रविवार, 15 जून 2025

आज पितृ दिवस, फादर्स डे है 15 जून ©डॉ. चंद्रकांत तिवारी

 *छात्र-छात्राओं के लिए आज विशेष रूप से महत्वपूर्ण पल---*

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*आज पितृ दिवस,  फादर्स डे है 15 जून* 


उस पिता को नमन/ सादर अभिवादन जिसने हमारी पढ़ाई लिखाई में मेहनत परिश्रम करके हमें रूपए पैसे दिए हैं।


उस पिता को नमन /सादर अभिवादन  जिसने फटे पुराने कपड़े पहन कर हमें अच्छे कपड़े और स्कूल, कॉलेज की ड्रेस उपलब्ध कराई है।


वह पिताजी शाम को दिन भर की थकान के बाद घर आता है कुछ ना कुछ अपने बच्चों के लिए हमेशा लेकर आता है ऐसे पिता को सादर अभिवादन 


ऐसे पिता को सादर अभिवादन जो बच्चों के  रात्रि खाने के बाद उनके कल के लिए स्कूल टिफिन भी तैयार करता है।


ऐसा पिता जो अपनी शिकायतों को अपने हृदय में ही रखता है और चुपचाप अपने गृहस्थ जीवन को बनाए रखना है। ऐसे पिता को सादर अभिवादन।


अपने बच्चों की हर जरूरत को पूरा करता है, चाहे उधार लेकर ही क्यों ना करें ! परंतु बच्चों की आंँखों की चमक को कभी कम नहीं होने देता..! ऐसे पिता के लिए जीवन का अंतिम सत्य है सुखी गृहस्थ जीवन को बनाए रखना।  ऐसे पिता को सादर अभिवादन।


ऐसे पिता को भी सादर अभिवादन जिसने मांँ के कर्तव्यों का निर्वहन पिता बनाकर आजीवन किया है।


उस माता-पिता को नमन / सादर अभिवादन जिसने कष्ट सहकर हमें हमारी पढ़ाई में दिन-रात जागकर जीवन भर परिश्रम किया है। उस पिता को नमन / सादर अभिवादन 


जिसने राष्ट्र पर मरना और राष्ट्र के लिए ही जीना सिखाया! 


हमें अपने माता-पिता पर गर्व करना चाहिए और आजीवन उनको अपने हृदय और मन से कभी भी दूर नहीं करना है। माता पिता धरती पर साक्षात ईश्वर हैं।


आज पितृ दिवस है वैसे तो माता-पिता के लिए सारी जिंदगी है। कोई एक दिन क्या भला.!  हम तो उनके ही अंश हैं फिर भी उनका स्मरण और साथ हमेशा रहे। 


अपने माता-पिता को हमेशा सहारा दें। पिता की खामोशी घर की मजबूती का आधार है । आप अपने पिता और माता के मजबूत आधार एवं स्तंभ बनें।

©डॉ. चंद्रकांत तिवारी

🙏🙏🙏

सोमवार, 19 मई 2025

सहृदय कवि की काव्य यात्रा -©डॉ. चंद्रकांत तिवारी- उत्तराखंड प्रांत

 

सहृदय कवि की काव्य यात्रा -

कविवर श्री सुमित्रानंदन पंत 

*'कविता लिखने की पहली शर्त कवि-सहृदय होना है'!*

*मेरा प्रिय कवि- जिसकी सांसों में प्रकृति और संस्कृति के हजार बिंब उभरे हैं। नदी , झरनें, पोखर, तालाब, फ़ूल, पत्ते, वृक्ष, लताएं एवं प्राकृतिक गतिविधियों की विविध भंगिमाओं एवं नाना प्रकार से सहेजने का भाव साधारण व्यक्ति को भी प्रकृति से जोड़ता है। प्रकृति पुरुष और माँ दोनों रूपों में कवि की सूक्ष्म कल्पना को, जीव-जगत की रहस्यमयी धुंध की ओर नया प्रवेश कराती है। कविता लिखना सहृदय होना है। सहृदय वही होगा जो अपने आस-पास के परिवेश से सृजनात्मकता, सरलता और सहृदयता से जुड़ा हुआ होगा। कविता कवि हृदय से सहृदय तक की भावात्मक अभिव्यक्ति की अनूभूति का साधारणीकृत आधार है। अर्थात साधारणीकरण। एक की अनूभूति सबकी अभिव्यक्ति, सबकी अभिव्यक्ति एक की अनूभूति। अर्थात भावनात्मक स्पर्श और कवि मन की कल्पना, रहस्य और यथार्थ।


------* ऐसे प्रिय प्रकृति के चितेरे कविवर श्री सुमित्रानंदन पंत - प्रकृति के सुकुमार कवि को उनके *जन्मदिन 20 मई पर याद करते हुए.. स्मृति शेष......*


©डॉ. चंद्रकांत तिवारी- उत्तराखंड प्रांत 

'कविता लिखने की पहली शर्त कवि का सहृदय होना है' एक ऐसा कवि जो युग दृष्टा और युग सृष्टा हो। जिसकी कविताओं में जीवन की सच्ची तस्वीर उभरती हो। जिसके अक्षर परस्पर अपने समकक्ष शब्दों से बातें करते हों और एक पूर्ण सार्थक काव्यमय पंक्ति का निर्माण करते हुए सार्थक ध्वनि संकेतों को भी प्रकट करते हों। कुल मिलाकर कह सकते हैं कि ऐसे कवि की रचना में जीवन का संगीत रस घोलता है और शब्द चित्रों के रेखाचित्र चित्रकाव्य का सृजन कर रहे होते हैं।


'कविता लिखने की पहली शर्त कवि सहृदय होना है' यह उतना ही सार्थक और प्रासंगिक है जितना कवि होने के लिए सहृदय होना। जीवन के यथार्थ दृश्यों को हम किस रूप में देखते हैं, किस रूप में महसूस करते हैं, महसूस करने के बाद क्या हम उन साक्षात दृश्यों/वस्तुओं से अपनेपन का लगाव रख पाते हैं? ऐसा लगाव जो हमें बार-बार अपनी ओर आकर्षित करता हो। हमारे मन की रिक्तता को पूर्ण करता हो। हमारे जीवन के अवकाश को इंद्रधनुषी रंगों से भर देता हो। हमारी विषम और कठिन बनती जा रही जीवनशैली को सरल और सहज बना देता हो। हमारी कम पड़ती श्वांसों के मध्य रक्त का संचार करता हुआ जीवन की लालिमा के नए दृश्यों को उभरता हो। यह संभव है कि हम अंतिम स्पंदन तक स्वयं से ही संघर्ष कर रहे होते हैं परंतु जो प्रकृति हमने अपने लिए निर्मित की है वह एक ऐसी दुनिया है जो दो सगे-संबंधियों के अकेलेपन से भरी हुई है। जैसे जीवन का संगीत रिक्त हो गया है जीवन की तलाश में भटकता हुआ कवि हृदय शून्य की परिधि पर घूम रहा हो। स्वयं के प्रश्नों में ही उत्तर को तलाश कर रहा हो। कवि हृदय कई सौ हृदयों का समुच्चय है। उसकी अभिव्यंजना और अभिव्यक्ति से पहले उसकी देखने की शक्ति स्पर्श और गंध के अनुभवों का साक्षात् बिंम होती है। हवाओं में तैरता हुआ संगीत कवि की सांसों में घुलमिल कर साकार हो जाता है। यह सब एकांत की वीणा से निकला हुआ नादमय संगीत है। जीवन का वास्तविक जयघोष है। यही पर्वतीय जनमानस की लोक संस्कृति का उत्थान मंच है। यही मानवता की जन्मभूमि की विकास यात्रा का अंतिम और प्रारंभिक प्रस्थान बिंदु है। 


अपार रज किरणों को समेटे जीवन की हरियाली और नैसर्गिक सुंदरता की अभीष्ट वन-संपदाओं को लुटाता हुआ यौवन का संगीत प्रकृति के इस अभूतपूर्व क्षणों का अनुकरण करता हुआ, कलम के उतार-चढ़ाव से यथार्थ के अनुभवों को शब्दबद्ध करता हुआ, काव्य के चित्रों को साकार करता है। यह कोई साधारण नहीं असाधारण कवि हृदय ही हो सकता है। ऐसा कभी हृदय जिसके सामने कविता नतमस्तक होकर पूर्ण विनम्रता से आग्रहपूर्वक उसकी कलम की नोंक पर बार-बार स्याही संग भीगती-उतरती और श्वेत पत्रों की सैय्या पर किसी शिल्पी की वास्तुकला को जीवंत कर जाती है। ऐसा कभी हृदय प्रकृति में बीज रूप होता है जहां उसकी दृष्टि पड़ती है वही स्थान नव-अंकुरण से पल्लवित और पुष्पित हो उठता है।


हांँ 'कविता लिखने के लिए कवि हृदय का सहृदय होना पहली शर्त है'। ऐसा कभी हृदय जो प्रकृति के साथ तादात्म्य स्थापित कर ले। 


कवि श्री सुमित्रानंदन पंत प्रकृति की गोद में पले-बढ़े और प्रकृति ही जिनकी जीवन भर साहचरी बनी रही। इसकी नैसर्गिक सुंदरता के समक्ष अन्य कोई सुंदरता उन्हें कभी आकर्षित न कर पाई। ऐसा कवि हृदय उत्तराखंड राज्य के कौसानी नामक स्थान में जन्मा । हिंदी साहित्य और संपूर्ण साहित्य प्रेमी इस बात से हमेशा ही गौरवान्वित महसूस करते हैं कि आधुनिक हिंदी कविता के क्षेत्र में छायावादी युग के सशक्त कवि श्री सुमित्रानंदन पंत जी प्रकृति के सुकुमार कवि होते हुए साहित्य की विभिन्न धाराओं के साथ क्रमिक विकास लिए हुए बढ़ते रहे। इन्होंने अपना संपूर्ण जीवन प्रकृति की रहस्यमई दुनिया को खोजने में व्यतीत किया। अपने समकक्ष छायावादी कवियों में प्रसाद, निराला, महादेवी वर्मा के बीच कविवर पंत जी सब के चितेरे बने रहे और उस दौर के अन्य साहित्यकारों के बीच भी अपनी लोकप्रियता बनाए रखने में हमेशा ही सक्रिय बने रहे।


कविवर पंत की कई रचनाएं समय-समय पर प्रकाशित होती रही। परंतु उनकी छायावादी रचनाओं में प्रकृति के साथ जो अपनापन या अपना होने का भाव दिखता है वह एक पर्वतीय अंचल के नवयुवक को इस नैसर्गिक सुंदरता के प्रति आकर्षित करता है। साथ ही पर्यावरण प्रेमी के रूप में भी मुखरित करता है। 


सच्चे अर्थों में कविवर पंत जी पर्यावरण के प्रति कहीं अधिक भावुक व्यक्ति थे। उनका यह नजरिया ही उन्हें प्रकृति के और नजदीक ले गया। उनकी कविताओं का केंद्र भी प्रकृति ही बनी रही। कह सकते हैं कि कविवर पंत जी ने उस असीम सत्ता की तलाश प्रकृति के रहस्यों में खोजने की कोशिश की। कविवर पंत जी का ईश्वर प्रकृति में ही कहीं बसता है। कभी वह प्रथम रश्मि की किरणों के रूप में विचरण करता है, तो कभी मौन निमंत्रण-सा देता हुआ अंजाना-सा मोह पैदा करता हुआ प्रकृति के ताल-तलैयों में नौका-विहार करता है। पंत जी की प्रकृति परिवर्तन की अपार संभावनाओं का केंद्र बिंदु रही है। परंतु उसका स्रोत एक ही है। निस्संदेह परिवर्तन एक क्रमिक विकास है। काव्य की यात्रा के संदर्भ में भी, कवि की यात्रा के संदर्भ में भी, कविता की यात्रा के संदर्भ में भी और मानवता की विकास यात्रा के संदर्भ में भी। इन सभी उपर्युक्त बिंदुओं को कविवर पंत जी ने परिवर्तन कविता में वाणी दी है।


कविवर पंत जी के जन्मदिन को हमें पर्यावरण संरक्षण के रूप में मनाना चाहिए। विश्वविद्यालय स्तर पर, महाविद्यालय स्तर पर और विद्यालय स्तर पर हमें इस दिन अधिक से अधिक वृक्षारोपण करके प्रायोगिक शिक्षण के रूप को साकार करना चाहिए। आज वर्तमान संदर्भों में वृक्षों का कितना महत्व है, यह इस महामारी के बीच हम सबका ध्यान आकर्षित करता है।


जीवन प्रकृति से है। हमें इस बात का ध्यान रखना होगा। हमें प्रकृति को अपने मन के भीतर सहेजने का प्रयास करना चाहिए। अगर प्रकृति हरी-भरी रहेगी तो जीवन खुशहाल रहेगा। प्रकृति के रंग जीवन के रंगों से मिलकर आनंद की विकास यात्रा में सहायक होंगे। हमें पर्यटक बनने से पहले प्रकृति प्रेमी बनना होगा। हमें प्राकृतिक संपदा को संरक्षित रखने के लिए मिशन के रूप में कार्य करना होगा। तभी हम कविवर श्री सुमित्रानंदन पंत जी को सच्चे अर्थों में नमन कर पायेंगे। सच्चे अर्थों में अपनी स्मृति में बसाए रख पायेंगे।

रविवार, 18 मई 2025

अध्यात्म और अध्ययन - ©डॉ. चंद्रकांत तिवारी

 *अध्यात्म और अध्ययन* 

©डॉ. चंद्रकांत तिवारी 

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आकाशे मुखि औंधा कुवाँ, 

पाताले पनिहारी । 

ताका पानी कौउ हँसा पीवै, 

विरला आदि विचारी ।। 


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निर्गुणियांँ कबीर साहब की उलटबांसी आध्यात्मिक सत्य ज्ञान का अजस्र स्रोत है।

प्रयोगधर्मी अज्ञेय की असाध्यवीणा के झंकार की तरह भीतर से बाहर की प्रकृति एवं ऊर्जा से तादात्म्य स्थापित करना, मधुमति भूमिका में योगी की आध्यात्मिक महामाया, भक्तिमय शक्ति से स्वयं को परिशोधित एवं साधने की कला में निपुण आकर्षक चरित्र वाला ही , "आकाश में मुख वाला, उलटा कुआँ, पाताल में पानी भरने वाला।" उक्ति की स्थिति को समझ सकता है। प्रतिभावान कवियों की अनुभूति से मिलने वाला जीवन रस सहृदय पाठक को साधारणीकृत तभी कर पता है जब वह योगी की मधुमती भूमिका से संबंधित होता है। साधारणीकरण नैसर्गिक मूल प्रवृत्ति है। यह भीतर से बाहर की आध्यात्मिक शक्ति ही है। यहांँ आध्यात्मिक शक्ति का बहुत गहरा दृष्टांत है कि "आकाशे मुखि औंधा कुआँ, पाताले पनिहारि" ..!


नोट - जिस प्रकार कक्षा-कक्ष शिक्षण को फ्लिप्ड लर्निंग द्वारा अर्थात पलटकर शिक्षण की पद्धति में नवीनतम अनुप्रयोग स्थापित कर सीखने में मदद एवं सुधार होता है ठीक उसी तरह हमें अपनी सोच को उलटना होगा, अपने भीतर की ओर ध्यान केंद्रित करना होगा और बाहरी दुनिया की मोह, माया, लोभ, स्वार्थ से दूर रहना होगा। कठिन तो है यह सब पर नामुमकिन नहीं। यह भावबोध से आध्यात्मबोध की यात्रा है। इतनी भी सरल नहीं।


मंगलमय जीवन पथ🙏🕉️

©डॉ. चंद्रकांत तिवारी 

बुधवार, 23 अप्रैल 2025

सत्संग और लोकजीवन - ©डॉ.चंद्रकांत तिवारी

 -: सत्संग और लोकजीवन :-

©डॉ.चंद्रकांत तिवारी 


बिनु सत्संग विवेक न होई

राम कृपा बिनु सुलभ न सोई।

सतसंगत मुद मंगल मूला

सोई फल सिधि सब साधन फूला।


सूक्ति सागर श्रीरामचरितमानस की यह चौपाई बताती है कि सत्संग के बिना विवेक नहीं प्राप्त हो सकता है, और भगवान राम की कृपा के बिना सत्संग की प्राप्ति भी नहीं हो सकती है। अर्थात श्रीराम जी की कृपा के बिना सत्संग सहज में मिलता भी नहीं है।


सत्संग ठीक वैसा ही है कि जैसे जो मंगल और सुख की जड़ है और सभी साधनों की सफलता का फल है। वह सब सत्संग का फल है। यह चौपाई सत्संग के महत्व को दर्शाती है। जो जीवन का मूलाधार है।


जीवन में सदगुरु का मिलना, सच्चे मित्र, मार्गदर्शन देने वाले पथ-प्रदर्शक, ईमानदार चरित्र माता-पिता सभी बालक रूपी मिट्टी को आकार और साकार बनाते हैं।

सत्संग की पहली गति यही है। क्योंकि 

   सत्संग के बिना ना विवेक मिलता है और ना ही विवेक का फल। सभी का मूलाधार चक्र श्री राम की भक्ति में ही संभव है।

सोमवार, 14 अप्रैल 2025

अंबेडकरवादी विचारों की प्रासंगिकता ©डॉ. चंद्रकांत तिवारी

 अंबेडकरवादी विचारों की प्रासंगिकता 

©डॉ. चंद्रकांत तिवारी 

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 डॉ. भीमराव रामजी अंबेडकर (1891-1956), जिन्हें बाबा साहेब के नाम से भी जाना जाता है। कोई भी शिक्षित और जन सरोकारों से जुड़ा हुआ व्यक्ति बाबा साहेब भीमराव अंबेडकर के विचारों से प्रभावित होगा और आत्मिक रूप से जुड़ जाएगा अगर समाज का सच्चा हितैषी होगा।

एक शिक्षक के रूप में जितना भी हम पढ़ते हैं और सुनते हैं उनके विचारों और लेखन ने जीवन में कई  बार प्रभावित किया है। डॉ. अंबेडकर न केवल अपने समय से आगे थे, बल्कि कई मायनों में वे हमारे समय से भी आगे दिखाई देते हैं। 

आत्ममंथन और विचारें अग्रेषित संदेश तर्कशील प्रश्न --



 1- क्या बाबा साहेब के योगदान को हम आज भूल गए हैं क्या आज ?

2- क्या बाबा साहेब भीमराव अंबेडकर आज पहले से भी अधिक प्रासंगिक और महत्वपूर्ण नहीं है ?

3- अंबेडकर जी के मौलिक विचार जो समाज में परिवर्तन लाना चाहते थे, क्या हम उनके सहभागी बन पा रहे हैं ?

4- क्या देश उनके योगदान को वैश्विक दौड़ में भूलता जा रहा है  ? या भूल गया है ?  इस पर विचार कौन करेगा ?

5- जीवन जीने के लिए सामाजिक समरसता और सरलता कितनी आवश्यक है ?  यह वर्षों पहले अंबेडकर जी द्वारा भावी जनसमाज को बताया गया था।  जिसका लिखित दस्तावेज संविधान के रूप में हमारे समक्ष है। क्या हम इस तर्क से वाकिफ हैं ?

6 हम बाबासाहेब के किस परिचय को जानते हैं? जो इस देश के डीएनए में उनके योगदान को नहीं समझ सकें या फिर जो उनके जीवन उत्सर्ग को नहीं समझ सके ?


7- क्या आप बासाहेब को दूरदर्शी, भारतीय न्यायविद, समाज सुधारक, अर्थशास्त्री और भारतीय संविधान के मुख्य वास्तुकार के रूप में जानते होंगे ?

8- या फिर क्या वह किन इन सबसे बढ़कर, किसी भी तरह के उत्पीड़न के निडर आलोचक थे ?

9 - या दलित परिवार में जन्में, उन्हें गंभीर सामाजिक भेदभाव और बहिष्कार का सामना करना पड़ा ?

खैर इन चुनौतियों के बावजूद, बाबासाहेब की शैक्षणिक प्रतिभा ने उनके लिए दृढ़ संकल्प के साथ उच्च शिक्षा प्राप्त करने का मार्ग प्रशस्त किया।


शिक्षा और डॉ॰ भीमराव अंबेडकर -- 

डॉ॰ भीमराव अंबेडकर के शिक्षा सिद्धांतों में समावेशी शिक्षा, सामाजिक समरसता और न्याय, और लोकतांत्रिक मूल्यों का पोषणयुक्त जीवन शामिल था। वे शिक्षा को मानव के सर्वांगीण विकास का साधन मानते थे। उनके मुताबिक, शिक्षा के ज़रिए समाज में चरित्रवान और शिक्षित लोग आ सकते हैं। 

समाज को सकारात्मक दिशा देने में डॉ॰ अंबेडकर के शिक्षा सिद्धांतों का सार कुछ इस प्रकार मूल्यांकित किया जा सकता है ---


1- शिक्षा के ज़रिए सामाजिक न्याय समरसता को बढ़ावा देना पहली प्राथमिकता हो।
2- समाज की मुख्यधारा में शामिल करते हुए हाशिये पर पड़े समुदायों को सशक्त बनाना जरूरी है।
3- समावेशी शिक्षा को बढ़ावा देना ।
4- लोकतांत्रिक मूल्यों का पोषण करना प्रत्येक व्यक्ति का धर्म है।
5- शिक्षा के ज़रिए समग्र विकास करना प्रथम कर्तव्य होना चाहिए।
6 सामाजिक चरित्र को महत्व देना चाहिए 
7- प्रत्येक छात्र को मातृभाषा में शिक्षा देना पहली प्राथमिकता।
8- हर छात्र को कम से कम एक विदेशी भाषा का ज्ञान होना ज़रूरी
9- शिक्षक को छात्र के समग्र विकास के लिए ज़रूरी माना जाए।
10- शिक्षकों की योग्यता और क्षमताओं की जांच करनी चाहिए।
11- प्रत्येक व्यक्ति को पर्यावरण और पर्यावरण संरक्षण के प्रति संवेदनशीलता होनी चाहिए।


निजी जीवन के दिशा-निर्देश ---


सामाजिक हितार्थ एवं सरोकारों के लिए यह अतिरिक्त विषय बन गया कि उन्होंने कोलंबिया विश्वविद्यालय और लंदन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स से डॉक्टरेट की उपाधि प्राप्त की। डॉ. अंबेडकर ने अपना जीवन जाति-आधारित भेदभाव से लड़ने और हाशिए पर पड़े लोगों के अधिकारों की रक्षा करने के लिए समर्पित कर दिया। उनका मानना था कि भारत की प्रगति के लिए सामाजिक समानता और न्याय आवश्यक है। 

भारतीय संविधान की प्रारूप समिति के अध्यक्ष के रूप में, उन्होंने मौलिक अधिकारों को सुनिश्चित करने वाले कानून बनाने, अस्पृश्यता को समाप्त करने और भारतीय संविधान की आत्मा में समानता, न्याय और मनुष्यों की गरिमा को स्थापित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।

अपने कानूनी और राजनीतिक कार्यों के अलावा, अंबेडकर शिक्षा, श्रम अधिकारों और लैंगिक समानता के प्रबल समर्थक थे, उन्होंने विरासत और संपत्ति में महिलाओं के लिए समान अधिकार सुनिश्चित किए। हिंदू धर्म में जाति व्यवस्था से निराश होकर, उन्होंने 1956 में लाखों अनुयायियों के साथ बौद्ध धर्म अपना लिया, जिससे दलित बौद्ध आंदोलन की शुरुआत हुई।

डॉ. अंबेडकर की विरासत भारत और उसके बाहर सामाजिक न्याय और समानता के लिए आंदोलनों को प्रेरित करती रही है। उन्हें न केवल एक प्रतिभाशाली विद्वान और सुधारक के रूप में याद किया जाता है, बल्कि लचीलेपन के प्रतीक और मानवीय गरिमा के लिए एक अथक योद्धा के रूप में भी याद किया जाता है।

पढ़-लिखकर शिक्षा से संपन्न अंबेडकर ने धोती और लंगोट को छोड़ कर कोट पैंट पहन लिया। गांधीजी ने अंग्रेज़ी कपड़ों को छोड़कर समाजसेवी बन धोती और लंगोट पहन लिया। दोनों का अपना-अपना धर्म-कर्म।

वोट के निजी स्वार्थ में अंबेडकर को हमारे स्कूली पाठ्यक्रम में शामिल किया जाना चाहिए कि नहीं विचारें। अंबेडकर गांधी के उतने ही कड़े आलोचक थे जितनी उस दौर की वर्तमान व्यवस्था थी । जिससे गांधी और नेहरू के चाटुकार और धार्मिक पंथी दोनों नाराज थे।

इस बात में कोई शक नहीं रह जाता कि उन्होंने समानता, स्वतंत्रता और बंधुत्व के बौद्ध आदर्शों में निहित राष्ट्र का सपना देखा था। अब यह हम पर निर्भर करता है कि हम इस महान व्यक्ति के कार्यों को पढ़ें और महात्मा गांधी के साथ-साथ जाति व्यवस्था के साथ उनके झगड़ों को समझें।

अंबेडकर जी के कुछ जीवन सूक्ति वाक्य जीवन की प्रासंगिकता और जीवन जीने के सामर्थ्य को प्रस्तुत करते हैं।  आज के समय में अंबेडकर के ये शब्द बहुत ईमानदार और विवादास्पद लग सकते हैं। अगर हम ईमानदारी से इन जीवन सूक्तियों और कथन वाक्यों को पढ़ें तो जीवन को एक नई दिशा भी मिल सकती है परन्तु निष्पक्ष और ईमानदार होकर ---

1- गरीबी का मतलब पैसे की कमी नहीं बल्कि ताकत की कमी है।

2- मैं किसी समुदाय की प्रगति को महिलाओं की प्रगति के स्तर से मापता हूँ।

3- मन की खेती मानव अस्तित्व का अंतिम लक्ष्य होना चाहिए।

4- अगर मुझे संविधान का दुरुपयोग होता हुआ दिखाई दे, तो मैं उसे जलाने वाला पहला व्यक्ति होऊंगा।


©डॉ. चंद्रकांत तिवारी 

शुक्रवार, 28 मार्च 2025

स्वधर्म साक्षात्कार - ©डॉ.चंद्रकांत तिवारी

 स्वधर्म साक्षात्कार

©डॉ.चंद्रकांत तिवारी 

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ईश्वर ने दुनिया वैसी ही बनाई है जैसी हम सोचते हैं। हर व्यक्ति को उसकी सोच के अनुरूप ही लोग मिलते हैं। व्यक्ति जैसा सोचता है, जैसा महसूस करता है, परिणाम भी सोच के अनुरूप बनते रहते हैं। जिसकी भावना जैसी होती है । ईश्वर भी वही रूप दिखाते हैं। 


इस संसार में हमारा जीवन हमारी सोच के अनुसार ही दिखाई देता है। जैसी दृष्टि वैसी ही सृष्टि दिखाई देगी।


"नज़र कुछ कहती है 

नज़रिया कुछ कहता है 

कभी-कभी चुपचाप रहकर 

अनुभव भी कुछ कहता है।"


परंतु जागरूक, सतर्क, पूर्व अनुभव 

के साथ-साथ समयानुसार चलना भी जरूरी है। लेकिन आत्मविश्वास बनाए रखेंगे तो कोशिश एवं प्रयास सार्थक होंगे।


गोस्वामी तुलसीदास जी ने श्री रामचरितमानस की चौपाई में कहा भी है कि...

'जाकी रही भावना जैसी,

 प्रभु मूरत देखी तिन तैसी'।'


आत्ममुग्धता से अधिक आत्ममंथन 

व्यक्ति एवं व्यक्तित्व को परिवार एवं समाज को निखारने एवं परखने में सहायक होगा । सकारात्मक सोच के साथ जागरूकता एवं सतर्कता भी मुश्किलों से बचाती है। विश्वास ठीक है। अन्धविश्वास से अधिक आत्मविश्वास अतिआवश्यक है। गलतियांँ ऐसी भी ना हों कि स्व-चरित्र दूषित हो जाए। स्वधर्म, स्वचरित्र और स्व-कर्म नैतिकता का आधार बनें यह प्रयास ही जीवन की गति निर्धारित एवं नियंत्रित करता रहे तो भी ठीक है।


फिर भी विचारणीय विषय यह कि अपनी नज़र और नज़रिया ही लक्ष्य की ओर ले जाता है।


जिसमें ताप लगेगी वह पिघलता है और बहता है। ऊंचे हिमालय के शिखर ताप से तप्त होकर भी जब धारा में परिवर्तित हो जाते हैं तो भी अपनी शीतलता नहीं खोते।

स्वधर्म, स्वचरित्र और स्व-कर्म नैतिकता मर्यादित बना रहे यही संघर्षों का अंतिम संस्कार और परम्पराओं का प्रारंभिक विकास एवं जीवन का दार्शनिक अनुभव है।

नदी की धारा अपना मार्ग तय करती है और स्वधर्म, स्वचरित्र एवं स्व-कर्म चेतना उसकी गति निर्धारित करती चलती है।


पढ़ें, विचारें, अग्रेषित कर अनुभव करें !!


©डॉ. चंद्रकांत तिवारी

उत्तराखंड प्रांत

शुक्रवार, 14 मार्च 2025

🌹फूलदेई - लोक पर्व के बहाने🌹 ©डॉ.चंद्रकांत तिवारी

🌹फूलदेई - लोक पर्व के बहाने🌹- १५ मार्च २०२५ (15 March 2025)🌹-

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उत्तराखंड की लोक संस्कृति का प्राकृतिक पर्व - प्राकृतिक रंगों के संग_*


🌹होली के रंगों में प्राकृतिक रंगों को ना भूलें🌹

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©डॉ. चंद्रकांत तिवारी

उत्तराखंड प्रांत 

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फूलदेई पर्व के दिन बच्चों की मित्र-मंडली थाली को सजाकर उसमें फूल, चावल, गुड़, मिठाई रखकर अपनी बिरादरी और आस-पास के घरों में या अपने क्षेत्र के पूरे गांव में, आसपास घरों में जाकर मुख्य दरवाजे की दहलीज़ पर फूलदेई खेलते हैं अर्थात देहली पर अक्षत और फूल फेंकते हैं और घरों की खुशहाली, शुभ मंगलमय की कामना करते हैं । इस पूरी रस्म के दौरान वे लोकगीत गाते हुए आनंद और खुशी से जितना दोगे उतना ही सही कथन वाक्य को दोहराते हैं। बड़ों को प्रणाम कर आशीर्वाद प्राप्त करते हैं। आदर्श चरित्र की निर्माण प्रक्रिया में यह महत्वपूर्ण एवं उल्लेखनीय पर्व है।


बच्चों की मित्र-मंडली को सभी लोग खुशी-खुशी चावल, मिठाई, फल, टॉफी और गुड़ के साथ भेंट में रुपये भी देते हैं। कहना ना होगा कि अब पहले के मुकाबले इस पर्व के प्रति बच्चों और बड़ों में अपनापन थोड़ा कम होता जा रहा है । लोग अपने लोक पर्वों को भूल रहे हैं या उन्हें अब यह पर्व महत्वहीन लग रहा है। जिस गांव में लोग पहले स्वयं अपने किशोरावस्था में खुशी-खुशी इस पर्व को खेलते थे, वहीं आज उन्हें समय के साथ-साथ महत्वहीन लगने लगा है। 


बहुसंस्कृति और बढ़ती हुई भूमंडलीकरण की प्रतिस्पर्धा की दौड़ में लोग अपनी जड़ों से पलायन कर रहे हैं । अपने लोक पर्वों से पलायन कर रहे हैं । अपनी लोक संस्कृति से पलायन कर रहे हैं। अपने घर-गांव से पलायन कर रहे हैं। अपनी नैतिकता एवं आचरण की मूल्यपरकता से पलायन कर रहे हैं। स्थिति बहुत ठीक नहीं है ऐसा वह भी मानते हैं जों लोक पर्व को विस्मृत एवं भूल बैठे हैं या याद नहीं करना चाहते। हो सकता है इस कार्य के लिए उनके पास समय शेष ना बचा हो। व्यस्तता ने व्यक्ति की नैतिक मर्यादा, आत्मिक चेतना, स्वच्छंदता, हंसी-खुशी एवं अपनापन, सरलता एवं खुलापन, बोलने की कला व्यवहारिक जीवन कौशल, रिश्ते-नाते सभी में बदलाव कर दिया है। साहब यह भूमंडलीकरण की दौड़ है जहां प्रसन्नचित चेहरे के भीतर भी एक चेहरा छुपा हुआ है। जो न हंसता है, न बोलता है। केवल बिंम मात्र है। शीशे के भीतर प्रतिबिंबित दृश्य।



 किसी जमाने में बच्चों को इस दिन का बेसब्री से इंतजार होता था। बच्चे स्कूल में भी एक दूसरे के ऊपर फूलों से खेल लिया करते थे। परंतु आधुनिकता और परंपरा के मध्य का सेतु थोथी नैतिकता की समाजिकता का शिकार बन गया और हमने लोक पर्व को ही नहीं खोया बल्कि अपनी सांस्कृतिक विरासत का भी गहरा नुकसान कर दिया। आजकल के बच्चे मोबाइल में गेम खेलने या फिर अपनी पढ़ाई में इतने व्यस्त रहते हैं कि वे लोकपर्वों के महत्व से वंचित हो चुके हैं और ऐसे पर्वों को पिछड़ेपन के प्रतीक के रूप में देखने लगे हैं।



हालांकि बसंत ऋतु के आगमन पर फूलदेई का त्यौहार मनाया जाता है। फूलदेई के लिए बच्चे एक दिन पहले से ही रंग-बिरंगे फूल तोड़कर ले आते थे । उसे टोकरी या फिर थाली में चावल लेकर सभी के घरों में फूलदेई के लिए जाते थे । इसके बाद उन्हें चावल, गुड़, टॉफी या फल रुपये दिए जाते थे । बच्चे जब फूलदेई को आते थे, तो वह फूलदेई का गीत भी गाते थे,  

जैसे - 


‘फूलदेई छम्मा देई, दैणी द्वार भर भकार’।


'फूलदेई छम्मा देई, जतुक देय्ला उतुक सई'।



इस पर्व के प्रति बच्चों में काफी उत्साह देखने को मिलता था पर अब शायद....!!


मैं बचपन से ही फूलदेई मनाता रहा हूंँ । आज किसी बच्चे को अगर फूलदेई मनाते देखाता हूंँ तो स्वयं को पुरानी स्मृति से जोड़ पाता हूंँ। स्मृति पद-चिन्ह लौटते ज़रूर हैं।



इस दिन के आनंद का इंतजार एक वर्ष से करता रहा हूंँ । परंतु अब शायद लोगों के और अपने रिश्तेदारों के घरों में ना जाकर देवी-देवता के मंदिर में पुष्प अर्पित कर मन ही मन अभी भी कहता हूंँ कि.....👇


'फूलदेई छम्मा देई, दैणी द्वार भर भकार’।


'फूलदेई छम्मा देई, जतुक देय्ला उतुक सई'।



आत्म मंथन भी जरूरी है...👇


क्या हमें अपने लोक पर्व को बाजार की संस्कृति और लोगों के हृदय से नहीं जोड़ना चाहिए ?


क्या हमें ऐसे लोक पर्वों के दिन सांस्कृतिक उत्सव और मित्र-मंडली के साथ कुछ पल समय व्यतीत नहीं करना चाहिए ?


क्या हमें इस दिन छोटे बच्चों और किशोरावस्था के नवयुवकों को मिठाई और फल या फिर मार्गदर्शन या आपसी सद्भाव नहीं देना चाहिए ?


यह लोक पर्व रचनात्मकता एवं सृजनात्मकता का प्रतीक है।


लोक की संस्कृति और संस्कृति का लोक भविष्य का उज्ज्वल आलोक है।


भक्ति, श्रद्धा, अपनत्व एवं सहजता सभी सहृदयता के प्रतीक चिन्ह हैं।


नैसर्गिक प्रवृति के लिए कागज के पुष्पों की नहीं अपितु प्रकृति के प्रांगण के पुष्पों की आवश्यकता है। 


प्रकृति उपहार एवं असंख्य आकर्षणों और रंगों से भरी हुई है। प्राकृतिक रंगों को हृदय में धारण करना चाहिए कि कृत्रिम रंगों को ? 


गतिशील समृद्ध विचारशक्ति जगाने की आवश्यकता है कि नहीं विचारें...!


ऐसे कई महत्वपूर्ण बिंदु हैं जिस पर विचार-मंथन की आवश्यकता है। निर्णय परिपक्वता से बनेगा तभी दीर्घ काल तक चलेगा.!


हम अगर अपने लोक पर्वों की रक्षा करेंगे तो लोक पर्व हमारी संस्कृति और धर्म की रक्षा करेंगे। हमारे लोगों की रक्षा करेंगे।

इंसान को इंसान बनाए रखेंगे। 


स्वार्थ की प्रीति कहांँ तक उचित है विचारें ..!!

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शनिवार, 1 मार्च 2025

सूचना (इंफोर्मेशन) और ज्ञान (नालेज) ©डॉ. चंद्रकांत तिवारी There is a huge difference between information and knowledge.

 सूचना (इंफोर्मेशन) और ज्ञान (नालेज) 

There is a huge difference between information and knowledge.

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एक प्रश्न के सही उत्तर को लिखने के लिए अगर केवल विकल्प हो तो उसी प्रकार के प्रश्नों से विद्यार्थी केवल परीक्षा उत्तीर्ण कर सकता है। उसके सीखने की चुनौती बनी रहेगी।


कम से कम प्रश्नों के उत्तर लिखने के लिए विश्लेषणात्मक एवं विवेचनात्मक प्रश्नों की आवश्यकता है। प्रश्नों के उत्तर लिखने से एक साथ विभिन्न चरणों में मूल्यांकन हो सकेगा। 

जैसे - 

व्याकरणिक अशुद्धियांँ 

लेखन कला 

सृजनात्मक शक्ति 

सृजनात्मक कवित्व गुण 

पद लालित्य 

वाक्य संयोजन 

कथेत्तर गद्य के अनुरूप लेखन शैली 

भाषा एवं शैली 

तुलनात्मक समीक्षा लेखन कला

शोध दृष्टि के समीक्षात्मक बिंदु।


कुल मिलाकर बहुविकल्पीय प्रश्नों ने विश्लेषणात्मक और तर्कशील प्रश्नों के उत्तरों का नाश कर दिया। विद्यार्थियों के खोजी व्यक्तित्व को रटंत बनाकर समीक्षात्मक एवं तुलनात्मक अध्ययन पद्धति की परीक्षा को मूल्यांकन विहीन कर दिया। जिससे छात्रों का बौद्धिक क्षितिज मात्र परीक्षा पास करने तक ही सीमित हो गया है। आज डिग्री प्राप्त युवा बहुविकल्पीय प्रश्नों की भांँति अत्यधिक विकल्पों के मध्य स्थाई विकल्प तलाशने में व्यस्त हैं।

सूचना (इंफोर्मेशन) और ज्ञान (नालेज) दोनों में बहुत बड़ा अंतर है। 


©डॉ. चंद्रकांत तिवारी 

Fb-Chandra Tewari

गुरुवार, 9 जनवरी 2025

स्वीकारोक्ति जीवन में आवश्यक है - ©डॉ. चंद्रकांत तिवारी

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स्वीकारोक्ति जीवन में आवश्यक है - (विश्व हिंदी दिवस पर -10 जनवरी) 

©डॉ. चंद्रकांत तिवारी 

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जागरूकता, प्रचार-प्रसार, सरकारी कार्यालयों में भाषाई प्रयोग, व्यावहारिक जनजीवन में आत्मिक भाषाई प्रयोग और शिक्षण पद्धति के क्षेत्र में भाषाई अनुप्रयोग द्वारा हिंदी भाषा को वैश्विक शीर्ष पर स्थापित करते हुए, अपनी भाषा में संपादन, लेखन, प्रकाशन, शिक्षण, प्रशिक्षण, अनुसंधान, प्रबोधन, नीति, पाठ्यक्रम, संगठन और प्रत्येक राष्ट्र की भाषा के साथ समन्वित-समान आदर-भाव ही हिंदी भाषा को संवर्धित, पुष्पित, पल्लवित और लोक व्यवहारिक धरातल प्रदान करने में भारतीय और भारतीयता के स्वधर्म की रूपरेखा तैयार करेगा। जैसे बज़री, कंकड़, सीमेंट, लोहा, ईंट, पत्थर आदि में जल मिलाने से इमारत की दीवार और सुंदर घर बनाया जा सकता है। तो ठीक उसी तरह भिन्न-भिन्न भाषा एवं बोलियों के शब्दों द्वारा हिंदी भाषा का निर्माण संभव हो सकेगा और हिंदी भाषा का पद लालित्य एवं अनूठापन बना रहेगा। इस बात में कोई अतिशयोक्ति नहीं यह सत्य है।


 प्रभात (संस्कृत भाषा), प्रणाम (संस्कृत भाषा), मंगलमय (हिंदी भाषा), अभिवादन (लैटिन भाषा) और हार्दिक शुभकामना (हिंदी भाषा) धन्यवाद (संस्कृत भाषा), बोतल (पुर्तगाली शब्द), रेल (अंग्रेजी शब्द) आदि भिन्न-भिन्न भाषाओं के शब्दों द्वारा नियमित लोक व्यवहार और कार्य क्या हिंदी भाषा का नियमित आधार स्थापित करेगा ? बिल्कुल करेगा। क्योंकि यह सभी शब्द नियमित लोक व्यवहार में प्रयुक्त हो रहे हैं और होते रहते हैं। हिंदी भाषा में कई शब्द हिंदी भाषा को गतिशील, समृद्ध और सामर्थ्यवान बनाए रखने में सहायक है। 


भूमंडलीकरण और बहुभाषी समाज के समक्ष, सभ्यता और संस्कृति की बदलती बयार के साथ सबकी अपनी-अपनी जिजिविषा है। अपने-अपने सपने हैं। महत्वाकांक्षाओं का क्षितिज व्यापक है। अपनी भाषा, अपनी संस्कृति, अपना समाज और एकांकी परिवार। यहांँ तक कि धर्म की आपसी गुटबाजी भी नव-परिवर्तित भविष्य को दिशा-निर्देश जारी किए हुए आगाह कर रही है। स्वराष्ट्र प्रगति की संकल्पना सर्वोपरि यथार्थ है। परंतु निज राष्ट्र और वैश्विक परिदृश्य के संदर्भ में भारतीयता का आदित्य रूपी ध्वज हमेशा वैश्विक स्तर पर फहराने के लिए स्व-भाषा, स्वधर्म, स्वचरित्र, स्व-कर्म और स्वराज बहुत जरूरी है।

स्वीकारोक्ति जीवन में आवश्यक है। धर्म, कर्म, लोक सेवा एवं भाषाई व्यवहार हेतु।

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असफलता और सफलता में मौन बने रहता है अद्वित्य

प्रखर-दीप्ति निशा-अमावस्य तपस्वी-सा हंसता आदित्य।

©डॉ. चंद्रकांत तिवारी 

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मंगलवार, 7 जनवरी 2025

भाषा का उदय और विस्तार - ©डॉ. चंद्रकांत तिवारी

 भाषा का उदय और विस्तार - ©डॉ. चंद्रकांत तिवारी 

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       जब समाज में विश्रृंखलता उत्पन्न होकर उसकी गति को अवरुद्ध कर देती है, चारों ओर अव्यवस्था का साम्राज्य छा जाता है, विरोध रूपी दानव का ताण्डव सर्वत्र दृष्टिगोचर होने लगता है, परिणामत: सामाजिक, धार्मिक,राजनैतिक,नैतिक एवं सांस्कृतिक मूल्यों में शैथिल्य आ जाता है। उसी समय परिस्थितियाँ किसी एक ऐसी भाषा को जन्म देती हैं जो संपूर्ण विरोधी तत्वों एवं गतिरूद्धता के निमित्तों का परिष्कार करके उसमें पारस्परिक सहयोग, समानता, समंवयता, समायोजित, संकल्पित, समायोजन, संस्कार और सौंदर्य की सुनिर्मित स्वीकारोक्ति का सुगठित सानिध्य समाधान उत्पन्न करती है ।


     मुट्ठी में आकाश को समेटे भाषा रेत की तरह है, जिसे मुट्ठी में संभालकर नहीं रखें तो फिसल जाऐगी। निस्संदेह भावों तथा विचारों का प्रकटीकरण ही भाषा है। भाषा सामाजिक वस्तु है। इसका प्रवाह अविच्छिन्न है। यह सर्व-व्यापक है। सम्प्रेक्षण का मौखिक साधन है । भाषा अर्जित वस्तु है,क्योंकि यह व्यवहार द्वारा अर्जित की जाती है । भाषा सहज और नैसर्गिक क्रिया है। सामाजिक दृष्टि से इसका स्तरीयकरण होता है। यह परिवर्तनशील है क्योंकि यह संयोगात्मकता से वियोगात्मकता की ओर उन्मुख होती है।भाषा स्थिरीकरण और मानकीकरण से प्रभावित होती है। यह पहले उच्चरित रूप में परिवर्तित होती है ।स्वतंत्र ढाॅचा लिए भौगोलिक रूप से स्थानीयकृत होती है। इतना सब होने के बावजूद भी भाषा में न जाने कितनी अर्थों की पर्तों का समागम होता है। न जाने कितने गूढ़ भावों का समंदर हिलोरें लेता रहता है। भाषा तो कवि हृदय की प्रेमिका का नयन बिंदु है। नायिका के अंग-अंग की उज्ज्वल आभा है। नेता का कलात्मक भाषण है तो अभिनेता का सचित्र रंगमंचीय मुद्राओं सहित नृत्य है। यह तो आलोचक की कलम से निकला मोती है, और पत्रकार की लेखनी का ज्वलंत मुद्दा है। कमोबेश सुनने को मिलता है कि यह भारतवर्ष के हिंदी विभाग द्वारा शिक्षित शोधार्थी बेरोजगार की मन की भड़ास है तो वहीं नये-नये यू-ट्यूबर्स की पत्रकारिता की मौलिक विचारोत्तेजना है। फिर भी भाषा शिक्षक के लिए यह उसके पुत्र के समान है। हिंदी भाषा के संदर्भ में यह जन-समूह के हृदय का विकास है। तो उसके शिक्षण पद्धति के संदर्भों में संपूर्ण धरती पर जैसे बीजारोपण के समान है।

*भाषा स्वचरित्र में घुलकर व्यक्ति के व्यवहार और आचरण को चरितार्थ कर चरित्रवान बनाती है।*


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