मेरी कुछ कविताएँ आपके समक्ष प्रस्तुत है- *
डॉ चन्द्रकान्त तिवारी
1-
समय के प्रवाह में,
लहरों की गति पर
हमारी जीवन नैया की पालें
तीव्र गति से गतिमान हैं।
आँखें मूँद लेता हूँ
एक तुम्हारी आकृति
मेरी आँखों में,
मेरे हृदय में, है विराजमान
अब यादें नहीं रह गई शेष
तुम्हारी स्मृति ही,
रह गई अवशेष।
धुंध है, साया है।
स्मृति ही सरमाया है।
संभलता हूँ, संभालता हूँ, स्वयं को
स्मृति कोश पालता हूँ।
प्रतिक्षण, प्रतिपल जीवन की दरिया
नित-नित तुम आये, मेरी दिनचर्या।
कैसा हूँ, किस कदर
मैं जीता हूँ
कंकाल हूँ। फीनिक्स पक्षी का
अपनी राख से ही, उठता हूँ।
मैं जब भी दिनचर्या में भरमाता हूँ
तुमको ही निकट पाता हूँ।
वह लोरी गाकर मुझे मनाना,
तुमसे छिपकर मेरा भागना
रात-रात भर, मेरे रोने से
सुबह तक, तुम्हारा जागना।
मेरे गिरने पर
तुम्हारा बेसुध हो जाना,
पास आकर स्पर्श कर,
गोद में उठाना।
अब तक, न भूल सका हूँ।
उन बहुमूल्य रत्नों-सी स्मृति
तुम अब भी, ज़िंदा हो माँ
मेरे रक्त के, कण-कण में।
वह स्मृति अब भी वर्तमान है।
स्तब्ध हूँ, आश्चर्यचकित हूँ
यह सब संभव कैसे
तुम्हारा जलाया शिक्षा रूपी प्रेम का दीपक
मेरे हृदय में, अब तक माँ
प्रज्जवलित है।
तुम घर के, हर कोने में
रसोई में, घर-आँगन में
अब तक, नज़र आती हो।
तुम नक्षत्रलोक के, तारामण्डल की भाँति
मेरे जीवन-परिधि के
चारों ओर गतिमान हो।
मेरा जीवन अनुगामी है तुम्हारा।
मैं अतीत के पृष्ठों पर वर्तमान का बीज बो रहा हूँ;
माँ अब भी तुम्हारी गोद में सो रहा हूँ।
धूल मिट्टी न लग जाये माँ
अपना आँचल फैला दो माँ।
माँ अब तक याद है मुझको
मेरे छोटे पाँव की कोशिश
तुम्हारे दो हाथ पकड़कर
चलने की थी।
किशोरावस्था में तुम्हारा साथ
पूरे हृदय से था।
मेरे चारों ओर, जो सुख शांति थी
तुम ही कारण थी माँ-तुम ही।
आज फिर ढूँढ रहा हूँ माँ
मैं तुमको नित-नित
वह स्पर्श अब, तन को नहीं
हृदय को छूता है।
तुम यूँ रूठ कर, चली गई माँ
अब नहीं आओगी क्या
उस मनहूस दिवस को मैं
अब तक न भूल पाया हूँ
रोता हूँ, पछताता हूँ
स्वयं को सताता हूँ।
तुम्हारी तस्वीर पर लगी धूल को
आँसुओं से मिटाता हूँ।
मेरे नित-नित दिनचर्या के कामों को-माँ
देख रही हो ना
हृदय मंदिर में
तुम्हारे नाम का आसन
अब भी बुन रहा हूँ।
रेत से विलग कर
राई को चुन रहा हूँ।
काँटों से फूलों को
अलग कर रहा हूँ
माँ मेरी माँ ........... आज भी
मैं तुमको, साक्षात देख रहा हूँ।
2-
कब आआेगी माँ...
..................................
माँ ने साँस ताे दी,
पर साँस ताेड़ ली.!
जीवन ताे दिया,
पर राह माेड़ ली.!
कल की ही ताे बात थी,
खुशियाें की बारात थी.!
गभॆ में कूदता आैर उछलता,
तुम जाे-जाे खाती माँ ..
उसका रस मैं भी पाता.!
तेरे रक्त से बना हूँ माँ,
श्वेत रक्त में सना हूँ माँ.!
...................................
पर आज सुनसान राह मेँ,
कहाँ छाेड़ गई हाे माँ.!
क्याें नहीं आती हाे माँ,
देखाे माँ तुम जल्दी आआे,
बाेल रहा हूँ..
जल्दी आआे
वरना बिन खाये साे जाऊँगा.,
लाैट के जल्दी आ जाआे माँ,
केवल तुम से प्यार करूगा.!
......................................
अब आआेगी..
कब आआेगी..
आँखिर कब तक आआेगी .!
देखाे माँ तुम जल्दी आआे....
बाेल रहा हूँ जल्दी आआे,..
वरना बिन खाये साे जाऊँगा..
तुम्हारी हर बाताें पर,
जीवन का आधार धरूँगा...
लाैट के जल्दी आ जाआे माँ,
केवल तुम से प्यार करूगा...
केवल तुमसे प्यार करूगा....
3-
साँझ की अाखिरी किरण का सफर खाेने काे है,
सूरज फिर से गहरी नींद में साेने काे है !
आैर चाँद पहरेदार की भाँति,
रात्रि का गवाह हाेगा ।
कुछ खग पश्चिम की अाेर, झुंड़ के झुंड़ बनाकर उड़ रहे है .......!
घर की दिशा का अनुमान, शायद पँखाें की उड़ानाें पर निभॆर है !
पूरब दिशा इस बात की गवाह हाेगी,
कि सूरज फिर से नीलगगन में चमकेगा !
फिर राेशनी के समंदर में जग स्नान करेगा ।
चिड़ियाँ फिर बाँसाें के झुरमुट में गीत गायेंगी !
कुछ आधे-अधुरे घाैंसलाें का काम चरम पर हाेगा !
कभी पूणॆ ना हाेने वाली, जीवन की सड़क,
की भाँति दिशा विहीन जीवन अनवरत है !
फिर भी हम लक्ष्य की आेर चलते रहते हैं ।।
4-
आशा अमरधन
.......................................
हर बार एक,
हर बार नया,
जाने मैं कितनी दूर तक गया. !
भविष्य काे देखा,
भूत काे खाेया,
वतॆमान में ना जाने,
क्या ले कर बाेया !
छाेटा सा सपना आँखाें में संजाेया,
यह ले कर मैं सारी रात ना साेया !
फिर एक दिन नसीब ने कहा,
तू किस्मत से आगे चल ।
भूल जा तू अपने बीते हुए पल,
नसीब काे भला काेई बदल है पाया !!
वह सब उसने श्रम से दिखलाया ।।
5-
खामोशियों की आवाज कौन सुनता है,
कटे पेड़ों की आवाज कौन सुनता है ।
कहने को तो पक्षियों की भी बोली होती है,
पर उनकी बात कौन सुनता है ।
छोड़ आते हैं रिश्तों को मरघट पर ,
घर तो दिखावे का रोना होता है ।
ये सागर. ये लहरें ये लहरों का बढ़ना ,
गीली रेत पर पाॅव का धसना ,
पल में बदलती ये सूरज की छाया ,
रेत का घर किसने बनाया ।
लहरों का तट को मिलना दोबारा,
घर के ददॆ को कौन सुनता है ।
खामोशियों की आवाज कौन सुनता है ।
ददॆ अब भीतर ही रह जायेगा,
न सुनेगा कोई और न सुना पायेगा ।
सच में आवाजों के शहर में,
खामोशी पहचानेगा कौन ।
फिर भी मन तो सपना बुनता है ।
खामोशियों की आवाज कौन सुनता है ।
6-
सूरज सबका है,
धरती सबकी है,
नदियाें/नालाेँ का जल,
सागर पर जा गिरता है।
जाे बूँद, धरा पर गिरती है,
उस पर भी सब का हक है !
मानव ! तुम सब के अधिकारी,
भाेग कराे तुम बारी- बारी,
पर जग का भी ताे जीवन है।
धरती के ये छाेटे जीव,
इनका काैन सहारा है,
इनका घर ताे इस धरती पर पथरिले काँटाेँ वाला है।
इनकाे भी अधिकार मिलेँ,
जीवन का आधार मिले,
धरती की पीड़ा गीत,
मिलकर आज गुनगुनाना है ।
फिर कह सकता हूँ मैँ,
जग मेँ....
सूरज सबका है !
धरती सबकी है ।।
7-
एक छोटा सा सपना है प्यार, कोई अपना है प्यार। साॅसों का चलना है प्यार, साॅसों का ढलना है प्यार, सूरज का उगना है प्यार, सूरज का ढलना है प्यार, सागर की गहराई है प्यार, अंतरिक्ष की ऊँचाई है प्यार, अपनों का बिछड़ना है प्यार, बिछड़ों का मिलना है प्यार, किसी की आहट है प्यार, किसी का आभाष है प्यार, तकरार में है प्यार, इनकार में है प्यार, आशा में है प्यार, निराशा में है प्यार, सागर में है प्यार, एक बूँद में अपार, जलती हुई आग है प्यार, बुझता हुआ चिराग है प्यार, चिड़ियों का चहकना है प्यार, शेर की दहाड़ में है प्यार, पत्ते के गिरने में है प्यार, हवाओं के चलने में है प्यार, फूल के खिलने में है प्यार, जीवन का सार है प्यार, छोटा सा सपना है प्यार, कोई अपना है प्यार ।
8-
कितना मैँ ,
निकट था,
माैत तुमहारे,
उतना ही था पास जीवन,
जीने कि उममीद् फिर, धमनियाेँ में बहनें लगी,
माैत भी अब कहने लगी,
नहीं मिलेगा तुमकाे अब आराम,
निभाते जाआे जग के सारे काम !
9-
साेचा था जीवन का पार नहीँ हाेता है,
अनुभव का संसार नही हाेता !
छाेटी सी हाेती है दुनियाँ,
विसतार नहीँ हाेता है !
पर खुद जाना आैर देखा जब जीवन काे आर-पार ।
अब कहता !
दिल पगला दिवाना,
नादान परिंदा वह जग का,
जाे यह ना समझा आैर ना जाना !
जीवन उस नदिया की धार,
विपरित चलाआे तुम पतवार,
नाैका की फिर अपनी धार,
ले चल तू इसकाे मझधार,
हे जग दाता, पालनहार,
सिखलाते तुम करना पयार,
अब जीवन लगता मुझकाे मनुहार,
हे जग दाता, पारावार,
कराे निमत्रंण अब स्वीकार.!!
10-
फिर कहते हाे शायर हूँ मैं..
...................................
गीत नया क्या गाया मैंने..
गूँजा हवाआें में जाे गाना..
पायल की झँकार बजी जाे..
झूम उठा सब ताना-बाना..
नाच उठी फिर मेरी कल्पना..
नंदन-कानन बनी व्यंजना..
शाेर मचाते हाे उसमें तुम..
किस पद के लायक हूँ मैं..
फिर कहते हाे शायर हूँ..!!
.......................................
बरसाें तरस गई थी आँखियाँ..
ना आपनाें का दीदार हुआ..
छूट चुकी वह गलियाँ/सखियाँ,
क्या सीने में एहसास हुआ.?
मजहब एक था लेकिन,
आतंक का संसार हुआ..
आैर बन्दूकाें के नालाें से,
शरहदाें के तालाें से,
हवाआें में बरसाई जब गाेलियाँ,
भीग गई हैं सब चाेलियाँ........
आैर कहते हाे कायर हूँ मैं......
फिर कहते हाे शायर हूँ मैं...!!
...........................................................
मैं भूत काे देखूँ ताे,
वतॆमान खाे देता हूँ ......
आैर वतॆमान काे देखूँ ताे,
भविष्य काे लेकर राेता हूँ.....!
अब मैं .......
मैं कहाँ रह जाता हूँ.......
मेरे मन के भीतर भी.....
मन है विचलित करने वाला..!
सच कहता हूँ ........
जीवन क्या है......?
अनुभव का संसार मिला......
बिन साेची, बिन पहचानी,
विपदाआें का जंजाल मिला,
जिसकाे देखा जिसकाे पाया,
अंदर से खामाेश नजर आया.!
जग की रस्म निभाने काे,
हंसने आैर हसाने काे,
कुछ पल दिल बहलाने काे,
मैंनें कविता के बाेल सुनाए...
आैर जग कहता है....
......
चंद्रकांत तिवारी /दिल्ली
🌿🌷
डॉ चन्द्रकान्त तिवारी
1-
समय के प्रवाह में,
लहरों की गति पर
हमारी जीवन नैया की पालें
तीव्र गति से गतिमान हैं।
आँखें मूँद लेता हूँ
एक तुम्हारी आकृति
मेरी आँखों में,
मेरे हृदय में, है विराजमान
अब यादें नहीं रह गई शेष
तुम्हारी स्मृति ही,
रह गई अवशेष।
धुंध है, साया है।
स्मृति ही सरमाया है।
संभलता हूँ, संभालता हूँ, स्वयं को
स्मृति कोश पालता हूँ।
प्रतिक्षण, प्रतिपल जीवन की दरिया
नित-नित तुम आये, मेरी दिनचर्या।
कैसा हूँ, किस कदर
मैं जीता हूँ
कंकाल हूँ। फीनिक्स पक्षी का
अपनी राख से ही, उठता हूँ।
मैं जब भी दिनचर्या में भरमाता हूँ
तुमको ही निकट पाता हूँ।
वह लोरी गाकर मुझे मनाना,
तुमसे छिपकर मेरा भागना
रात-रात भर, मेरे रोने से
सुबह तक, तुम्हारा जागना।
मेरे गिरने पर
तुम्हारा बेसुध हो जाना,
पास आकर स्पर्श कर,
गोद में उठाना।
अब तक, न भूल सका हूँ।
उन बहुमूल्य रत्नों-सी स्मृति
तुम अब भी, ज़िंदा हो माँ
मेरे रक्त के, कण-कण में।
वह स्मृति अब भी वर्तमान है।
स्तब्ध हूँ, आश्चर्यचकित हूँ
यह सब संभव कैसे
तुम्हारा जलाया शिक्षा रूपी प्रेम का दीपक
मेरे हृदय में, अब तक माँ
प्रज्जवलित है।
तुम घर के, हर कोने में
रसोई में, घर-आँगन में
अब तक, नज़र आती हो।
तुम नक्षत्रलोक के, तारामण्डल की भाँति
मेरे जीवन-परिधि के
चारों ओर गतिमान हो।
मेरा जीवन अनुगामी है तुम्हारा।
मैं अतीत के पृष्ठों पर वर्तमान का बीज बो रहा हूँ;
माँ अब भी तुम्हारी गोद में सो रहा हूँ।
धूल मिट्टी न लग जाये माँ
अपना आँचल फैला दो माँ।
माँ अब तक याद है मुझको
मेरे छोटे पाँव की कोशिश
तुम्हारे दो हाथ पकड़कर
चलने की थी।
किशोरावस्था में तुम्हारा साथ
पूरे हृदय से था।
मेरे चारों ओर, जो सुख शांति थी
तुम ही कारण थी माँ-तुम ही।
आज फिर ढूँढ रहा हूँ माँ
मैं तुमको नित-नित
वह स्पर्श अब, तन को नहीं
हृदय को छूता है।
तुम यूँ रूठ कर, चली गई माँ
अब नहीं आओगी क्या
उस मनहूस दिवस को मैं
अब तक न भूल पाया हूँ
रोता हूँ, पछताता हूँ
स्वयं को सताता हूँ।
तुम्हारी तस्वीर पर लगी धूल को
आँसुओं से मिटाता हूँ।
मेरे नित-नित दिनचर्या के कामों को-माँ
देख रही हो ना
हृदय मंदिर में
तुम्हारे नाम का आसन
अब भी बुन रहा हूँ।
रेत से विलग कर
राई को चुन रहा हूँ।
काँटों से फूलों को
अलग कर रहा हूँ
माँ मेरी माँ ........... आज भी
मैं तुमको, साक्षात देख रहा हूँ।
2-
कब आआेगी माँ...
..................................
माँ ने साँस ताे दी,
पर साँस ताेड़ ली.!
जीवन ताे दिया,
पर राह माेड़ ली.!
कल की ही ताे बात थी,
खुशियाें की बारात थी.!
गभॆ में कूदता आैर उछलता,
तुम जाे-जाे खाती माँ ..
उसका रस मैं भी पाता.!
तेरे रक्त से बना हूँ माँ,
श्वेत रक्त में सना हूँ माँ.!
...................................
पर आज सुनसान राह मेँ,
कहाँ छाेड़ गई हाे माँ.!
क्याें नहीं आती हाे माँ,
देखाे माँ तुम जल्दी आआे,
बाेल रहा हूँ..
जल्दी आआे
वरना बिन खाये साे जाऊँगा.,
लाैट के जल्दी आ जाआे माँ,
केवल तुम से प्यार करूगा.!
......................................
अब आआेगी..
कब आआेगी..
आँखिर कब तक आआेगी .!
देखाे माँ तुम जल्दी आआे....
बाेल रहा हूँ जल्दी आआे,..
वरना बिन खाये साे जाऊँगा..
तुम्हारी हर बाताें पर,
जीवन का आधार धरूँगा...
लाैट के जल्दी आ जाआे माँ,
केवल तुम से प्यार करूगा...
केवल तुमसे प्यार करूगा....
3-
साँझ की अाखिरी किरण का सफर खाेने काे है,
सूरज फिर से गहरी नींद में साेने काे है !
आैर चाँद पहरेदार की भाँति,
रात्रि का गवाह हाेगा ।
कुछ खग पश्चिम की अाेर, झुंड़ के झुंड़ बनाकर उड़ रहे है .......!
घर की दिशा का अनुमान, शायद पँखाें की उड़ानाें पर निभॆर है !
पूरब दिशा इस बात की गवाह हाेगी,
कि सूरज फिर से नीलगगन में चमकेगा !
फिर राेशनी के समंदर में जग स्नान करेगा ।
चिड़ियाँ फिर बाँसाें के झुरमुट में गीत गायेंगी !
कुछ आधे-अधुरे घाैंसलाें का काम चरम पर हाेगा !
कभी पूणॆ ना हाेने वाली, जीवन की सड़क,
की भाँति दिशा विहीन जीवन अनवरत है !
फिर भी हम लक्ष्य की आेर चलते रहते हैं ।।
4-
आशा अमरधन
.......................................
हर बार एक,
हर बार नया,
जाने मैं कितनी दूर तक गया. !
भविष्य काे देखा,
भूत काे खाेया,
वतॆमान में ना जाने,
क्या ले कर बाेया !
छाेटा सा सपना आँखाें में संजाेया,
यह ले कर मैं सारी रात ना साेया !
फिर एक दिन नसीब ने कहा,
तू किस्मत से आगे चल ।
भूल जा तू अपने बीते हुए पल,
नसीब काे भला काेई बदल है पाया !!
वह सब उसने श्रम से दिखलाया ।।
5-
खामोशियों की आवाज कौन सुनता है,
कटे पेड़ों की आवाज कौन सुनता है ।
कहने को तो पक्षियों की भी बोली होती है,
पर उनकी बात कौन सुनता है ।
छोड़ आते हैं रिश्तों को मरघट पर ,
घर तो दिखावे का रोना होता है ।
ये सागर. ये लहरें ये लहरों का बढ़ना ,
गीली रेत पर पाॅव का धसना ,
पल में बदलती ये सूरज की छाया ,
रेत का घर किसने बनाया ।
लहरों का तट को मिलना दोबारा,
घर के ददॆ को कौन सुनता है ।
खामोशियों की आवाज कौन सुनता है ।
ददॆ अब भीतर ही रह जायेगा,
न सुनेगा कोई और न सुना पायेगा ।
सच में आवाजों के शहर में,
खामोशी पहचानेगा कौन ।
फिर भी मन तो सपना बुनता है ।
खामोशियों की आवाज कौन सुनता है ।
6-
सूरज सबका है,
धरती सबकी है,
नदियाें/नालाेँ का जल,
सागर पर जा गिरता है।
जाे बूँद, धरा पर गिरती है,
उस पर भी सब का हक है !
मानव ! तुम सब के अधिकारी,
भाेग कराे तुम बारी- बारी,
पर जग का भी ताे जीवन है।
धरती के ये छाेटे जीव,
इनका काैन सहारा है,
इनका घर ताे इस धरती पर पथरिले काँटाेँ वाला है।
इनकाे भी अधिकार मिलेँ,
जीवन का आधार मिले,
धरती की पीड़ा गीत,
मिलकर आज गुनगुनाना है ।
फिर कह सकता हूँ मैँ,
जग मेँ....
सूरज सबका है !
धरती सबकी है ।।
7-
एक छोटा सा सपना है प्यार, कोई अपना है प्यार। साॅसों का चलना है प्यार, साॅसों का ढलना है प्यार, सूरज का उगना है प्यार, सूरज का ढलना है प्यार, सागर की गहराई है प्यार, अंतरिक्ष की ऊँचाई है प्यार, अपनों का बिछड़ना है प्यार, बिछड़ों का मिलना है प्यार, किसी की आहट है प्यार, किसी का आभाष है प्यार, तकरार में है प्यार, इनकार में है प्यार, आशा में है प्यार, निराशा में है प्यार, सागर में है प्यार, एक बूँद में अपार, जलती हुई आग है प्यार, बुझता हुआ चिराग है प्यार, चिड़ियों का चहकना है प्यार, शेर की दहाड़ में है प्यार, पत्ते के गिरने में है प्यार, हवाओं के चलने में है प्यार, फूल के खिलने में है प्यार, जीवन का सार है प्यार, छोटा सा सपना है प्यार, कोई अपना है प्यार ।
8-
कितना मैँ ,
निकट था,
माैत तुमहारे,
उतना ही था पास जीवन,
जीने कि उममीद् फिर, धमनियाेँ में बहनें लगी,
माैत भी अब कहने लगी,
नहीं मिलेगा तुमकाे अब आराम,
निभाते जाआे जग के सारे काम !
9-
साेचा था जीवन का पार नहीँ हाेता है,
अनुभव का संसार नही हाेता !
छाेटी सी हाेती है दुनियाँ,
विसतार नहीँ हाेता है !
पर खुद जाना आैर देखा जब जीवन काे आर-पार ।
अब कहता !
दिल पगला दिवाना,
नादान परिंदा वह जग का,
जाे यह ना समझा आैर ना जाना !
जीवन उस नदिया की धार,
विपरित चलाआे तुम पतवार,
नाैका की फिर अपनी धार,
ले चल तू इसकाे मझधार,
हे जग दाता, पालनहार,
सिखलाते तुम करना पयार,
अब जीवन लगता मुझकाे मनुहार,
हे जग दाता, पारावार,
कराे निमत्रंण अब स्वीकार.!!
10-
फिर कहते हाे शायर हूँ मैं..
...................................
गीत नया क्या गाया मैंने..
गूँजा हवाआें में जाे गाना..
पायल की झँकार बजी जाे..
झूम उठा सब ताना-बाना..
नाच उठी फिर मेरी कल्पना..
नंदन-कानन बनी व्यंजना..
शाेर मचाते हाे उसमें तुम..
किस पद के लायक हूँ मैं..
फिर कहते हाे शायर हूँ..!!
.......................................
बरसाें तरस गई थी आँखियाँ..
ना आपनाें का दीदार हुआ..
छूट चुकी वह गलियाँ/सखियाँ,
क्या सीने में एहसास हुआ.?
मजहब एक था लेकिन,
आतंक का संसार हुआ..
आैर बन्दूकाें के नालाें से,
शरहदाें के तालाें से,
हवाआें में बरसाई जब गाेलियाँ,
भीग गई हैं सब चाेलियाँ........
आैर कहते हाे कायर हूँ मैं......
फिर कहते हाे शायर हूँ मैं...!!
...........................................................
मैं भूत काे देखूँ ताे,
वतॆमान खाे देता हूँ ......
आैर वतॆमान काे देखूँ ताे,
भविष्य काे लेकर राेता हूँ.....!
अब मैं .......
मैं कहाँ रह जाता हूँ.......
मेरे मन के भीतर भी.....
मन है विचलित करने वाला..!
सच कहता हूँ ........
जीवन क्या है......?
अनुभव का संसार मिला......
बिन साेची, बिन पहचानी,
विपदाआें का जंजाल मिला,
जिसकाे देखा जिसकाे पाया,
अंदर से खामाेश नजर आया.!
जग की रस्म निभाने काे,
हंसने आैर हसाने काे,
कुछ पल दिल बहलाने काे,
मैंनें कविता के बाेल सुनाए...
आैर जग कहता है....
......
चंद्रकांत तिवारी /दिल्ली
🌿🌷

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