बदलते
संदर्भों में नारी की स्थिति : एक सूक्ष्म अवलोकन
डॉ. चंद्रकांत तिवारी*
भारत में स्त्री-मुक्ति का आंदोलन एक लंबी यात्रा के
बाद ऐसे मुकाम पर पहुँच गया है, जहाँ एक ओर उसकी
सफलता के गीत गाए जा रहे हैं, सामाजिक-आर्थिक
परिवर्तनों की बात की जा रही है तो दूसरी ओर उस पर एकआयामी एवं पश्चिम आयातित होने
का आरोप लगाया जा रहा है। आज नारी-विमर्श, नारी-चेतना,
स्त्री-अस्मिता, नारीवाद,
स्त्रीवाद, नारी-मुक्ति और न
जाने ऐसे कई नामों पर विस्तृत चर्चा की जा सकती है या की जा रही है, परंतु परिणाम
चर्चा के विपरीत हैं। स्थिति जस की तस है।
आज भारतीय चिंतन
परंपरा पर एक दृष्टि डालने पर यह सिद्ध हो जाता है कि यह पश्चिम की देन नहीं है।
नारीवादी आंदोलन को महत्त्वपूर्ण दिशा देने वाली सीमोन द बोउवार की पुस्तक- द सेकेंड
सेक्स
(1949) के पहले ही महादेवी वर्मा की ûm¥§खला की कड़ियाँ (1942) नामक महत्त्वपूर्ण पुस्तक आ चुकी थी, जो नारी-मुक्ति के उपायों की ओर गहन चिंतन और विद्रोही तेवर के कारण ध्यान
आकर्षित करती है, ûm¥§खला की कड़ियाँ पुस्तक के पहले भी थेरी-गाथा, ‘सीमंतनी उपदेश, स्त्री-पुरुष आदि
पुस्तकें
संज्ञान में है। ये पुस्तकें स्त्री-दृष्टि के कारण चर्चा
में भी हैं,
भले ही उनकी लेखिकाओं के नाम ज्ञात हों या अज्ञात हों।
नारी की दशा व
नारी-मुक्ति की अवधारणा को ध्यान में रखकर जो विचार व्यक्त किए जाते है, वे नारी-विमर्श के अंतर्गत आते हैं। नारी क्या सोचती है, जीवन के प्रति उसका
दृष्टिकोण,
उसकी आकांक्षाएँ व अपेक्षाएँ, उसके जीवन का उद्देश्य तथा जीवन के विभिन्न पक्षों पर उसके विचारों का
विश्लेषण आज के युग की अनिवार्यता है। उपभोक्तावादी संस्कृति के फलस्वरूप आज की
नारी की दबंग एवं निर्भीक भूमिका ने हर क्षेत्र में पुरुष को चौंकाया है। अगर गौर
किया जाए तो आज का नारी-लेखन, नारी-विमर्श की
सीमा का अतिक्रमण करके नारी के संकल्पनात्मक संघर्ष के रूप में उभर रहा है। आज कवयित्रियाँ
विमर्श की भाषा को त्यागकर अपने अस्तित्व के लिए युद्ध-भाषा का प्रयोग करने लगी
हैं।1
दरअसल नारीवाद का
विषय ही ऐसा है कमबख्त, कि सालों पुराने और अच्छे-खासे बुद्धिमान पुरुष मित्र भी इसको हाथ में लेते ही
अपनी सहज मानवीयता छोड़कर एक पकी-पकाई पारंपरिक भाषा में न्यायाधीश के सुर में
बोलने लगते हैं। सभा में, घरों में, संपादकीयों के सुर में ऐसे कई वक्ताओं की वक्तृता पढ़ते-सुनते मुझे लगता है कि
ऐसी बहसें अक्सर अनुभव के आधार पर नहीं, बल्कि अंदाज के आधार पर सिर्फ बहस उठाने भर को छेड़ दी जाती हैं,
क्योंकि उनके केंद्र में स्थित एक सचमुच की जीती-जागती जीवन-पद्धति नहीं, बल्कि एक तरह की तिलिस्मी पिटारी माना गया होता है, जिसके भीतर सामान्य जीवन की सामान्य व्यावहारिक सच्चाइयाँ नहीं, बस चमत्कार ही चमत्कार मिलेंगे, जो या तो भरमाएँगे या डराएँगे या फिर बुद्धि सम्मोहित कर देंगे।2
आज सारी दुनिया
में स्त्री की पहचान की जद्दोजहद ध्रुवीकरण की शक्ल ग्रहण कर चुकी है, स्त्री की अस्मिता को केंद्र में लाने का श्रेय महिला आंदोलन और दृश्य
माध्यमों को जाता है। महिला आंदोलन के संघर्षों और कुर्बानियों का नतीजा है कि
स्त्रियाँ आज गर्व के साथ अपने हक की लड़ाई लड़ रहीं हैं। एक जमाना था, स्त्रियाँ
चुप थीं। आज स्त्री ने चुप्पी तोड़ने का बीड़ा उठा लिया है। बल्कि यों कहें कि
स्त्रियों को चुप रखने वालों की विदाई की वेला आ गई है। स्त्री-अस्मिता के संघर्ष
को प्रभावी बनाने के लिए जरूरी है कि स्त्रियाँ बोलें, लिखें और एक मनुष्य और स्त्री के रूप में अपनी स्थिति को जानें, उसे बदलें और नए विकल्पों का निर्माण करें।
भारतीय समाज में
आज भी अधिकांश स्त्रियाँ पराधीनता में जी रहीं हैं। कहने को उन्हें संवैधानिक तौर
पर अनेक अधिकार मिल चुके हैं, किंतु स्त्री की वास्तविक दुनिया अभी भी कैद और
बंदिशों से घिरी है। स्त्री-अस्मिता को जानने की पहली शर्त है कि उन स्थितियों को
जानें, जिनमें स्त्री कैद है। स्त्री को कैद से मुक्ति दिलाने के लिए सिर्फ
सहानुभूति से काम चलने वाला नहीं है। इसके लिए व्यावहारिक और अकादमिक, दोनों ही
स्तरों पर जंग लड़ी जानी चाहिए। जो लोग सोचते हैं कि सिर्फ आंदोलन करके जंग जीती जा
सकती है,
वे गलत सोचते हैं। स्त्री की मुक्ति के लिए पढ़ाई और लड़ाई का
एक साथ चलना बेहद जरूरी है। स्त्री की जंग जब तक वैचारिक स्तर पर नहीं जीती जाती,
तब तक स्त्री-मुक्ति का सपना साकार नहीं होगा।
स्त्री-विमर्श के
आरंभिक प्रयासों की सार्वजनीन विशेषता है कि वह सहानुभूति से शुरू होती है। आज की
स्त्री जितनी आसानी से ‘अधिकार’ की बात करती है, उस संबंध में यह ध्यान रखना चाहिए कि यह एक लंबे संघर्ष के
फलस्वरूप सामाजिक नजरिये में आए बदलाव का नतीजा है।
एक ओर सामाजिक
व्यवस्थाओं ने स्त्री को अधिकार देने में पुरुष की सुविधा का विशेष ध्यान रखा है, दूसरी ओर उसकी आर्थिक स्थिति भी परावलंबन से रहित नहीं रही। भारतीय स्त्री के
संबंध में पुरुष का भर्त्ता नाम जितना यथार्थ है, उतना संभवतः और कोई नाम नहीं।
स्त्री,
पुत्री, पत्नी, माता आदि सभी रूपों में
आर्थिक दृष्टि से कितनी परामुखापेक्षिणी रहती है, यह कौन नहीं जानता’3
नर और नारी के संबंधों
के प्रश्न के बारे में गंभीर कम और ईमानदार अधिक होना उचित होगा। जीवन के इन गंभीर
मामलों में हमारी प्रवृत्ति यह होती है कि हम संसार के सामने एक मिथ्या-सा अभिनय
करें। जहाँ सच्चाई और आंतरिक ईमानदारी होनी चाहिए, वहाँ छल और कृत्रिमता व्याप्त है।4
गांधी जी ने नारी-मुक्ति
के प्रश्न पर विचार किया और कांग्रेस के राष्ट्रीय आंदोलन में भारतीय नारी कूद
पड़ी। श्रीमती कृष्णा हठी सिंह इस संबंध में लिखती हैं- यद्यपि अभी तक भारतीय
राजनीति में स्त्रियों ने सक्रिय भाग नहीं लिया था, किंतु अब एक आकस्मिक जागृति उनमें फैल गई। घरों की छाया को त्यागकर वे बिलकुल
आगे आ गईं और उन्होंने सहज रीति से आंदोलन को अपना लिया, मानो यह कोई विचित्रता ही न थी।
नारी में पुरुष
की अपेक्षा अधिक लज्जा पाई जाती है, जो उसका पुरुष की अपेक्षा अधिक संवेदनशील होने
का द्योतक है। प्रतिक्षेप क्रिया भी नारी में पुरुष की अपेक्षा अधिक विकसित होती
है।5
लंबे अवसान के
बाद अब नारी-जागृति का युग शुरू हुआ है। परंपरा से व्यक्तित्वहीनता व शापग्रस्तता
का जीवन जीने वाली, दमित, शोषित स्त्री पितृसत्तात्मक सामाजिक संरचना में अपने अधिकार, स्वतंत्रता व अपनी मुक्ति के लिए एक नया भाष्य गढ़ रही है। वह संघर्ष का एक नया
तर्कपूर्ण दृष्टिकोण प्रस्तुत कर रही है। उसके संघर्ष की इस चेतना के फलस्वरूप यह
महसूस किया जाने लगा है कि, स्त्री की मुक्ति का सवाल, उसके अस्तित्व एवं मनुष्यत्व को स्वीकार करने का सवाल आज मानवता का सबसे बड़ा
सवाल है।6
आज हम बढ़ते
अपराधों की एक ऐसी ûm¥§खला में बँध गए हैं, जिससे निकलना नामुमकिन होता जा रहा है। आज भारतवर्ष का हर
बड़ा शहर कुकृत्यों का केन्द्र बन चुका है। सुरक्षा चक्र लाचार बना हुआ है।
राजनैतिक पार्टियाँ राजनीति की रोटियाँ सेंक रहीं हैं। स्त्रियों के खिलाफ अपराध
वैसे तो दुनियाभर में बढ़ते जा रहे हैं, लेकिन शरणार्थी स्त्रियाँ चूँकि पारंपरिक, सामाजिक और आर्थिक सुरक्षा से अपेक्षाकृत अधिक वंचित होती हैं, अतः वे इन अपराधों की और भी ज्यादा शिकार बनती हैं और उनकी कमजोर स्थिति के
कारण उनकी सुनवाई भी नहीं होती। पूर्वी यूरोप के देशों में सर्ब मुसलमानों तथा
क्रोएशियै निवासियों ने बारी-बारी अपना नपुंसक आक्रोश अपने शत्रुपक्ष की असहाय
बेसहारा स्त्रियों पर निकाला है। अरब देशों के अमीर मालिकों द्वारा प्रवासी घरेलू
नौकरानियों पर अमानुषिक बर्बरतापूर्ण अत्याचारों की खबरें भी प्रायः पढ़ने को मिलती
हैं। न्याय इनमें से शायद ही किसी मामले में स्त्री का पक्ष लेता हो। 7
निःसंदेह, स्त्री
ने अपनी अस्मिता और अस्तित्व के लिए जो संघर्ष शुरू किया, उसका सैद्धांतिक
प्रतिफलन ‘नारीवाद’
है। नारीवाद स्त्री जीवन की समस्याओं और उसके समाधान का एक
वैचारिक आंदोलन है। इसे परिभाषित करते हुए ‘इनसाइक्लोपीडिया ब्रिटेनिका’ में कहा गया है
कि, यह एक ऐसा आंदोलन है जो नारी को पुरुष के समान सम्मान और अधिकार प्रदान
करेगा और अपनी जीविका और जीवन-पद्धति के संबंध में स्वाधीन रूप से निर्णय देने का
अधिकार देगा।8
भारतीय समाज में
नारी सदा ही वस्तु, बाजार, धर्म-कृत्यों का
उपकरण,
यौन-विलास, पुरुष-सेवा और
गृहिणी के रूप में ही बँधकर रही। उससे आगे वह अपने बारे में कुछ सोच ही नहीं पाई।
किंतु वर्तमान परिदृश्य में स्त्री-विमर्श की परिधि से ये पंक्तियाँ बाहर कर दी गईं
हैं। आज नारी के आँसू, आँसू न रहकर तेजस्वी जल हो गये हैं, जो ये अहसास दिलाते हैं कि स्त्री अब कमजोर नहीं है। वह भी अपनी उपयोगिता रखती
है।
नारी में इतनी
क्षमता है कि वह अपने को हर परिस्थिति के अनुरूप ढाल सकती है, वह अपना सर्वांगीण अधिकार चाहती है और दैहिक सौंदर्य के भँवर से उठकर एक
बाँसुरी के समान संघर्ष कर अस्तित्व पाना चाहती है-
कंचन-काया, कांचन-काया/सुनते-सुनते ऊब गई मैं,/भँवर चीरकर तैर रही थी/नाव देखकर डूब गई मैं।/ झुककर नहीं, चलूँगी तनकर/ऐसी है मेरी गुरु दीक्षा,/संघर्षों से/गोद-गोदकर/बना दिया है मुझे बाँसुरी/उंगली रखते ही गूँजूँगी/पर न
जपूँगी नाम तुम्हारा।9
साहित्य अपने पद-चिन्हों
को एक बार पुनः दोहराता है। ‘यत्र नार्यस्तु पूज्यंते
रमंते तत्र देवता’ के आदर्श को महाकवि
जयशंकर प्रसाद ने-
नारी! तुम केवल
श्रद्धा हो/विश्वास रजत नग पग तल में/पीयूष स्रोत-सी बहा करो/जीवन के सुंदर समतल
में।10
नारी के बिना
मानव-सृष्टि की कल्पना असंभव है। इसीलिए ऋग्वेद में नारी को सृष्टिकर्ता ब्रह्मा
कहा गया है- स्त्री हि ब्रह्मा बभूविथ।11 नारी सदैव एवं सर्वत्र
मानव परिवार की मुख्य आधार समझी गई है।
इसलिये प्रत्येक शब्द तथा समाज निर्वाह में वह मुख्य भूमिका निभाती है।
उपन्यासकार मुंशी
प्रेमचंद स्वयं प्राणियों के विकास में स्त्री को पुरुष से अधिक उपयोगी मानते थे।
ठीक उसी प्रकार,
जिस प्रकार प्रेम, त्याग और अहिंसा को हिंसा, संग्राम और कलह
से श्रेष्ठ समझा जाता है।
नारी के विकास के
लिए सबसे पहले तो प्रेमचंद उसे पूर्ण शिक्षित देखना चाहते हैं। जब तक स्त्रियाँ
शिक्षित नहीं होंगी और सब कानून अधिकार उनको बराबर न मिल जायेंगे, तब तक महज बराबर काम करने से काम नहीं चलेगा।12
जहाँ तक तत्कालीन
नारी की सामाजिक स्थिति का प्रश्न है, उसके कर्तव्य तथा अधिकार पुरुष के अधिकारों तथा कर्तव्यों से न न्यून हैं, न हीन। जिन्हें समाज अधिकारों से हीन रखना चाहता है, उन्हें शिक्षा के क्षेत्र में प्रवेश नहीं देता, किन्तु तत्कालीन शिक्षा-क्षेत्र में पुरुष के समकक्ष ही नारी का स्थान है।’’13
सत्य तो यह है कि
मानवी रूप में उसे स्वीकार कर उसके मानवीय अधिकारों का प्रश्न उन्नीसवीं शती के
सुधारकों ने उठाया। महर्षि दयानंद, राजा राममोहन राय
आदि ने उस सामान्य नारी की व्यथा का अनुभव किया, जिसके पास अधिकार के नाम पर दासता थी और कर्तव्य के नाम पर प्राणदान। वैदिक
धर्म का पुनरुत्थान और ब्रह्म समाज का प्रारंभ, दोनों ही जागरण के लिए वैतालिक
सिद्ध हुए। सती,
बाल-विवाह जैसी प्रथाओं के विरोध तथा विधवा-विवाह, शिक्षा आदि सुधारों ने तत्कालीन नारी-समाज को जो दिशा दी, उस पर चलने की शक्ति उसे देश के सांस्कृतिक जागरण से प्राप्त हुई। भारत माता
के मंदिर में जो दीप जला, उसके आलोक से
मातृ-प्रतिभा के चरण ही नहीं आलोकित हुए, भारत की अधोमुखी नारी की मुख-छवि भी उज्ज्वल हुई।
‘गबन’
में स्त्रीवाद के बुनियादी सवालों को प्रेमचंद उठाते हैं।
हिंदीभाषी लोग इन सवालों एवं प्रेमचंद के नजरिये से बहुत कुछ सीख सकते हैं।
प्रेमचंद लिंगभेद को स्वीकार करते हैं, साथ ही इस भेद में निहित पुंसवाद का
उद्घाटन करते हुए कहते हैं- आप एक युवती को किसी युवक के साथ एकांत में विचरते
देखकर दाँतों उँगली दबाते हैं। आपका अंतःकरण इतना मलिन हो गया है कि स्त्री पुरुष
को एक जगह देखकर आप संदेह किए बिना रह नहीं सकते। जब तक हम स्त्री पुरुष को अबाध
रूप से अपना-अपना मानसिक विकास न करने देंगे, हम अवनति की ओर खिसकते चले जाएँगे। बंधनों से समाज का पैर न बाँधिए, उसके गले में कैदी की जंजीर न डालिए।14
नारी-मुक्ति का
अर्थ केवल देह-मुक्ति ही नहीं, बल्कि विचारों की मुक्ति, आत्मा और परंपरागत शोषण से मुक्ति है। आज नारी को पता है कि उसे अपना आकाश
स्वयं ही पाना है, क्योंकि पुरुषों के अधीन
रहकर वह या तो देवी बनायी जाएगी या दासी, मानवी उसे कभी नहीं बनने दिया जायेगा, आज भी पुरुष नारी को पूर्ण स्वतंत्रता देने में हिचिकिचाता है। किंतु उसे तो
अब अपनी पूर्ण स्वतंत्रता चाहिए। अब उसे अपनी अपनी नियति बदलनी है। रोते-रोते सब कुछ चुपचाप नहीं सहना है, क्योंकि यह स्त्री-विमर्श का काम्य नहीं है। आज वह आत्मविश्वास से पूर्ण अपना
व्यक्तित्व निर्माण कर आत्मनिर्भर हो गई है, तो फिर क्यों वे पुरुषों के अधीन रहें। हर क्षेत्र में वे अपनी विजय-पताका
लहरा रहीं हैं। यही स्त्री-विमर्श का काम्य है।
यह कहते हुए
अतिशयोक्ति न होगी कि आज भी देश में कई समस्याएँ प्रगति में बाधक बनी हुई हैं। इसमें
कोई शक नहीं कि हमारे इस समय में तमाम और जटिल मुद्दों की ही तरह नारीवाद, स्त्रीवाद,
नारी-विमर्श, नारी चेतना, नारी-अस्मिता आदि विषय भी काफी उलझे हुए हैं। यह भी सच है कि कभी कुछ मायनों
में नारी-विषयक विभिन्न धारणाएँ एवं स्थापनाएँ अपने मूल कथ्य से विच्छिन्न करके
निजी स्वार्थ को परोसने के लिए धड़ाधड़ इस्तेमाल की जा रही हैं। इसी तरह कभी-कभी
शासन तले नारी-गरिमा के कथित दमन या विनाश पर घड़ियाली आँसू बहाए जा रहे हैं, तो नारी की स्थिति हमें मुख्यधारा की भ्रष्ट राजनीति का और भी भ्रष्ट
स्वांग-सा प्रतीत होने लगती है।
संदर्भ-
1. शोध-दिशा, अंक- 13,
पृ. 196
2. मृणाल पाण्डे, परिधि पर स्त्री (निबंध), राधाकृष्ण प्रकाशन, नई दिल्ली,
पृ. 6-7
3. महादेवी वर्मा, ûm¥§खला की कड़ियाँ, लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद, संस्करण 2008,
पृ. 100.
4. राधाकृष्णन, धर्म और समाज, अनुवाद, विनाज एम.ए.
5. डॉ. प्रतिभा गर्ग, छायावादी कवियों की नारी भावना, जवाहर पुस्तकालय, सदर बाजार,
मथुरा
6. मस्तराम कपूर, चुनौती जो औरत है (स्त्री, परम्परा और
आत्मनिर्भरता),
वाणी प्रकाशन, द्वितीय आवृत्ति- 2004, पृ. 193
7. मृणाल पाण्डे, परिधि पर स्त्री (निबंध), राधाकृष्ण
प्रकाशन,
नई दिल्ली, पृ. 50-51
8. अलका प्रकाश, नारी चेतना के आयाम, लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद, 2007, पृ. 25
9. बीसवीं सदी के
श्रेष्ठ गीत,
सं. मधुकर गौड़, सार्थक प्रकाशन, मुम्बई, 2003, पृ. 41
10. प्रसाद, कामायनी,
लज्जासर्ग, पृ. 114
11. ऋग्वेद 8/33/19
12. प्रेमचंद घर में, पृ. 160
13. जगदीश्वर चतुर्वेदी व सुधा
सिंह,
स्त्री अस्मिता साहित्य और विचारधारा, आनंद प्रकाशन, कोलकाता, पृ. 84
14. प्रेमचंद, गबन,
पृ. 94 - 95
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