स्वधर्म साक्षात्कार
©डॉ.चंद्रकांत तिवारी
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ईश्वर ने दुनिया वैसी ही बनाई है जैसी हम सोचते हैं। हर व्यक्ति को उसकी सोच के अनुरूप ही लोग मिलते हैं। व्यक्ति जैसा सोचता है, जैसा महसूस करता है, परिणाम भी सोच के अनुरूप बनते रहते हैं। जिसकी भावना जैसी होती है । ईश्वर भी वही रूप दिखाते हैं।
इस संसार में हमारा जीवन हमारी सोच के अनुसार ही दिखाई देता है। जैसी दृष्टि वैसी ही सृष्टि दिखाई देगी।
"नज़र कुछ कहती है
नज़रिया कुछ कहता है
कभी-कभी चुपचाप रहकर
अनुभव भी कुछ कहता है।"
परंतु जागरूक, सतर्क, पूर्व अनुभव
के साथ-साथ समयानुसार चलना भी जरूरी है। लेकिन आत्मविश्वास बनाए रखेंगे तो कोशिश एवं प्रयास सार्थक होंगे।
गोस्वामी तुलसीदास जी ने श्री रामचरितमानस की चौपाई में कहा भी है कि...
'जाकी रही भावना जैसी,
प्रभु मूरत देखी तिन तैसी'।'
आत्ममुग्धता से अधिक आत्ममंथन
व्यक्ति एवं व्यक्तित्व को परिवार एवं समाज को निखारने एवं परखने में सहायक होगा । सकारात्मक सोच के साथ जागरूकता एवं सतर्कता भी मुश्किलों से बचाती है। विश्वास ठीक है। अन्धविश्वास से अधिक आत्मविश्वास अतिआवश्यक है। गलतियांँ ऐसी भी ना हों कि स्व-चरित्र दूषित हो जाए। स्वधर्म, स्वचरित्र और स्व-कर्म नैतिकता का आधार बनें यह प्रयास ही जीवन की गति निर्धारित एवं नियंत्रित करता रहे तो भी ठीक है।
फिर भी विचारणीय विषय यह कि अपनी नज़र और नज़रिया ही लक्ष्य की ओर ले जाता है।
जिसमें ताप लगेगी वह पिघलता है और बहता है। ऊंचे हिमालय के शिखर ताप से तप्त होकर भी जब धारा में परिवर्तित हो जाते हैं तो भी अपनी शीतलता नहीं खोते।
स्वधर्म, स्वचरित्र और स्व-कर्म नैतिकता मर्यादित बना रहे यही संघर्षों का अंतिम संस्कार और परम्पराओं का प्रारंभिक विकास एवं जीवन का दार्शनिक अनुभव है।
नदी की धारा अपना मार्ग तय करती है और स्वधर्म, स्वचरित्र एवं स्व-कर्म चेतना उसकी गति निर्धारित करती चलती है।
पढ़ें, विचारें, अग्रेषित कर अनुभव करें !!
©डॉ. चंद्रकांत तिवारी
उत्तराखंड प्रांत
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