©डॉ.चंद्रकांत तिवारी
माँ की शिक्षा
उठो लाल अब ऑखें खोलो
कहकर माँ ने मुझे जगाया था
कपड़े में सत्तू बांध- लपेट
कुछ मुंह में कुछ भर के पेट
जंगल की पथरीली राह
अक्सर हो जाते थे लेट
माँ ने शिक्षा डाली थी
प्रथम - वंदना गुरु से भेट!
बचपन की पाठशाला में
खुशियों के ढ़ेर निराले थे
कहीं तितलियाॅ कहीं पतंगे
कहीं मकड़ी के जाले थे।
बिना बात पर भी लड़ते थे
साथ बैठकर भी पढ़ते थे
मिट्टी संग खेल निराले थे
महलों से सपने पाले थे !
टीचर का डंडा खाना था
शिक्षा का मूल्य चुकाना था
माँ-शिक्षा के आगे नतमस्तक था
सीधा घर ही वापस आना था
और खेल-खेल में चढ़कर-गिरकर
खोज रहे हम बालक मिलकर
शिक्षा का दीप जलाना था
रहस्य ज्ञान का पाना था ।
छूट गया बचपन का पाॅव
पीछे रह गया मेरा गाॅव
अब हर इच्छाओं पर स्पर्धा है
और रंग-बिरंगे ताले हैं
ज्ञान-भेद बतलाने को
जीवन का मूल्य चुकाने को
पहले माँ ने ही मुझे जगाया था
शिक्षा का मूल्य सीखाया था!!
स्वरचित कविता
डॉ. चंद्रकांत तिवारी
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें