीय एवं प्रांतीय लोगों की बहुमूल्य विरासत का समुच्चय है। यही प्राकृतिक संपदा का एकमात्र अक्षय भंडार है। यही सादा जीवन उच्च विचार का आधार भी है।

विश्व की अधिकांश सभ्यताओं का केंद्र नदी घाटी ही रहा है या तो पर्वतीय प्रदेश। जहां नदियों के किनारे बसने वाले नगर प्रांतों का ऐतिहासिक सर्वेक्षण व्यापक स्तर पर हुआ है। वहां पारंपरिक मानव विरासत की सभ्यता के चिन्ह आज भी मिलते हैं। पर आंकड़े यह भी बताते हैं कि सिंधु घाटी की सभ्यता का उद्गम और विकास नदियों के विकास से ही संभव हुआ है। स्रोतवाहिनी ही जीवनदायिनी बनकर मानव का कल्याण करती आई और आज भी कर रही है। भगीरथ ने तप द्वारा गंगा को धरती पर उतारा और गंगा पर्वतीय प्रदेशों से होते हुए अपनी शीतल धारा को मैदानी भागों की ओर इस तरह लेकर पहुंची की समूचा तराई क्षेत्र शीतलता की जीवनदायिनी शक्ति का आजीवन ऋणी हो गया। यह सभ्यता का प्रारंभिक इतिहास है। इसी प्रकार पर्वतीय प्रदेशों का विकास वहां प्रचलित स्थानीय सभ्यताओं द्वारा विकसित हुआ है। विश्व की हर कोई सभ्यता स्थानीय संसाधनों एवं भौतिक परिवेश से ही निर्मित होती है और लोक प्रचलित होते हुए विविध तरीकों से जीवन को केंद्रित करती है। यह सभ्यता मानवीय जीवन की नैसर्गिक प्रवृत्ति है और जीवन जीने की सहज एवं सरल अभिव्यक्ति है। इस प्रकार पर्वतीय अंचल जो हिमालय की गोद में बसा है यहां की सभ्यता रीति-रिवाज, खान-पान, रहन-सहन, लोक-बोली, लोक-साहित्य, लोक-गाथाएं, जल, जमीन और जंगल के गीत गाती है। हालांकि यहां चुनौतियां अपार है। परंतु इन्हीं चुनौतियों को स्थानीय संसाधनों के द्वारा स्वीकार करते हुए यहां की जीवन शैली को रोचकता से जिया जाता है। मध्य हिमालयी क्षेत्र जिसे हम पहाड़ की संज्ञा देते हैं कई संभावनाओं को अपनी गोद में समेटे हुए मानवता के आदर्श शिखर पुरुष की तरह खड़ा है। सच में अपनी आंखों से हिमालय को देखना साक्षात दिव्य दर्शन करने के समान है। 

मध्य हिमालय की गोद में बसा उत्तराखंड जिसकी नैसर्गिक छटाएं हर प्राणी का हृदय मोह लेती हैं। वशीकरण की शक्ति है यहां के प्राकृतिक वातावरण में। जो नयनों को शीतलता और प्रभु दर्शन का आशीर्वाद प्रदान करती है। पशु-पक्षी, जीव-जंतु और मानव समाज यहां की प्रकृति के अंग हैं। यहां बसने वाले हर प्राणी को प्रकृति अपने भीतर सहेजने के अनुभवों का मार्ग दिखाती है। कहने का तात्पर्य है कि प्राकृतिक परिवेश एवं उसकी नैसर्गिक संपदा यहां के लोगों का निवास है।

पर्वत के ऊंचे-नीचे ढालों में बने पहाड़ी मकान, यहां के देवदार के वृक्ष, चीड़ के वृक्ष, बांज और बुरांश के वृक्ष और हरी घास के मैदान, ऊंची-नीची घाटियां और इन घाटियों में बहते बड़े-बड़े नाले जिनको स्थानीय भाषा में गधेरे अर्थात छोटी नदी के रूप में संबोधित किया जाता है, गधेरों की ध्वनि मन की अतल गहराइयों में न जाने कितने असंख्य आकर्षणों को प्राकृतिक परिवेश के साथ तादात्म्य स्थापित करते हुए प्रकट कर देती हैं। यह साक्षात अनुभव करके ही प्राप्त किया जा सकता है।

 यहां की प्रकृति में रहने वाला प्रत्येक व्यक्ति पर्वत पुत्र है। हिमालय की किरणें उसके आंगन में खेलती हैं। यहां की सुबह और यहां की शाम प्रकृति की विभिन्न  गतिविधियों से केंद्रित आचरण को जीवंत करती रहती हैं। यहां की लोक बोलियां एवं लोक साहित्य, लोक गाथाएं अपना एक विशेष व्यापक अध्ययन क्षेत्र है। जीवन जीने की प्राकृतिक कला है और स्थानीय लोगों के धार्मिक एवं सांस्कृतिक उल्लास का प्रतीकात्मकता के साथ-साथ साक्षात् जीवन अनुभव भी है। यही साक्षात् अनुभव व्यक्ति को उसके संस्कारों से, उसके समाज से, उसके लोक परिवेश से, उसके स्थानीय संसाधनों से, उसकी आत्मा से, उसके घर से, उसके माता-पिता से, उसके रिश्तेदारों से, उसके जाति-बंधन से और उसके पैतृक निवास से, उसके खेतों से, उसके पेड़-पौधे और वृक्षों से और उस घास के हरित तिनके से जोड़ता है, जिसको देखकर वह हरपल आनंदित होता है। हिमालयी क्षेत्र की अपनी विशेषता है। यहां की मिट्टी में भी औषधियों के अपार गुण हैं। यहां के मौसम, यहां की फसलें और यहां का पर्वतीय समाज किसी भी समुदाय के पक्ष-विपक्ष को अपनी कार्यशैली-शक्ति-प्रदर्शन से अपनी ओर आकर्षित कर ही लेता है। 

हम हिमालय के आंगन में हैं और हमारी आंखों पर हिमालय है।

आंखों पर हिमालय, सभ्यता के मुहाने

बर्फीली चोटियों पर, बनाते हैं घराने।

©डॉ चंद्रकांत तिवारी

fb-Chandra Tewari

July 2021

*जब मैंने हिमालय को देखा-*भाग-1*©डॉ. चंद्रकांत तिवारी-*

 *जब मैंने हिमालय को देखा-* भाग-1

*©डॉ. चंद्रकांत तिवारी-* - उत्तराखंड प्रांत 



जब मैंने हिमालय को देखा तो मैं कुछ क्षण के लिए स्तब्ध रह गया। हिमालय का दिव्य भाल देखते ही बनता था और मैं उसको देखते ही जा रहा था। सूर्य की किरणों से उसका मुकुट रत्न जड़ित हीरों की ख़ान सा चमक रहा था। इतना सुंदर दृश्य जहां प्रकृति प्रतिदिन श्वेत चांदनी में स्नान करती हो, सौंदर्य के सभी प्रतिमान फीके पड़ जाएं, रूप-रंग, सौंदर्य का आकर्षण अपनी पराकाष्ठा पर हो, ऐसी सुंदरता जिसे शब्दों में न बांधा जा सके। भारी-भरकम, जूता-चप्पल पहनकर इस प्रकृति पर तो पैर रखने को मन ही नहीं करता। अगर नंगे पैर भी चला जाए तो वह परमानंद होगा। इस प्रकृति को स्पर्श करने का, हरी घास के तिनकों को स्पर्श करने का यह सुखद अनुभव जूते-चप्पल पहन कर तो नहीं किया जा सकता भला। कितना स्वच्छ है प्रकृति का यह नैसर्गिक पृष्ठीय आवरण। जहां जीवन के सारे सूत्र एक साथ नजर आते हैं। हरी घास के ये लंबे-चौड़े, आड़े-तिरछे, बड़ी-बड़ी ढलानों पर लंबे-चौड़े खेत। खेतों में हरी घास की चादरों के समानांतर प्राकृतिक परिवेश, जिसे स्थानीय भाषा में बुग्याल कहते हैं। इन बुग्यालों पर जैसे रज-किरणों के मोती बिखेरे गए हों। सूर्य की किरणें जब इन ओस की बूंदों पर पड़ती हैं तो यह ओस के मोती हीरे-सी उज्ज्वल आभा देते प्रतीत होते हैं। बस एकटक रहकर निरंतर अनवरत और बिना पलक झपकाए देखते ही रहने को मन करें। प्रकृति हम सब की कल्पनाओं के क्षितिज से भी अधिक गहरी सुंदरता को अपने भीतर समेटे हुए है। हमारे अंतस पर पड़ने वाले बिंबों को जब साकार करती है तो सुंदरता के कई हजार दृश्य नजर आने लगते हैं। ऐसा सौंदर्य है हिमालय का। उत्तराखंड के पर्वतीय अंचल का। जिसे देखने का सौभाग्य मुझे मिला। असल में मैं जिस हिमालय को देख रहा था बहुत हिमालय की श्रृंखला है जब श्रृंखला इतनी सुंदर है तो वास्तविक हिमालय कितना सुंदर होगा। हिमालय कहां है? किसी एक बिंदु पर ठहर कर हम हिमालय के दर्शन तो नहीं कर सकते। परंतु यह तो उसकी समानांतर पर्वत श्रृंखलाएं हैं। यही हिमालय है ऐसा मानकर मैं प्रकृति की आनंद यात्रा में मग्न हो रहा था। घंटों हिमालय के आंगन में बैठने के बाद मैं अपने घर के आंगन की ओर बढ़ चला। वैसे मेरा आंगन भी हिमालय की गोद में ही बसा है। यह हिमालय का बहुत बड़ा आंगन है। जो कुदरत की रहस्यमई असंख्य प्राकृतिक कलाओं से भरा पड़ा है। एक मानव जीवन कम पड़ जाएगा इस प्राकृतिक सौंदर्य को निहारने में।

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शनिवार, 19 जून 2021

Happy father's day-- Dr. Chandra Kant Tewari

 एक सीधी रेखा-सा बचपन

रस्सी के दोनों छोर से गुजरता

हम सबकी यादों का बचपन

बहती नदी की धाराओं-सा लड़खड़ाता शोर

कसकर तुम्हारे कंधों पर बैठा

बालों को पकड़

जैसे चांदनी में तारों को जकड़

पूरा होता है रात्रि का सफ़र

तुम निडर विपरीत धाराओं पर

लहरों-सी बलखाए डोर

कस लेते हो मेरे दो पैरों के छोर

हर क़दम शब्दों के अनुशासन का पाठ

सिर पर रहता है पांचों उंगलियों का हाथ

हर उंगली जीवन का एक अध्याय है

बंद मुट्ठी में मेरे जीवन भर की आय है

माता तो रक्त में समाई है

पिता उस रक्त की गहराई है

मेरे जीवन के पथ-प्रदर्शक

पहले जीवन के आदर्श

तुम्हारे जाने के बाद

कहां छूटता है पिता का साथ

ख़ुद पिता बनने के बाद।


©चंद्रकांत

fb-Chandra Tewari

मेरा प्यारा उत्तराखंड ( कविता-डॉ. चंद्रकांत तिवारी)

 *_प्रकृति मनुष्य को जीवन देती है। उत्तराखंड जिसकी भौगोलिक संपदा का विशाल क्षेत्रफल पेड़ पौधों, वनस्पतियों,औषधियों से आच्छादित है। पर्वतीय प्रदेश का रहन-सहन स्वास्थ्य के लिए गुणकारी और प्राणी जगत के लिए हितकारी है। यहाँ के युवाओं की पहली पसंद सेना में भर्ती होकर कुल-परिवार की परंपरा को आगे बढ़ाना होता है। स्वरचित कविता में यहाँ का परिचय कुछ इस तरह आपके समक्ष प्रस्तुत है-_* 


*मेरा प्यारा उत्तराखंड-*


मेरे भारत का भू-खंड

मेरा प्यारा उत्तराखंड

देवदार, सागौन, चीड़

असंख्य खगों का सुंदर-नीड़

साल,उतीस, तुन और काफल

नदी-घाटी के गहरे तल

बरगद,पीपल,पंय्या,सेमल,मेहल

बाँज-बुरांश - घना-जंगल

हर मौसम में ठंडा जल

सर्पीली-सड़क पूजा के थाल

घर-घर में सेना के लाल

आलूबखारा,जामिर,नींबू,गलगल

हिसालू किलमोड़ी,घिंघारू-फल 

पुलम,आड़ू ,दाड़िम, खुमानी

गढ़वाली-कुमाउनी मीठी बानी।


देवभूमि की यह पहचान

कदम-कदम देवों के थान

चारों धामों का श्रृंगार

गंगोत्री-यमुनोत्री, बद्री-केदार

कुंभ लगे यहाँ बारंबार

बहती गंगा होकर हरिद्वार

झीलों का शहर है नैनीताल

देहरादून-मसूरी के दृश्य कमाल

अल्मोड़ा की बाल-मिठाई

पिथौरागढ़-धारचूला की ऊँची- खाई

बागेश्वर और उधम सिंह नगर

देवीधूरा-चंपावत की डगर-डगर

गढ़वाल की गोद में रूद्रप्रयाग

संगम होता देवप्रयाग

चमोली,पौड़ी,टेहरी और उत्तरकाशी

हिम-प्रदेश के हम हैं वासी

शौर्य और देकर बलिदान

हर-घर में सेना का जवान

सब प्रदेशों से प्यारा 

मेरे भारत का भू-खंड 

मेरा प्यारा उत्तराखंड।


मध्य हिमालय- बर्फीली धार

सीढ़ी से खेत-बुरांशों के हार

काली-गोरी नदियों का खेल

भागीरथी-अलकनंदा नदियों का मेल

यहाँ शहर-गाँव से लगते हैं

ब्रह्म-कमल यहाँ खिलते हैं  

मेल-भाव की कमी नहीं 

शहीदों-सा यहाँ, न मिले कहीं 

माता लोरी में बच्चे को, सेना के गीत सुनाती है

देवदार-सी हरी वर्दी

युवाओं के मन को भाती है

सरहद की सीमा-रेखा

दुश्मन को हमने देखा

दिया वहीं पर दंड

सब प्रदेशों से प्यारा

मेरे भारत का भू-खंड 

मेरा प्यारा उत्तराखंड।


स्वरचित-

©डाॅ0चंद्रकांत तिवारी

रचनात्मकता का प्रयास (डॉ. चंद्रकांत तिवारी

 मानव सभ्यता का इतिहास रचनात्मकता एवं नवाचारों से भरा है। रचनात्मकता प्लेटो के अनुकरण सिद्धांत की परिधि से गुजरते हुए अरस्तू के अनुकरण सिद्धांत का पुनर्सृजनवादी नवाचारिक दृष्टिकोण है।जो कल्पना के यथार्थ को पुनर्जीवित करता रहता है। साथ ही कल्पना की शक्ति, नई-नई उद्भावनाओं के साथ मानव मन को सक्रिय एवं ऊर्जा से परिपूर्ण करते हुए निरंतर चिंतनशील बनाती है और समाज के लिए अमूल्य-उपहार उपलब्ध कराती है। कल्पना की सबसे बड़ी शक्ति यही है कि कल्पनाशील व्यक्ति सीमित संसाधनों में साधारण होते हुए भी असाधारण कार्य कर जाता है और यह सकारात्मक-चिंतन सृजन के साथ-साथ प्रकृति का पुनर्सृजन भी है। 

इस महाकालेश्वरी-धरणी पर सृजन-पुनर्सृजन-विसर्जन की प्रक्रिया निरंतर-नित-नित और अनवरत चलती रहती है। कल्पना का मिश्रण सभी में रहता है। 


मनुष्य सृजन और विध्वंस का महापिण्ड है। सृजन में कल्पना का मृदुरस मिल जाये तो समग्र प्राणी-जगत अपनी रचनात्मकता से धरा पर नूतन स्वर्ग स्थापित कर देगा और अगर मन कल्पना की सीमाओं का अतिक्रमण करते हुए उसकी शक्ति का तिरस्कार करे और अपने निज स्वार्थ के लिए संपूर्ण प्राणी-जगत को चिंता के महाचक्र में धकेल दे तो यह धरती के विनाश की भयावह त्रासदी होगी साथ ही वर्तमान का विसर्जन होगा। क्योंकि चिंता और चिंतन दोनों ही मन की विपरीत स्थितियाँ है।


कमजोर बड़ा मानव का मन

चिंता-चिंता का शोर है

चिंतन-अभिमुख विभ्रांत-पथिक

सृजन-पथ की सुंदर भोर है

एकांत के हाथों में रख हाथ

क्या पुनर्सृजन का भी कोई अंतिम छोर है 

उठ सुन प्रकृति की वैभव-तान

कल्पना की जो विभ्रांत-डोर है।

आत्म-चिंतन की वैतरणी का बुद्धियुद्ध-सा

जीवन की कोमल अभिलाषाओं का

क्षितिज के मुहाने पर चमकता अंतिम विभोर है।

©डाॅ0चंद्रकांत तिवारी

भाषा का उदय और विस्तार ( डॉ. चंद्रकांत तिवारी

 "भाषा का उदय और विस्तार"- 


       जब समाज में विश्रृंखलता उत्पन्न होकर उसकी गति को अवरुद्ध कर देती है, चारों ओर अव्यवस्था का साम्राज्य छा जाता है, विरोध रूपी दानव का ताण्डव सर्वत्र दृष्टिगोचर होने लगता है, परिणामत: सामाजिक, धार्मिक,राजनैतिक,नैतिक एवं सांस्कृतिक मूल्यों में शैथिल्य आ जाता है। उसी समय परिस्थितियाँ किसी एक ऐसी भाषा को जन्म देती हैं जो संपूर्ण विरोधी तत्वों एवं गतिरूद्धता के निमित्तों का परिष्कार करके उसमें पारस्परिक सहयोग और समानता/समंवयता उत्पन्न करती है ।


       भाषा रेत की तरह है, जिसे मुट्ठी में संभालकर नहीं रखें तो फिसल जाऐगी। निस्संदेह भावों तथा विचारों का प्रकटीकरण ही भाषा है। भाषा सामाजिक वस्तु है। इसका प्रवाह अविच्छिन्न है। यह सर्व-व्यापक है।सम्प्रेक्षण का मौखिक साधन है ।भाषा अर्जित वस्तु है,क्योंकि यह व्यवहार द्वारा अर्जित की जाती है । भाषा सहज और नैसर्गिक क्रिया है।सामाजिक दृष्टि से इसका स्तरीयकरण होता है। यह परिवर्तनशील है क्योंकि यह संयोगात्मकता से वियोगात्मकता की ओर उन्मुख होती है।भाषा स्थिरीकरण और मानकीकरण से प्रभावित होती है। यह पहले उच्चरित रूप में परिवर्तित होती है ।स्वतंत्र ढाॅचा लिए भौगोलिक रूप से स्थानीयकृत होती है। इतना सब होने के बावजूद भी भाषा में न जाने कितनी अर्थों की पर्तों का समागम होता है। न जाने कितने गूढ़ भावों का समंदर हिलोरें लेता रहता है। भाषा तो कवि हृदय की प्रेमिका का नयन बिंदु है। नायिका के अंग-अंग की उज्ज्वल आभा है। नेता का कलात्मक भाषण है तो अभिनेता का सचित्र रंगमंचीय मुद्राओं सहित नृत्य है। यह तो आलोचक की कलम से निकला मोती है, और पत्रकार की लेखनी का ज्वलंत मुद्दा है। कहना न होगा कि यह भारतवर्ष के हिंदी विभाग द्वारा शिक्षित शोधार्थी बेरोजगार की मन की भड़ास है। फिर भी भाषा शिक्षक के लिए यह उसके पुत्र के समान है। हिंदी भाषा के संदर्भ में यह जन समूह के हृदय का विकास है। तो उसके शिक्षण के संदर्भ में संपूर्ण धरती पर बीजारोपण के समान है।

चन्द्रकान्त तिवारी

वियोग की अनुभूति के कवि (डॉ.चंद्रकांत तिवारी)

 *'कविता लिखने की पहली शर्त कवि होना है'*


*(वियोग की अनुभूति के कवि- कविवर श्री सुमित्रानंदन पंत जी के जन्मदिन पर विशेष-* *© डॉ चंद्रकांत तिवारी- अल्मोड़ा-उत्तराखंड-भारत -20/मई /2021*


*वियोगी होगा पहला कवि* 

*आह से उपजा होगा गान* 

*निकल कर आँखों से चुपचाप* 

*बही होगी कविता अनजान*

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'कविता लिखने की पहली शर्त कवि होना है' एक ऐसा कवि जो युग दृष्टा और युग सृष्टा हो। जिसकी कविताओं में जीवन की सच्ची तस्वीर उभरती हो। जिसके अक्षर परस्पर अपने समकक्ष शब्दों से बातें करते हों और एक पूर्ण सार्थक काव्यमय पंक्ति का निर्माण करते हुए सार्थक ध्वनि संकेतों को भी प्रकट करते हों। कुल मिलाकर कह सकते हैं कि ऐसे कवि की रचना में जीवन का संगीत रस घोलता है और शब्द चित्रों के रेखाचित्र चित्रकाव्य का सृजन कर रहे होते हैं।


'कविता लिखने की पहली शर्त कवि होना है' यह उतना ही सार्थक और प्रासंगिक है जितना कवि होने के लिए सहृदय होना। जीवन के यथार्थ दृश्यों को हम किस रूप में देखते हैं, किस रूप में महसूस करते हैं, महसूस करने के बाद क्या हम उन साक्षात दृश्यों/वस्तुओं से अपनेपन का लगाव रख पाते हैं? ऐसा लगाव जो हमें बार-बार अपनी ओर आकर्षित करता हो। हमारे मन की रिक्तता को पूर्ण करता हो। हमारे जीवन के अवकाश को इंद्रधनुषी रंगों से भर देता हो। हमारी विषम और कठिन बनती जा रही जीवनशैली को सरल और सहज बना देता हो। हमारी कम पड़ती श्वांसों के मध्य रक्त का संचार करता हुआ जीवन की लालिमा के नए दृश्यों को उभरता हो। यह संभव है कि हम अंतिम स्पंदन तक स्वयं से ही संघर्ष कर रहे होते हैं परंतु जो प्रकृति हमने अपने लिए निर्मित की है वह एक ऐसी दुनिया है जो दो सगे-संबंधियों के अकेलेपन से भरी हुई है। जैसे जीवन का संगीत रिक्त हो गया है जीवन की तलाश में भटकता हुआ कवि हृदय शून्य की परिधि पर घूम रहा हो। स्वयं के प्रश्नों में ही उत्तर को तलाश कर रहा हो। कवि हृदय कई सौ हृदयों का समुच्चय है। उसकी अभिव्यंजना और अभिव्यक्ति से पहले उसकी देखने की शक्ति स्पर्श और गंध के अनुभवों का साक्षात् बिंम होती है। हवाओं में तैरता हुआ संगीत कवि की सांसों में घुलमिल कर साकार हो जाता है। यह सब एकांत की वीणा से निकला हुआ नादमय संगीत है। जीवन का वास्तविक जयघोष है। यही पर्वतीय जनमानस की लोक संस्कृति का उत्थान मंच है। यही मानवता की जन्मभूमि की विकास यात्रा का अंतिम और प्रारंभिक प्रस्थान बिंदु है। 


अपार रज किरणों को समेटे जीवन की हरियाली और नैसर्गिक सुंदरता की अभीष्ट वन-संपदाओं को लुटाता हुआ यौवन का संगीत प्रकृति के इस अभूतपूर्व क्षणों का अनुकरण करता हुआ, कलम के उतार-चढ़ाव से यथार्थ के अनुभवों को शब्दबद्ध करता हुआ, काव्य के चित्रों को साकार करता है। यह कोई साधारण नहीं असाधारण कवि हृदय ही हो सकता है। ऐसा कवि हृदय जिसके सामने कविता नतमस्तक होकर पूर्ण विनम्रता से आग्रहपूर्वक उसकी कलम की नोंक पर बार-बार स्याही संग भीगती-उतरती और श्वेत पत्रों की सैय्या पर किसी शिल्पी की वास्तुकला को जीवंत कर जाती है। ऐसा कवि हृदय प्रकृति में बीज रूप होता है जहां उसकी दृष्टि पड़ती है वही स्थान नव-अंकुरण से पल्लवित और पुष्पित हो उठता है।


हां 'कविता लिखने के लिए कवि हृदय होना पहली शर्त है'। ऐसा कवि हृदय जो प्रकृति के साथ तादात्म्य स्थापित कर ले। 


कवि श्री सुमित्रानंदन पंत प्रकृति की गोद में पले-बढ़े और प्रकृति ही जिनकी जीवन भर सहचरी बनी रही। इसकी नैसर्गिक सुंदरता के समक्ष अन्य कोई सुंदरता उन्हें कभी आकर्षित न कर पाई। ऐसा कवि हृदय उत्तराखंड राज्य के कौसानी नामक स्थान में जन्मा । हिंदी साहित्य और संपूर्ण साहित्य प्रेमी इस बात से हमेशा ही गौरवान्वित महसूस करते हैं कि आधुनिक हिंदी कविता के क्षेत्र में छायावादी युग के सशक्त कवि श्री सुमित्रानंदन पंत जी प्रकृति के सुकुमार कवि होते हुए साहित्य की विभिन्न धाराओं के साथ क्रमिक विकास लिए हुए बढ़ते रहे। इन्होंने अपना संपूर्ण जीवन प्रकृति की रहस्यमई दुनिया को खोजने में व्यतीत किया। अपने समकक्ष छायावादी कवियों में प्रसाद, निराला, महादेवी वर्मा के बीच कविवर पंत जी सब के चितेरे बने रहे और उस दौर के अन्य साहित्यकारों के बीच भी अपनी लोकप्रियता बनाए रखने में हमेशा ही सक्रिय बने रहे।

कविवर पंत की कई रचनाएं समय-समय पर प्रकाशित होती रही। परंतु उनकी छायावादी रचनाओं में प्रकृति के साथ जो अपनापन या अपना होने का भाव दिखता है वह एक पर्वतीय अंचल के नवयुवक को इस नैसर्गिक सुंदरता के प्रति आकर्षित करता है। साथ ही पर्यावरण प्रेमी के रूप में भी मुखरित करता है। 


सच्चे अर्थों में कविवर पंत जी पर्यावरण के प्रति कहीं अधिक भावुक व्यक्ति थे। उनका यह नजरिया ही उन्हें प्रकृति के और नजदीक ले गया। उनकी कविताओं का केंद्र भी प्रकृति ही बनी रही। कह सकते हैं कि कविवर पंत जी ने उस असीम सत्ता की तलाश प्रकृति के रहस्यों में खोजने की कोशिश की। कविवर पंत जी का ईश्वर प्रकृति में ही कहीं बसता है। कभी वह प्रथम रश्मि की किरणों के रूप में विचरण करता है, तो कभी मौन निमंत्रण-सा देता हुआ अंजाना-सा मोह पैदा करता हुआ प्रकृति के ताल-तलैयों में नौका-विहार करता है। पंत जी की प्रकृति परिवर्तन की अपार संभावनाओं का केंद्र बिंदु रही है। परंतु उसका स्रोत एक ही है। 


निस्संदेह परिवर्तन एक क्रमिक विकास है। यह अपने स्वरूप के साथ ही विकास के नए अध्यायों को प्रारंभ करता है। जीवन का हर क्षण परिवर्तनशील है। यहां जीवन ही मृत्यु है और मृत्यु ही निश्चित जीवन का लघुत्तम निर्णायक आधार है। परिवर्तन सहर्ष स्वीकारोक्ति का भाव रखता है। काव्य की यात्रा के संदर्भ में भी, कवि की यात्रा के संदर्भ में भी, सहृदय के हृदय की यात्रा के संदर्भ में भी और मानवता की विकास यात्रा के संदर्भ में भी। 

सबका मूल प्रकृति की गोद में ही निहित है।


कविवर पंत जी के जन्मदिन को हमें पर्यावरण संरक्षण के रूप में मनाना चाहिए। विश्वविद्यालय स्तर पर, महाविद्यालय स्तर पर और विद्यालय स्तर पर हमें इस दिन अधिक से अधिक वृक्षारोपण करके प्रायोगिक शिक्षण के रूप को साकार करना चाहिए। आज वर्तमान संदर्भों में वृक्षों का कितना महत्व है, यह इस महामारी के बीच हम सबका ध्यान आकर्षित करता है।


जीवन प्रकृति से है। हमें इस बात का ध्यान रखना होगा। हमें प्रकृति को अपने मन के भीतर सहेजने का प्रयास करना चाहिए। अगर प्रकृति हरी-भरी रहेगी तो जीवन खुशहाल रहेगा। प्रकृति के रंग जीवन के रंगों से मिलकर आनंद की विकास यात्रा में सहायक होंगे। हमें पर्यटक बनने से पहले प्रकृति प्रेमी बनना होगा। हमें प्राकृतिक संपदा को संरक्षित रखने के लिए मिशन के रूप में कार्य करना होगा। तभी हम कविवर श्री सुमित्रानंदन पंत जी को सच्चे अर्थों में नमन कर पायेंगे। सच्चे अर्थों में श्रद्धांजलि दे पाएंगे।


© डॉ चंद्रकांत तिवारी

fb-Chandra Tewari

20/मई /2021

मिट्टी के रंग (कविता-डॉ. चंद्रकांत तिवारी)

 किस मिट्टी के बनते हैं दीये 

जो रोशन करते हैं 

अंधेरे घर को 

झोपड़ी को

और चौखट को 

खुशियों से भरते हैं।

किस मिट्टी के बनते हैं दीये 


किस मिट्टी के बनते हैं खिलौनें जो बिकते हैं बाजारों में 

मोल-भाव होता है खरीददारों में 

बचपन से बचपन की दूरी को बांटते हैं

उमंगों के रंगों को छांटते हैं

कहीं बनते हैं शोभा

किसी पूंजीपति के बेडरूम की

कहीं टूटकर जाते हैं बिखर

बचपन के सवालों में।


किस मिट्टी से बनते हैं भगवान

किन-किन हाथों से बनते हैं भगवान

किन-किन हाथों में बिकते हैं भगवान

मोल-भाव होता है हर धर्म के बाजारों में

बिक जाते हैं भगवान खरीददारों में 

घर के मंदिर की शोभा बन जाते हैं भगवान

कई चौराहों पर दिख जाते हैं भगवान

कहीं हाथों को जोड़ते दिख जाते हैं इंसान

अपने दुख को सुनाते रो-पड़ते हैं इंसान

सब देखकर भी चुप हो जाते हैं भगवान

मिट्टी के भगवान

सबके अपने-अपने भगवान 

कहीं छोटे तो कहीं बड़े 

पत्थर की चारदीवारी में

खड़े-बैठे और लेटे हैं भगवान

दीये, खिलौनें और भगवान सब मिट्टी की संतान

अंतर-मतभेद रंगों का 

कुछ लिपटे-महंगे रंगों-लिबास

कुछ सिमटे आभूषणों में बेहिसाब

कहीं घीं के दीयों की रौनकें

कहीं बुझते कगारों की आग के दीये

कहीं श्मशानों में बेहिसाब जलते चिरागों के दीये।


मिट्टी भी कैसी-कैसी होती है

जिस सांचे में डालो ढल जाती 

है 

मां की तरह 

पक कर अंगारों में ढल जाती है

प्यासी पथराई आंखों की तरह

हां मां की तरह।


मिट्टी तुम मिट्टी ही रहना 

अपनी महक और ताज़गी में

मां के आशीर्वाद की तरह

जल से-जंगल से-पेड़ों की जड़ों से 

कभी जुदा ना होना

मेरी भाषा से-मेरे अपनों से 

दीया बनकर बाती संग 

आलोकित करना पथ के पथिक का पथ ।


© डॉ. चंद्रकांत तिवारी

fb-Chandra Tewari

May 2021

शुक्रवार, 18 जून 2021

क्या अनिवार्य मिलिट्री सेवा से सेना का हित होगा ? पक्ष और विपक्ष* डॉ.चंद्रकांत तिवारी

 *क्या अनिवार्य मिलिट्री सेवा से सेना का हित होगा ? पक्ष और विपक्ष*

©डॉ.चंद्रकांत तिवारी


*पक्ष-*


मुझे तोड़ लेना बनमाली,

उस पथ पर देना तुम फेंक!

मातृ-भूमि पर शीश- चढ़ाने,

जिस पथ पर जावें वीर अनेक!


देश सेवा के भाव क्या होते हैं कवि माखनलाल चतुर्वेदी जी की उपर्युक्त कविता पुष्प की अभिलाषा से प्रकट होता है।     


भारतवर्ष की गौरव गाथा, यहां की सेना के जवानों की कार्यकुशलता वीरता से भरी पड़ी है। देश सेवा, राष्ट्रवाद और अनुशासन भारतीय सेना का मूल मंत्र है। विषम परिस्थितियों में भी भारतीय सैनिकों की कार्यकुशलता, साहस और मनोबल का विश्व स्तर पर सम्मान होता आया है। अगर हमें कुशल नेतृत्व मिल जाए तो हम विश्वविजय की दिशा में होंगे और यह सब हमारे देश के युवाओं की बदौलत संभव है। 


            गांव की सड़कों से दौड़ता हुआ भारत का युवा सेना में आकर अपने आप को गौरवान्वित महसूस करता है कि वह सेना का अभिन्न अंग है। उसकी वर्दी के सितारे उसकी किस्मत के सितारों से भी बढ़कर होते हैं। वह उनकी चमक कभी कम नहीं होने देता है। सांसे थम जाएं तो क्या? रक्त जम जाए तो क्या? फिर भी सेना का जवान कर्तव्य पथ पर अपने प्राणों की बाजी लगा देगा। ऐसे रणबांकुरे, धुरंधर योद्धाओं की जीत हमेशा पथ चूमती है। बुरा वक्त भी ऐसे जांबाज योद्धाओं के जीवन में यश लेकर आता है। वीरता की कुछ ऐसी परिभाषा भारतीय सेना के जांबाज योद्धा रणक्षेत्र में देते हैं।

"जो भरा नहीं है भावों से

बहती जिसमें रसधार नहीं

वह हृदय नहीं, वह पत्थर है

जिसमें स्वदेश का प्यार नहीं।"


कवि गया प्रसाद शुक्ल 'स्नेही' जी की यह पंक्ति स्वदेश प्रेम और राष्ट्रप्रेम को दर्शाती है। राष्ट्रवाद की इससे सच्ची परिभाषा और क्या हो सकती है कि सेना स्वयं राष्ट्रभक्ति का स्वर्णिम मौका दे रही है।


            आज देश का हर कोई युवा भारतीय सेना का अंग बनना चाहता है और इस वर्दी की चाह को पूर्ण करना चाहता है। देश सेवा के लिए भारतीय सेना में आकर तन-मन से राष्ट्र को समर्पित होता है। आज हमारी सरकार युवाओं के सपनों को पूरा करने के लिए और सेना को युवा सैन्य बल प्रदान करने के लिए प्रयासरत है। इसी व्यवस्था के तहत 'टूर टू ड्यूटी' का विकल्प लेकर देश की सरकार रक्षा मंत्रालय के साथ मिलकर भारतीय सेना में नए जोशीले रणबांकुरों की फ़ौज को कर्तव्य की नई दिशा और राष्ट्रवाद की परिभाषा सिखाने के लिए वचनबद्ध है और एक मजबूत आधार प्रदान करना चाहती है।


            देश की हर मां अपने बेटे के बदन पर सेना की वर्दी देखना चाहती है। जब एक बूढ़ी मां अपने बेटे को देश की रक्षा के लिए घर से विदा करती है तो वह कहती है! जा बेटे.. कर्तव्य पथ पर.. भारत मां की रक्षा के लिए अगर प्राणों का भी उत्सर्ग करना पड़े तो कभी पीछे मत हटना बेटा.. हमेशा आगे बढ़ते जाना। मां से किए वादे को पूर्ण करने के लिए अपनी मातृभूमि की रक्षा के लिए देश का युवा, सेना में आने के लिए, सेना के तौर तरीके सीखने के लिए, अपना खून पसीना एक कर देता है और भारतीय सेना का अभिन्न अंग बन कर अपने आप को गौरवान्वित महसूस करता है कुछ इस प्रकार का है हमारे देश का युवा रक्त। जिसकी धमनियों में रक्त का तूफान एक सैलाब बनकर उमड़ रहा है। सेना का कुशल नेतृत्व और अनुशासित वातावरण ऐसे सैलाब को नई दिशा और गति देगा। यह सेना के लिए भी गौरव की बात है।


            परंतु कुछ लोगों को इस बात से आपत्ति है कि अगर अनिवार्य सैन्य सेवा विकल्प को भारत की सेना का अंग बना लिया जाएगा तो इससे हमारी सेना कमजोर पड़ जाएगी। क्योंकि 3 वर्ष का समय (शॉर्ट सर्विस) काफी कम है। परंतु महोदय ऐसे लोगों को मैं यह बता देना चाहता हूं कि भारतीय सेना में कार्य करने के लिए 1 दिन भी अपने आप में बहुत बड़ी अवधि है। भारत जैसे देश जहां बेरोजगारी का ग्राफ दिन प्रतिदिन बढ़ता जा रहा है, योग्यता और काबिलियत सड़कों पर बेरोजगार घूम रही है। ऐसे में कम से कम तीन वर्ष के लिए भारतीय सेना में युवाओं को नौकरी देना और उनको सैनिक गतिविधियों का प्रशिक्षण देकर देश को वैश्विक स्तर पर एक नई दिशा देना अपने आप में प्रभावी, कारगर, सटीक एवं प्रभावपूर्ण शुभ संकेत हैं। जिस पर तुरंत कार्य होना चाहिए। इससे हमारे देश को और हमारी सेना को फायदा ही होगा। कोई नुकसान नहीं होगा।


            प्रशिक्षण किसी भी साधारण व्यक्ति को असाधारण बना सकता है। मैं यह मानता हूं कि पेशेवर सैनिक ज्यादा कारगर एवं प्रभावी, सटीक एवं कुशल नेतृत्व, रणकौशल में पूर्ण होता है। परंतु 'अनिवार्य मिलिट्री सेवा' के अंतर्गत भी प्रवेश लेने वाला अधिकारी या जवान प्रशिक्षित, अनुशासित वीरता और विवेक को धारण करने वाला ही होगा। क्योंकि देश के युवाओं को आर्मी से जोड़ने का यह सुनहरा अवसर है। अभी यह व्यवस्था प्रारंभिक चरण में ही है। इस व्यवस्था से धीरे-धीरे संपूर्ण राष्ट्र में देशभक्त, देशभक्ति और राष्ट्रवाद का उदय होगा। यह व्यवस्था नए वॉलिंटियर्स को जन्म देगी। जिससे भविष्य का राष्ट्र, हमारा भारतवर्ष अपनी प्राचीन गौरवमयी परंपरा का अनुसरण करेगा। वर्दी की इच्छा रखने वाले युवाओं के लिए भी यह क्षेत्र नए विकल्पों को लेकर आएगा 'अनिवार्य मिलिट्री सेवा' के अंतर्गत 3 वर्ष के कार्यकाल में 9 महीने की मिलिट्री ट्रेनिंग के साथ-साथ प्रवेश परीक्षा और मानसिक एवं शारीरिक मापदंड पहले जैसे ही रहेंगे इस बात से तो कोई समझौता नहीं किया गया है।

इसका सकारात्मक पहलू यह रहेगा कि सेना का पैसा बच जाएगा। जैसे ग्रेच्युटी पेंशन नहीं मिलेगी। अभी वर्तमान में 10 साल में अधिकारी पर कम से कम 5 करोड़ रूपये खर्च आता है। और 14 वर्ष तक जो अधिकारी सेना में कार्य करता है एक अनुमान के तहत 7 करोड़ रूपये उस पर खर्च होते हैं। परंतु अब यह मात्र 3 वर्ष में अगर 'अनिवार्य मिलिट्री सेवा' के अंतर्गत 'टूर आफ ड्यूटी' 'शॉर्ट सर्विस' विकल्प को अपनाया जाता है तो केवल 85 लाख में 3 साल के लिए सेवा ली जा सकती है। इसका एक लाभ यह होगा कि अगर पैसा बचेगा तो वह सेना के अन्य संसाधनों में प्रयोग किया जाएगा। अभी व्यवस्था प्राथमिक चरण में ही है। जिसमें 100 अधिकारी और 1000 जवान प्रारंभिक व्यवस्था को स्थाई धरातल प्रदान करेंगे।

            हमें इजराइल, रूस, उत्तर कोरिया, दक्षिण कोरिया, ग्रीस, स्विजरलैंड, तुर्की, ईरान, क्यूबा, नार्वे आदि देशों से सीखना चाहिए। यहां पुरुष ही नहीं बल्कि महिला भी अनिवार्य रूप से सैन्य सेवा के लिए समर्पित हैं। यहां भी मात्र निश्चित समय के लिए ही जिसमें 1 वर्ष या फिर 2 वर्ष तक 'अनिवार्य मिलिट्री सेवा' दी जाती है। महोदय प्रत्येक देश की भौगोलिक, सामाजिक और राजनीतिक व्यवस्था उस देश की सांस्कृतिक मूल्यों के अनुरूप ही होती है। परंतु हम विकसित राष्ट्र का चोला पहनकर वास्तविकता से तो मुंह नहीं मोड़ सकते और वास्तविकता यही है कि हमें समय के साथ चलना चाहिए। वैसे भी महोदय युद्ध हमेशा ही नहीं होते। फिर भी हमें हमेशा युद्ध की तैयारियों के अनुरूप व्यवस्था और अभ्यास को बनाए रखना चाहिए। यह भी एक कटु सत्य है कि युद्ध से बढ़कर भी देश की व्यवस्था को बनाना और सामाजिक एवं मानवीय प्रबंधन स्थापित करना है। देश को चलाना यह बात भी अपने आप में महत्वपूर्ण है।


 कुछ आलोचक धार्मिक, वैचारिक वह राजनीतिक रूप से 'अनिवार्य मिलिट्री सेवा' विकल्प को लेकर परेशान नजर आ रहे हैं। ऐसे लोगों को मैं यह कहना चाहता हूं कि भारतवर्ष की सांस्कृतिक विरासत के मूल में राष्ट्रवाद निहित है। यहां सब धर्मों से बढ़कर राष्ट्रवाद का सूरज चमकता है। यहां सूर्य की पहली किरण जब हिमालय पर्वत पर पड़ती है तो उसके प्रकाश से संपूर्ण भारतवर्ष उज्जवल सितारे की तरह चमकता है। ऐसे में भारत के प्रत्येक नागरिक का यह कर्तव्य बन जाता है कि देश की सुरक्षा वह इस प्रकार करे जैसे वह अपने घर की सुरक्षा करता हो।  


यह देश भारत के प्रत्येक युवा के सपनों का देश है। इसलिए इस देश के विकास और प्रगति के लिए और रक्षा सुरक्षा के लिए सभी की सहभागिता अत्यावश्यक है। देश के युवाओं से अपेक्षा अधिक है। इतिहास इस बात का गवाह है कि कई विदेशी आक्रांता हमारे देश में आतंक के मकसद से आए और हमें नुकसान पहुंचाया। हमारी संपत्ति को नुकसान पहुंचाया। अगर हमारी सुरक्षा व्यवस्था और एकता बनी रहती तो हम अंग्रेजों के गुलाम न होते। हम भारतीयों ने उपनिवेशवाद की लंबी यात्रा के बाद अपनी निजी विकास की यात्रा स्थापित की है। इसलिए हम सब का परम कर्तव्य बनता है कि समाज और देश के विकास में, मानवता के विकास के लिए कोई भी छोटा या बड़ा कार्य हो, उसमें प्रत्येक नागरिक का अंशदान होना चाहिए। भारत सभी धर्मों का देश है और राष्ट्र की प्रगति, उन्नति, सुरक्षा के लिए मानवता सबसे बड़ा धर्म है। मानवता की रक्षा के लिए 'अनिवार्य मिलिट्री सेवा' विकल्प बहुत जरूरी है। भारत का प्रत्येक नागरिक प्रशिक्षित और सैन्य क्षमताओं से पूर्ण प्रशिक्षित हो ऐसी व्यवस्था को जमीनी स्तर पर उतारने की योजना का स्वागत करना चाहिए।


            कुछ आलोचकों द्वारा यह कहा जा रहा है कि अनिवार्य मिलिट्री सेवा के लिए 'समय बहुत कम है।' परंतु यह उतना महत्वपूर्ण नहीं कम समय में भी देश का युवा सेना को शत प्रतिशत योगदान दे सकता है। यह तो कार्यशैली पर निर्भर करता है कि किस तरह कम समय में सटीक एवं प्रभावपूर्ण नेतृत्व द्वारा देशहित के लक्ष्य को ध्यान में रखते हुए कार्य को पूर्ण किया जा सकता है। कम समय में अधिक से अधिक युवाओं को प्रशिक्षित करके देश सेवा के प्रति समर्पण का भाव जागृत हो सके यह ज्यादा महत्वपूर्ण है। यह भविष्य का शुभ संकेत है। इससे सेना का तो हित होगा ही साथ ही देश का, देशवासियों का भी हित संभव है।


हम भारतीयों ने उपनिवेशवाद की लंबी यात्रा के बाद अपनी निजी विकास यात्रा प्रारंभ की है। भारत विविधता में एकता, वसुधैव कुटुंबकम, सर्वधर्म समभाव की नीति अपनाने वाला राष्ट्र है, यहां मानवता श्रेष्ठ धर्म है।


दुश्मन राष्ट्र हमारी सरहद पर बैठा है। अनिवार्य मिलिट्री सेवा के विकल्प पर अगर अभी भी कोई तटस्थ रहता है तो वह अपराधी है। 


'क्योंकि समर शेष है नहीं पाप का भागी केवल व्याध 

जो तटस्थ हैं समय लिखेगा उनके भी अपराध।'


*क्या अनिवार्य मिलिट्री सेवा से सेना का हित होगा ? विपक्ष-*


'यह गहन प्रश्न है कैसे रहस्य बताऊं 

पेशेवर सेना के गीत कैसे-कैसे बतलाऊं 

यहां सरहद पर खून की होली होती है 

आंसुओं से भीगा दामन और चोली होती है।'


यह कैसी विडंबना है? अनिवार्यता का कैसा यक्ष प्रश्न है? क्या यह बैठी हुई डाल को काटने के सामान न होगा? यह तो स्वयं के पैर को कुल्हाड़ी पर मारने के समान है। स्वरचित पंक्तियों के माध्यम से मैं अपनी बात कहना चाहता हूं कि बालक अगर अंगारों से खेलना चाहे तो उसे यह करने नहीं दिया जाता। हाथ बढ़ाकर आसमान के तारे नहीं तोड़े जाते हैं। हर लक्ष्य तक विजय प्राप्त करने के लिए एक कुशल रणनीति का होना अति आवश्यक है। और कुशल रणनीति के लिए अभ्यास के साथ-साथ समय की भी जरूरत होती है। कम समय में पेड़ की जड़े भी मजबूत नहीं होती और ना ही उसकी शाखाएं उतनी परिपक्व हो पाती हैं। जितनी कि हम उस पेड़ से अपेक्षाएं रखते हैं। कच्ची मिट्टी का घड़ा भी अधिक देर तक जल को संचित नहीं रख सकता है। जिन पत्थरों का एक निश्चित आकार नहीं होता वह नदी के बहाव की दिशा में बह जाते हैं। ऊंची इमारत बनाने में नींव के पत्थरों को भी समय देकर तराशा जाता है। छैनी और हथौड़े की एक-एक चोट से उसके आकार को साकार किया जाता है। तब जाकर एक मजबूत इमारत खड़ी होती है।


 ठीक उसी प्रकार मनुष्य भी है उसको भी वस्तुओं को सीखने में समय लगता है। जल्दबाजी में किया गया कार्य हमेशा गलत परिणाम ही देता है। क्रोध में मीठी बात भी बुरी लगती है महोदय। कार्य की सफलता उसके उद्देश्यों में ही निहित होती है।


            निश्चित अवधि के लिए सेना के द्वार नहीं खोले जा सकते। यहां इनकमिंग समर्पण, देश सेवा, राष्ट्रभक्ति, अनुशासन और भारत माता की जय से प्रारंभ होती है और जब एक सैनिक की आउटगोइंग होती है तो वह तिरंगे का दामन लपेट कर, परम विजयी होकर परमवीर चक्र विजेता कहलाता है।


            आज अनिवार्य मिलिट्री सेवा की जो बातें चल रही हैं इसमें सेना का विशेष हित नहीं दिखता। यह एक बिना उद्देश्य की योजना है। क्या पैसा बचाना उद्देश्य है? या एक कुशल सेना का गठन करना पहली प्राथमिकता होनी चाहिए? यह सोचने की बात है महोदय हम देश की सुरक्षा व्यवस्था से कोई समझौता नहीं कर सकते सरकार जो 'टूर आफ ड्यूटी' के विकल्प के साथ 'अनिवार्य सैन्य सेवा' को लेकर प्रस्ताव रख रही है यह अकुशल लोगों को सेना में प्रवेश दिलाकर सेना को कमजोर करने वाली बात होगी।


            अनिवार्य मिलिट्री सेवा के नाम पर देश के युवाओं को मात्र 3 वर्ष सेना में प्रवेश दिला कर क्या हम एक मजबूत सेना का गठन कर पाएंगे?


            'टूर आफ ड्यूटी' के विकल्प को अपनाकर हम क्या पूर्ण रूप से प्रशिक्षित सेना का निर्माण कर पाएंगे?


            मैं यह स्पष्ट रूप से कहना चाहता हूं कि भारतीय सेना कोई टूरिस्ट प्लेस नहीं है कि यहां तीन वर्ष आओ और जाओ..! सेना की रणनीति को समझने के लिए 3 वर्ष का समय ऊंट के मुंह में जीरे के समान है।


यूनिट में आकर ऑफिसर्स और सेना के जवान को कई कोर्स करने होते हैं। जैसे 'यंग ऑफिसर्स कोर्स' समय-समय पर कराए जाते हैं। केवल अकादमी में ही ट्रेनिंग नहीं होती है। अकुशल व्यक्ति को सेना में कम समय के लिए रखना एकदम खतरे का काम है। अनिवार्य मिलिट्री सेवा से तो बेहतर यह होगा कि वर्तमान में जो अधिकारी हैं उनसे ही काम लिया जाए या फिर नए पदों को भरने के लिए अधिक से अधिक विज्ञप्तियां निकाली जाएं।  


वर्तमान सेना की संख्या बढ़ाने के लिए राज्य स्तर, जिला स्तर, तहसील स्तर, ब्लॉक स्तर, विश्वविद्यालय, महाविद्यालय या फिर विद्यालय स्तर पर भर्ती रैली का आयोजन किया जाए। साथ ही विद्यालयी शिक्षा से लेकर विश्वविद्यालय शिक्षा तक रक्षा- सुरक्षा, डिफ़ेंस स्टडीज एवं मेकैनिज्म अनिवार्य विषय को पाठ्यक्रम के केंद्र में लाया जाए। मानसिक और शारीरिक रूप से युवाओं को मजबूत बनाने के लिए योगाभ्यास को अनिवार्य किया जाए। NCC और NSS से सहयोग लिया जाए। शिक्षा, चिकित्सा और कृषि के क्षेत्र में आत्मनिर्भरता के भाव पैदा किए जाएं। राष्ट्र सेवा के लिए उपर्युक्त तीनों विषयों में कई क्षेत्र खुले हैं। युवाओं को बस दिशा देने की देर है। देश में NCC और NSS की इतनी शाखाएं हैं कि यहां काम करने वाले वॉलिंटियर्स को सेना की मुख्य धारा से जोड़ा जा सकता है। अगर देशभक्ति, राष्ट्रवाद, देश सेवा की बात है तो मात्र 3 वर्ष के लिए ही क्यों ? या कम समय के लिए ही क्यों ? कम से कम 10 वर्ष या उससे अधिक क्यों नहीं?

अगर हम इजराइल, रूस, उत्तर कोरिया, दक्षिण कोरिया, नार्वे, स्विजरलैंड, तुर्की, ग्रीस, ईरान या क्यूबा जैसे देशों से अगर हम अपनी तुलना करने की सोच रहे हैं तो अनिवार्य सेना के विकल्प वाली बात समझ से परे है। भारत एक विकसित राष्ट्र नहीं है। हमारा देश अभी विकास कर रहा है। हमारा सामाजिक, राजनीतिक और भौगोलिक परिवेश हमें इस बात की इजाज़त नहीं देता कि हम सैन्य संसाधनों एवं सुरक्षा चक्रों की गोपनीयता को समाज के समक्ष लाकर अनिवार्य सैन्य विकल्प को प्रस्तुत करते हुए रक्षा सूत्रों को सांझा कर दें।


            हमारे पड़ोसी देश पाकिस्तान और चीन के साथ हमारे हालात नहीं बदले, आए दिन टकराव होता रहता है क्या ऐसे समय में सेना के ढांचे में बदलाव करना ठीक रहेगा? क्या यह रक्षा बजट बचाने के लिए देश की सुरक्षा व्यवस्था से समझौता तो नहीं? सरकार का कुछ बजट बचाने के लिए शार्ट सर्विस व्यवस्था, अनिवार्य मिलिट्री सेवा का विकल्प घातक साबित हो सकता है। क्योंकि अकुशल नेतृत्व से सुरक्षा व्यवस्था के साथ कोई समझौता नहीं किया जा सकता।  


            आर्मी की सर्विस 3 साल देकर क्या हम युवाओं को प्राइवेट इंडस्ट्रीज के लिए छोड़ दें? यह तो प्राइवेटाइजेशन को बढ़ावा देने वाली बात हुई। कम से कम हमें सेना को प्राइवेटाइजेशन से दूर रखना चाहिए। एक परिपक्व युवा को प्रशिक्षित अधिकारी बनने में बहुत लंबा समय लगता है और फिर शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य भी बहुत जरूरी है। क्या इन बातों से समझौता किया जा सकता है?   


            हम कैसे भूल गए कि हमने सन् 1962, सन् 1971, सन् 1999 और प्रत्येक दिन LOC/LAC पर प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से युद्ध के माहौल से गुजर रहे हैं? क्या ऐसे में यह सही रहेगा कि हम कम प्रशिक्षित लोगों को सेना की मुख्यधारा से जोड़ दें?


            'अनिवार्य मिलिट्री सेवा' विकल्प के तहत इस फार्मूले को देश की आंतरिक व्यवस्था सुधारने के लिए कुछ क्षेत्र में अपनाया जा सकता है। जैसे भूस्खलन प्रभावित क्षेत्र, बाढ़ प्रभावित क्षेत्र, भारत के तटवर्ती क्षेत्रों में, आपदा प्रबंधन, पर्यावरण संरक्षण, केंद्र तथा राज्य स्तर की पुलिस फोर्स के अकादमिक तथा कार्यालयी कार्यों में, राज्य लोक सेवा आयोग से संबंधित क्षेत्रों में, देश की बहुचर्चित इमारतों, मंदिरों की सुरक्षा आदि क्षेत्रों में इस फार्मूले को अपनाकर प्रभावी बनाया जा सकता है। उपर्युक्त इन सभी क्षेत्रों में देश का युवा वर्ग अपनी शत-प्रतिशत सहभागिता निभाएगा।


आज हमें सेना में सूचना तकनीकी को और अधिक सक्रिय एवं मजबूत करने की महत्वपूर्ण आवश्यकता है। इस दिशा में कुछ वर्षों की शॉर्ट सर्विस या 'अनिवार्य सैन्य सेवा' फार्मूले को नहीं अपनाया जा सकता है। क्योंकि सूचना एवं तकनीकी तंत्र देश की सुरक्षा का मामला है यहां समझौता करना ठीक नहीं। सूचना और तकनीकी के क्षेत्र में सेना को तो स्थाई रूप से मजबूत बनाना समय की मांग है। हमें 'अनिवार्य सैन्य सेवा' फार्मूले को वर्तमान की 'प्रादेशिक सेना' के विकल्प के रूप में अपनाना चाहिए।


            वैसे भी देश के युवाओं को अगर राष्ट्र सेवा करनी है तो अन्य बहुत सी ऐसी संस्थाएं हैं, अन्य बहुत से ऐसे कार्य हैं, कई क्षेत्र हैं जहां 3 वर्ष क्या उससे भी अधिक वर्षों तक सेवा दी जा सकती हैं। देश का युवा मस्तिष्क अन्य कई क्षेत्रों में जैसे शिक्षा, चिकित्सा, कृषि में प्रयोग में लाया जा सकता है। जिससे ब्रेन ड्रेन जैसी समस्या का निवारण भी हो जाएगा। परंतु क्या महज 3 वर्ष देश के युवा को अनिवार्य सैनिक सेवा दिलाकर हम अपनी ही राष्ट्रीय सुरक्षा और आंतरिक व्यवस्था को कमजोर न कर देंगे। कम समय के लिए आने वाले युवा वर्तमान सैन्य अधिकारियों से कैसा समायोजन रख पाएंगे यह भी अपने आप में विचारणीय प्रश्न है। इस प्रकार से तो हम एक कमजोर व्यवस्था बना रहे हैं। जो देखने में तो अच्छी होगी परंतु कार्यकुशलता और नेतृत्व में दीमक खाई हुई लकड़ी की तरह होगी। जो ना मजबूत आधार दे पाएगी और ना ही एक मजबूत सुरक्षा चक्र स्थापित कर पाएगी। हमें एक मजबूत राष्ट्रीय सुरक्षा चक्र स्थापित करना है तो हमें कम से कम 10 से 15 वर्ष तक 'अनिवार्य मिलिट्री सेवा' के लिए देश के युवाओं का चयन करना होगा और शारीरिक, मानसिक मापदंडों में कोई समझौता नहीं करना होगा।

हमारे सामने अतीत की कई कड़वी यादें हैं। हम अतीत और आज वर्तमान में प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से आतंकवाद, नक्सलवाद से जूझ रहे हैं। क्या तीन वर्ष की सेवा लेकर इन युवाओं को प्राइवेट इंडस्ट्रीज के लिए छोड़ दें? क्या सुरक्षा चक्रों की गोपनीयता को साझा कर दें? क्या देश की सुरक्षा व्यवस्था के साथ यह उचित होगा?

क्या सरकार अपनी कलम से वीरों का भाग्य इस तरह लिखेगी? जिन वीर सैनिकों ने देश पर सर्वस्व लुटा दिया उनकी जगह अनुभवहीनों का चयन कहां तक न्याय संगत है? राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर की यह पंक्तियां ऐसे ही वीर भारतीय सैनिकों की जय बोलेगी जिनकी बदौलत हम आज यहां हैं-

'जला अस्थियां बारी-बारी 

चिटकाई जिनमें चिंगारी 

जो चढ़ गए पुण्यवेदी पर 

लिए बिना गर्दन का मोल

कलम आज उनकी जय बोल।'

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©डॉ. चंद्रकांत तिवारी

प्रकृति का पुनर्मूल्यांकन डॉ. चंद्रकांत तिवारी

 *प्रकृति का पुनर्मूल्यांकन-*

 ©चंद्रकांत


संपूर्ण ब्रह्मांड में एक से बढ़कर एक ग्रह, नक्षत्र उपग्रह मौजूद हैं। इन सबके बीच हमारी पृथ्वी भी अनोखी और कई रहस्यों को अपने गर्भ में समेटे हुए है।

प्रकृति हमारी कल्पनाओं से भी कहीं अधिक सुंदर एवं मनभावन है। हमारी कल्पनाओं का क्षितिज तो बहुत सूक्ष्म एवं अल्पजीवी है। परंतु प्रकृति की सुंदरता समय के प्रत्येक पल के साथ बदलती रहती है। कई रंगों का समूह इसकी सुंदरता और रहस्य को गुणात्मक रूप में बढ़ाता रहता है।

प्रकृति अमूल्य है। इसकी प्रत्येक घटना एक संकेत है।

हमें इसका मूल्य पहचानना होगा। प्रकृति प्रेमी बनने की पहली शर्त पर्यावरण के प्रति समर्पण और सौहार्द्र की भावना होनी चाहिए। हम जिस समाज में रहते हैं वह चारों ओर से प्रकृति के सुंदर दृश्यों से घिरा हुआ है। जीव-जंतु, पशु-पक्षी वृक्ष-लताएं, फल-फूल, जल, जमीन, जंगल कुल मिलकर एक ऐसा प्राकृतिक परिवेश का निर्माण करते हैं जो हमारे जीवन के स्तर को जीने योग्य बनाता है। हम सब प्रकृति की ही संतान हैं। प्राकृतिक परिवेश में ही हम जन्म लेते हैं और अंततः अपने जीवन की विकास यात्रा को प्रकृति में ही समाहित करते हुए पुनः प्रकृति की गोद में नए बीज की तरह अंकुरित हो जाते हैं। कुल मिलाकर हम प्रकृति और इसकी परिधि से कभी अलग हो ही नहीं सकते हैं। प्रकृति हमारी सांसों में निरंतर गतिशील होते हुए हमें जीवन जीने की कला सिखाती है। प्रकृति हमें एक ऐसी शिक्षा देती है जो जीवन भर सतत-अनवरत और निरंतर गतिमान रहती है। प्रकृति की शिक्षा और प्रकृति का व्यवहार गुणात्मक फल कारक है। हम स्वयं परस्पर तो अलग हो सकते हैं परंतु प्रकृति से हम कभी भी अलग नहीं रह सकते। क्योंकि प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से हमारा जीवन प्रकृति की ही देन है। 


सूर्य से हमें ऊर्जा मिलती है और चंद्रमा से शीतलता मिलती है। आकाशीय नक्षत्र हमारे ग्रह चाल के दिशा निर्देशक हैं। रात्रि विश्राम की स्थिति तो भोर का उजाला जीवन की नई दिशा है। वायु हमें प्राणवायु का बीज मंत्र देते हुए निरंतर पल्लवित, पुष्पित और प्रफुल्लित करती रहती है और ताजगी से परिपूर्ण बनाए रखती है। मिट्टी की महक हमें अपनी जड़ों से जोड़ें रखती है। प्रकृति की कोई भी वस्तु अकारण नहीं है। हर वस्तु का स्थान, समय और स्थिति सुनिश्चित है और मानवता के हितार्थ है। परंतु मनुष्य ही अपनी स्वार्थ-सिद्धि के लिए इस पारिस्थितिक चक्र को बिगाड़ने में तुला है। स्थिति ऐसी है कि जिस डाल पर मानवता बैठी है उसी डाल को अपनी कुछ स्वार्थ की पूर्ति के लिए कुल्हाड़ी से काट रही है।


हम कैसे भूल सकते हैं कि हमारे आराध्य देव, हमारे पूज्य देवी देवता भी तो प्रकृति से ही जुड़े हुए हैं। कैलाश पर्वत से लेकर क्षीरसागर, महासागर, नदी, तालाब, पोखर, जलाशय, ऊंचे घने जंगल, वृक्ष-लताएं, कंकड़-पत्थर, फल-फूल, पत्थर की मूर्तियों सभी तो प्रकृति के उपमान हैं। हमारे तीज-त्योहार सब प्रकृति की ही तो देन है। हम जन्म से ही प्रकृति से जुड़े और प्रकृति ही हमारे अंतर्मन में विराजमान है। कभी देवता बनकर कभी दानव बनकर तो कभी अतिमानव बनकर हमें जीवन जीने के नए-नए तौर-तरीके सिखाती है। तो दूसरी ओर जीने की प्रेरणा भी देती रही है। मानव सभ्यता की सार्थकता इसी बात में निहित है कि प्रकृति के विकास के साथ-साथ उसका भी विकास होता आया है। यह एक ऐसा संतुलन है जो तराजू के दोनों हिस्सों को समान परंतु मानवता के हितार्थ समर्पित बनाता है। 


परंतु आज आधुनिक परिवेश की स्थिति कुछ और ही बयां करती है। जिस वैश्विक जगत में हम रहते हैं वह विकास के चक्रवात में फंसता जा रहा हैै। हम अपनी वास्तविक जन्मभूमि, मातृभूमि से अलग होते जा रहे हैं। गांव के गांव खाली होते जा रहे हैं। भाषा, साहित्य, संस्कृति सभ्यता के अखाड़ेबाजी में दम तोड़ रही है। परमार्थपरायण से बढ़कर भी मनुष्य के स्वार्थ हैं। ऐसे में प्रकृति की ओर अपनापन कहां रह जाता है? जिस पर्यावरण को लेकर ऊंचे-ऊंचे मंचों पर बड़ी-बड़ी बातें, बड़ी-बड़ी योजनाएं मन बहलाने के लिए होती हैं वह पर्यावरण प्रकृति से मनुष्य को दूर कर रहा है। ऐसी पर्यावरणीय योजनाओं एवं दावों में विकास तो है परंतु वृद्धि नहीं। जीवन तो है परंतु जीवन जीने की कला नहीं। बनावटी रंग तो हैं परंतु फूलों-सी कोमलता नहीं। दिखावा तो है परंतु सहजता नहीं। किराए की जिंदगी है परंतु अपनापन नहीं। गति तो है परंतु गहराई नहीं। कह सकते हैं कि एक लंबे सफर पर निकल चुके हैं। परंतु न लक्ष्य दिखता है न मंजिल दिखती है और न ही गंतव्य पर पहुंचने की कोई खुशी होगी। बस चलते ही जाना है एक अंधेरे और सुनसान जंगल से गुजरने वाले रास्ते पर।


शिक्षा, चिकित्सा और कृषि तीनों ही प्रकृति की देन हैं। हमें इस नियामक दिन को पहचानना होगा जिसे हम पर्यावरण दिवस के रूप में मनाते हैं। हमें अपनी शिक्षा व्यवस्था में स्थानीय संसाधनों के अनुसार बदलाव करने होंगे। हमें ऐसी शिक्षा व्यवस्था को निर्मित करना होगा जो प्रायोगिक एवं व्यावहारिक स्तर पर हमें प्रकृति के विविध रूपों, उपमानों से अपनापन बनाए रखने में सक्षम बनाएं। पर्यावरणीय अध्ययन के सूत्र एवं उद्देश्य कक्षा-कक्ष शिक्षण तक ही सीमित नहीं होने चाहिए। यह सिद्धांत से अधिक व्यवहार का विषय है। यह तो प्रायोगिक विषय क्षेत्र है। इसे खुले आकाश के तले व्यावहारिक एवं प्रायोगिक रूप से ही सहजता एवं अपनेपन के साथ अपनाया जा सकता है।


हमारी शिक्षा व्यवस्था ऐसी होनी चाहिए कि जिसके केंद्र में हमें यह सिखाया जाना चाहिए कि हम अपनी प्रकृति को किस प्रकार से सुरक्षित रखते हुए उसका संरक्षण कर सकें। हमारी विद्यालयी शिक्षा के केंद्र में पर्यावरण संबंधी ज्ञान होना चाहिए। स्कूली पाठ्यक्रम में हमें बदलाव करने की आवश्यकता है। हमें एक ऐसा पाठ्यक्रम निर्मित करना होगा जो विद्यार्थियों को सैद्धांतिक पक्ष के साथ-साथ व्यावहारिक कौशलों में भी कुशल एवं पारंगत बनाएं। छात्रों को आत्मविश्वासी , आत्मजीवी बना सकें। उनके हाथों को प्राकृतिक रूप से काम मिल सके। गति मिल सके। सक्रियता मिले। अनुभव एवं स्पर्श मिल सके। कुछ ऐसा कार्य करना होगा जिससे विद्यालय से उत्तीर्ण होकर निकलने वाला विद्यार्थी आसानी से अपना जीवन यापन कर सके। हमें अपने स्कूली पाठ्यक्रम में ढांचागत परिवर्तन करना होगा। कक्षा-कक्ष शिक्षण को स्थानीय संसाधनों से जोड़ना होगा। प्रकृति के प्रांगण में ऐसे कई उद्योग हैं। कई कुटीर उद्योग और कई लघु उद्योग विद्यार्थियों को नवजीवन दे सकते हैं। इस बात को सरकार एवं प्रशासन को समझना होगा। पर्यावरण शिक्षा का केंद्र पाठ्यक्रम ही नहीं है। किताबी ज्ञान ही नहीं है। उससे बढ़कर भी बहुत कुछ है। परंतु हम पर्यावरण शिक्षा को मात्र पाठ्यक्रम तक ही समाहित करके चल रहे हैं। हम अपने छात्रों को पर्यावरण संबंधी ज्ञान तो रटा देते हैं परंतु व्यावहारिक एवं प्रायोगिक स्तर पर हम उन्हें प्रकृति के साथ जोड़ने में नाकाम रहे हैं। जब तक हम अपने छात्रों को प्रकृति के विभिन्न आयामों से नहीं जोड़ेंगे, कृषि एवं सहकारिता, पशुपालन, मौन पालन, मत्स्य पालन, मुर्गी पालन, भेड़ पालन इसी तरह के अन्य कई लघु एवं कुटीर उद्योग जिससे आजीविका और रहन-सहन सुचारू एवं सरल गति से चल सके यह सब विद्यालयी शिक्षा के केंद्र में होना चाहिए। तब तक हम उन विद्यार्थियों के भीतर पर्यावरण शिक्षा के प्रति अपनापन पैदा नहीं कर पाएंगे। हमें तो अपने विद्यार्थियों को प्रकृति प्रेमी बनाना है। हमारी शिक्षा व्यवस्था में हमें अपने विद्यार्थियों को प्रकृति के नजदीक ले जाकर जीवन जीने की कला सिखाना है। प्रकृति को सहेजने का भाव तभी विकसित हो पाएगा जब हम प्रकृति से तादात्म्य स्थापित कर पाएंगे। हमें प्राथमिक स्तर से ही यह कार्य प्रारंभ कर देना चाहिए। बच्चों का हृदय कोमल होता है। प्रकृति की संवेदनाओं को सहेजने की शक्ति उनके भीतर अधिक होती है। इसके लिए विद्यालय स्तर पर प्राचार्य और व्याख्याताओं को, विश्वविद्यालय स्तर पर विभागाध्यक्ष एवं कुलपति को जिले स्तर पर डीएम और विधायकों को राज्य स्तर पर मुख्यमंत्री द्वारा समय-समय पर विशेष आयोजनों एवं कार्यनीतियों द्वारा, विशेष रूप से अपना शत-प्रतिशत योगदान देना होगा। तभी पर्यावरण शिक्षण के सूत्र एवं उद्देश्य सफल हो पाएंगे नहीं तो स्थितियां ढांक के तीन पात वाली कहावत ही चरितार्थ होती रहेगी। हमें कवियों एवं साहित्यकारों के जीवन को प्रकृति की विभिन्न गतिविधियों के साथ जोड़ते हुए चलना होगा। सरकारी आंकड़ों को पूरा करने के लिए हमें दिवस मनाने की कोई आवश्यकता नहीं है। हमें तो दिवस उसकी वास्तविक रूपरेखा एवं कार्य-योजना, कार्य-नीति और निश्चित उद्देश्यों पर अपनाने की जरूरत है।


छात्रों को पर्यावरण का अध्ययन करवाते वक्त हमें अंतरसंबद्धता के सूत्र को पहचानते हुए पर्यावरण का अन्य विषयों से तुलनात्मक अध्ययन-अध्यापन करवाना होगा। कक्षा-कक्ष शिक्षण की पहली शर्त अंतरसंबद्धता के सिद्धांत पर आधारित होनी चाहिए। भूगोल, इतिहास, कृषि, सामाजिक विज्ञान, विज्ञान, चिकित्सा शास्त्र, साहित्य एवं मानव शास्त्र सभी के केंद्र में पर्यावरण नीतियों का समुच्चय है। और भाषा तो एक ऐसा साधन है जो व्यक्ति को स्थानीय होने का मौका देती है। स्थानीय गतिविधियों से जोड़ती है। स्थानीय विषय वस्तु से जोड़ती है। इस प्रकार पर्यावरण का शिक्षण और अध्ययन सहज, सरल एवं प्रकृति की प्रवृत्ति के अनुरूप बनेगा तो मानवता का विकास उस विकास की प्रकृति के अनुरूप ही चलता रहेगा।


इस प्रकार प्राथमिक स्तर से लेकर उच्च शिक्षा तक विशेष पर्यावरणीय अध्ययन-अध्यापन द्वारा देश में विशेषज्ञों, शोधार्थियों, नवाचारों का विकास होगा। जो आज वर्तमान महामारी के दौर में अति आवश्यक है। आज हमारे विश्वविद्यालयों में पर्यावरण संबंधी, उसकी मूलभूत संकल्पनाओं को आधार बनाते हुए समग्रतावादी विकास के लिए, नवाचारी रूप से विभिन्न आयामों पर शोध कार्य किया जाने की आवश्यकता है। हमें भाषा एवं साहित्य को कृषि एवं पर्यावरण से जोड़ते हुए अध्ययन करना होगा। हमें भूगोल एवं इतिहास के साथ-साथ पर्यटन को भी पर्यावरण से जोड़ना होगा। बढ़ती जनसंख्या एवं वर्तमान संदर्भों के आधार पर हमें नये चिकित्सा सिद्धांत पर्यावरण विज्ञान द्वारा ही खोजने होंगे। प्रकृति की गोद में जीवन और मरण, विष और अमृत दोनों ही है यह तो हमारी पात्रता होनी चाहिए कि हम किसका चयन करते हैं। वर्तमान समय में शोध हो रहा है वह पर्याप्त नहीं है। परंतु शोध के साथ-साथ हम वास्तविकता से अलग भी होते जा रहे हैं। हमारे शोध मानवता के विकास कार्यों के लिए होने चाहिए। न की मानवता के विनाश के लिए।हम अपनी जड़ों से दूर होते जा रहे हैं। इस दिशा की ओर हमें गंभीर चिंतन करने की आवश्यकता है। सोचना होगा देश के आम नागरिक को। क्योंकि आम नागरिक की मूलभूत आवश्यकताएं, उसका रहन-सहन और खान-पान प्रकृति से ही जुड़ा हुआ है। हमें लोकल फॉर वोकल की दिशा में कार्य करना होगा।

 

शिक्षा, चिकित्सा और कृषि में अपार संभावनाएं हैं। मध्य हिमालयी क्षेत्र और उच्च हिमालयी क्षेत्र में असंख्य मूल्यवान धरोहर बांह पसारे खड़ी है। जीवन रक्षक औषधियों का विशाल भंडार यहां की अपार संपदा में बिखरा पड़ा है। प्रकृति सर्वदाता है। मनुष्य जन्म से ही प्रकृति का ऋणी है और आजीवन रहेगा। वर्तमान संदर्भों में प्रकृति को समझना प्रासंगिक बन गया है। इसलिए प्रकृति के विभिन्न आयामों का ठीक से पुनर्मूल्यांकन होना चाहिए। हमें इस दिशा में सतत एवं क्रियाशील होकर कार्य करना होगा।


पर्यावरण शिक्षा का एक अन्य मुख्य आधार सामान्य जनमानस को पर्यावरण की शिक्षा देना भी है। क्योंकि कम ज्ञान के कारण सामान्य जनमानस द्वारा भी पर्यावरण को अधिकांश रूप से क्षति पहुंचाई जाती है। हमारा साधारण एवं स्थानीय जनमानस अगर पर्यावरण संरक्षण को समझेगा तो प्रकृति की धरोहर सुरक्षित एवं संवर्धित रह पाएगी। इस संबंध में सूचना एवं तकनीकी द्वारा, डिजिटल माध्यम द्वारा, इंटरनेट मीडिया द्वारा, ऑनलाइन शिक्षण द्वारा, वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग के द्वारा, टेलीकम्युनिकेशन द्वारा, सभी सूचना तकनीकिओं का इस्तेमाल करते हुए, स्थानीय भाषा में, लोक गीतों में, नुक्कड़ नाटकों द्वारा पोस्टरों द्वारा, चौपालों द्वारा, कठपुतलियों के खेलों द्वारा, सोशल यूटिलिटी प्रोडक्टिव वर्क के माध्यम से, आंगनवाड़ी द्वारा, ग्राम सभाओं द्वारा, ब्लॉक स्तर द्वारा, जिले स्तर पर डीएम द्वारा एवं स्थानीय वॉलिंटियर्स द्वारा जागरूकता बनाते हुए राज्य स्तरीय एवं केंद्र स्तरीय मूल्यांकन एवं आंकलन किया जाना चाहिए। पर्यावरण शिक्षण एवं प्रकृति का अध्ययन नैतिक शिक्षा के केंद्र में होना चाहिए। इस बात में कोई शक नहीं रह जाता कि पर्यावरणीय अध्ययन का मूल्यांकन बहुत जरूरी है। यह मूल्यांकन तभी संभव होगा जब प्रकृति का पुनर्मूल्यांकन किया जा सकेगा। क्योंकि प्रकृति के प्रांगण में पर्यावरणीय क्षेत्र, जैव-विविधता, जीव-संरक्षण, जल, जीवन और जमीन निहित है। पर्यावरण की काल्पनिक चारदीवारी के भीतर संपूर्ण प्राणी जगत, प्राणी जगत के समकक्ष समाज और समाज के सापेक्ष परिवार और प्रत्येक परिवार मनुष्यों का एक समूह है। रिश्ते-नाते, भावनाओं का समुच्चय हैं। जो अपनी संपूर्ण गतिविधियों के लिए प्रकृति पर ही निर्भर रहता है। हमें प्रकृति की विभिन्न शक्तियों को पहचानना होगा। इसलिए प्रकृति के विविध उपादानों का पुनर्मूल्यांकन बहुत जरूरी है। मानवता के इतिहास का, उसके उद्भव का, उसके विकास का पुनर्मूल्यांकन बहुत जरूरी है। उसके रहन-सहन का, उसके खानपान का, उसके तीज-त्योहारों का, उसके परस्पर संबंधों का, उसका जीव-जगत, पादप संपदाओं से, आत्मिक संबंधों का पुनर्मूल्यांकन बहुत जरूरी है। हमें प्रकृति को अपने मन के भीतर ढूंढना होगा और अपने मन को दूसरे के मन से मिलाने का भाव रखना होगा। हमें प्रकृति से तादात्म्य स्थापित करते हुए अपनेपन का एहसास भावात्मक स्तर पर ढूंढना होगा। हमें प्रकृति से भावनात्मक रूप से जुड़ने की जरूरत है। परमार्थ के कल्याण के लिए यथार्थ से लड़ना होगा, वह भी बिना स्वार्थ के। 

क्या हम ऐसा कर पाएंगे ?


"पर्वत, जंगल के आधार, वृक्ष लगाओ कई हजार 

मिट्टी, पानी और फुहार, मानवता को मिलेगा प्यार

कदम बढ़ाओ मिलकर चार, सुखी रहेगा घर-परिवार

सुखी रहेगा घर-परिवार, शीतल-शीतल मंद-बयार।"


© डॉ चंद्रकांत तिवारी

fb-Chandra Tewari

5 जून 2021 पर विशेष 

भोर की किरणें ( कविता- चंद्र कांत)

 ओस की बूंदों में सिमटी पत्तियां  

हरी घास के घरों में लिपटी पत्तियां

डाल से टूटती-बिखरती पत्तियां

अभिव्यक्ति के सारे ख़तरे उठाती पत्तियां।

रात्रि-गर्भ से निकलती कलियां

विपरीत हवा के जाती कुछ डालियां

हवा में झूमती-नाचती कुछ बालियां 

सूर्य किरणों से टूटती हैं भ्रम-जालियां।


आंख खोल चूमती 

रजत किरणों को कलियां

चिड़ियों के मधुर गीतों की ध्वनियां

गूंजती हैं वातायन में लहरियां।


हवा, धूल-मिट्टी, ओस की बूंदों संग 

लिपटी शाखाएं तनकर

पत्तियों का भीगा-बदन चुप रहकर

मुंह धोती फुहारें बरसात बनकर 

मुरझाए फ़ूल खिल उठे हैं फिर तनकर


सूर्य की किरणों ने तन को पोंछ डाला

खुल गया है रात्रि का कमज़ोर ताला

भोर की किरणों ने आकर पास मेरे

कानों में जीवन का मंत्र फूंक डाला।

©चंद्रकांत

fb-Chandra Tewari

दीवारें ख़ामोश हैं (कविता- चंद्र कांत)

 आज बहुत लंबी बातें हुई 

चुपचाप,मौन बनकर एकटक निहारते

देहली,छज्जे,आंगन के पत्थर

और कुछ पेड़ों से झूलती टहनियों से

आज बहुत वर्षों बाद गीली हो गई चौखट

आंखों में पानी उतर आया।

सीढ़ियां आज कितनी छोटी लगती हैं

दो कदमों में देहली के अंदर और बाहर 

जब सीढ़ियां बड़ी हुआ करती थीं

नाप-तोल करती बचपन का संसार

छोटे कदमों की आहट का अनुमान

भांप लेती थी मां

मेरे लड़खड़ाने से पहले।

अब दीवारें ख़ामोश हैं 

सूखी मिट्टी की तरह-बेजान रेत-सी

हां आज बहुत लंबी बातें हुई 

चुपचाप,मौन बनकर एकटक निहारते

आज कई वर्षों बाद घर की दीवारें देखी हैं 

इन दीवारों से बचपन का नाता है।

© चंद्रकांत

fb-Chandra Tewari