शुक्रवार, 28 मार्च 2025

स्वधर्म साक्षात्कार - ©डॉ.चंद्रकांत तिवारी

 स्वधर्म साक्षात्कार

©डॉ.चंद्रकांत तिवारी 

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ईश्वर ने दुनिया वैसी ही बनाई है जैसी हम सोचते हैं। हर व्यक्ति को उसकी सोच के अनुरूप ही लोग मिलते हैं। व्यक्ति जैसा सोचता है, जैसा महसूस करता है, परिणाम भी सोच के अनुरूप बनते रहते हैं। जिसकी भावना जैसी होती है । ईश्वर भी वही रूप दिखाते हैं। 


इस संसार में हमारा जीवन हमारी सोच के अनुसार ही दिखाई देता है। जैसी दृष्टि वैसी ही सृष्टि दिखाई देगी।


"नज़र कुछ कहती है 

नज़रिया कुछ कहता है 

कभी-कभी चुपचाप रहकर 

अनुभव भी कुछ कहता है।"


परंतु जागरूक, सतर्क, पूर्व अनुभव 

के साथ-साथ समयानुसार चलना भी जरूरी है। लेकिन आत्मविश्वास बनाए रखेंगे तो कोशिश एवं प्रयास सार्थक होंगे।


गोस्वामी तुलसीदास जी ने श्री रामचरितमानस की चौपाई में कहा भी है कि...

'जाकी रही भावना जैसी,

 प्रभु मूरत देखी तिन तैसी'।'


आत्ममुग्धता से अधिक आत्ममंथन 

व्यक्ति एवं व्यक्तित्व को परिवार एवं समाज को निखारने एवं परखने में सहायक होगा । सकारात्मक सोच के साथ जागरूकता एवं सतर्कता भी मुश्किलों से बचाती है। विश्वास ठीक है। अन्धविश्वास से अधिक आत्मविश्वास अतिआवश्यक है। गलतियांँ ऐसी भी ना हों कि स्व-चरित्र दूषित हो जाए। स्वधर्म, स्वचरित्र और स्व-कर्म नैतिकता का आधार बनें यह प्रयास ही जीवन की गति निर्धारित एवं नियंत्रित करता रहे तो भी ठीक है।


फिर भी विचारणीय विषय यह कि अपनी नज़र और नज़रिया ही लक्ष्य की ओर ले जाता है।


जिसमें ताप लगेगी वह पिघलता है और बहता है। ऊंचे हिमालय के शिखर ताप से तप्त होकर भी जब धारा में परिवर्तित हो जाते हैं तो भी अपनी शीतलता नहीं खोते।

स्वधर्म, स्वचरित्र और स्व-कर्म नैतिकता मर्यादित बना रहे यही संघर्षों का अंतिम संस्कार और परम्पराओं का प्रारंभिक विकास एवं जीवन का दार्शनिक अनुभव है।

नदी की धारा अपना मार्ग तय करती है और स्वधर्म, स्वचरित्र एवं स्व-कर्म चेतना उसकी गति निर्धारित करती चलती है।


पढ़ें, विचारें, अग्रेषित कर अनुभव करें !!


©डॉ. चंद्रकांत तिवारी

उत्तराखंड प्रांत

शुक्रवार, 14 मार्च 2025

🌹फूलदेई - लोक पर्व के बहाने🌹 ©डॉ.चंद्रकांत तिवारी

🌹फूलदेई - लोक पर्व के बहाने🌹- १५ मार्च २०२५ (15 March 2025)🌹-

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उत्तराखंड की लोक संस्कृति का प्राकृतिक पर्व - प्राकृतिक रंगों के संग_*


🌹होली के रंगों में प्राकृतिक रंगों को ना भूलें🌹

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©डॉ. चंद्रकांत तिवारी

उत्तराखंड प्रांत 

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फूलदेई पर्व के दिन बच्चों की मित्र-मंडली थाली को सजाकर उसमें फूल, चावल, गुड़, मिठाई रखकर अपनी बिरादरी और आस-पास के घरों में या अपने क्षेत्र के पूरे गांव में, आसपास घरों में जाकर मुख्य दरवाजे की दहलीज़ पर फूलदेई खेलते हैं अर्थात देहली पर अक्षत और फूल फेंकते हैं और घरों की खुशहाली, शुभ मंगलमय की कामना करते हैं । इस पूरी रस्म के दौरान वे लोकगीत गाते हुए आनंद और खुशी से जितना दोगे उतना ही सही कथन वाक्य को दोहराते हैं। बड़ों को प्रणाम कर आशीर्वाद प्राप्त करते हैं। आदर्श चरित्र की निर्माण प्रक्रिया में यह महत्वपूर्ण एवं उल्लेखनीय पर्व है।


बच्चों की मित्र-मंडली को सभी लोग खुशी-खुशी चावल, मिठाई, फल, टॉफी और गुड़ के साथ भेंट में रुपये भी देते हैं। कहना ना होगा कि अब पहले के मुकाबले इस पर्व के प्रति बच्चों और बड़ों में अपनापन थोड़ा कम होता जा रहा है । लोग अपने लोक पर्वों को भूल रहे हैं या उन्हें अब यह पर्व महत्वहीन लग रहा है। जिस गांव में लोग पहले स्वयं अपने किशोरावस्था में खुशी-खुशी इस पर्व को खेलते थे, वहीं आज उन्हें समय के साथ-साथ महत्वहीन लगने लगा है। 


बहुसंस्कृति और बढ़ती हुई भूमंडलीकरण की प्रतिस्पर्धा की दौड़ में लोग अपनी जड़ों से पलायन कर रहे हैं । अपने लोक पर्वों से पलायन कर रहे हैं । अपनी लोक संस्कृति से पलायन कर रहे हैं। अपने घर-गांव से पलायन कर रहे हैं। अपनी नैतिकता एवं आचरण की मूल्यपरकता से पलायन कर रहे हैं। स्थिति बहुत ठीक नहीं है ऐसा वह भी मानते हैं जों लोक पर्व को विस्मृत एवं भूल बैठे हैं या याद नहीं करना चाहते। हो सकता है इस कार्य के लिए उनके पास समय शेष ना बचा हो। व्यस्तता ने व्यक्ति की नैतिक मर्यादा, आत्मिक चेतना, स्वच्छंदता, हंसी-खुशी एवं अपनापन, सरलता एवं खुलापन, बोलने की कला व्यवहारिक जीवन कौशल, रिश्ते-नाते सभी में बदलाव कर दिया है। साहब यह भूमंडलीकरण की दौड़ है जहां प्रसन्नचित चेहरे के भीतर भी एक चेहरा छुपा हुआ है। जो न हंसता है, न बोलता है। केवल बिंम मात्र है। शीशे के भीतर प्रतिबिंबित दृश्य।



 किसी जमाने में बच्चों को इस दिन का बेसब्री से इंतजार होता था। बच्चे स्कूल में भी एक दूसरे के ऊपर फूलों से खेल लिया करते थे। परंतु आधुनिकता और परंपरा के मध्य का सेतु थोथी नैतिकता की समाजिकता का शिकार बन गया और हमने लोक पर्व को ही नहीं खोया बल्कि अपनी सांस्कृतिक विरासत का भी गहरा नुकसान कर दिया। आजकल के बच्चे मोबाइल में गेम खेलने या फिर अपनी पढ़ाई में इतने व्यस्त रहते हैं कि वे लोकपर्वों के महत्व से वंचित हो चुके हैं और ऐसे पर्वों को पिछड़ेपन के प्रतीक के रूप में देखने लगे हैं।



हालांकि बसंत ऋतु के आगमन पर फूलदेई का त्यौहार मनाया जाता है। फूलदेई के लिए बच्चे एक दिन पहले से ही रंग-बिरंगे फूल तोड़कर ले आते थे । उसे टोकरी या फिर थाली में चावल लेकर सभी के घरों में फूलदेई के लिए जाते थे । इसके बाद उन्हें चावल, गुड़, टॉफी या फल रुपये दिए जाते थे । बच्चे जब फूलदेई को आते थे, तो वह फूलदेई का गीत भी गाते थे,  

जैसे - 


‘फूलदेई छम्मा देई, दैणी द्वार भर भकार’।


'फूलदेई छम्मा देई, जतुक देय्ला उतुक सई'।



इस पर्व के प्रति बच्चों में काफी उत्साह देखने को मिलता था पर अब शायद....!!


मैं बचपन से ही फूलदेई मनाता रहा हूंँ । आज किसी बच्चे को अगर फूलदेई मनाते देखाता हूंँ तो स्वयं को पुरानी स्मृति से जोड़ पाता हूंँ। स्मृति पद-चिन्ह लौटते ज़रूर हैं।



इस दिन के आनंद का इंतजार एक वर्ष से करता रहा हूंँ । परंतु अब शायद लोगों के और अपने रिश्तेदारों के घरों में ना जाकर देवी-देवता के मंदिर में पुष्प अर्पित कर मन ही मन अभी भी कहता हूंँ कि.....👇


'फूलदेई छम्मा देई, दैणी द्वार भर भकार’।


'फूलदेई छम्मा देई, जतुक देय्ला उतुक सई'।



आत्म मंथन भी जरूरी है...👇


क्या हमें अपने लोक पर्व को बाजार की संस्कृति और लोगों के हृदय से नहीं जोड़ना चाहिए ?


क्या हमें ऐसे लोक पर्वों के दिन सांस्कृतिक उत्सव और मित्र-मंडली के साथ कुछ पल समय व्यतीत नहीं करना चाहिए ?


क्या हमें इस दिन छोटे बच्चों और किशोरावस्था के नवयुवकों को मिठाई और फल या फिर मार्गदर्शन या आपसी सद्भाव नहीं देना चाहिए ?


यह लोक पर्व रचनात्मकता एवं सृजनात्मकता का प्रतीक है।


लोक की संस्कृति और संस्कृति का लोक भविष्य का उज्ज्वल आलोक है।


भक्ति, श्रद्धा, अपनत्व एवं सहजता सभी सहृदयता के प्रतीक चिन्ह हैं।


नैसर्गिक प्रवृति के लिए कागज के पुष्पों की नहीं अपितु प्रकृति के प्रांगण के पुष्पों की आवश्यकता है। 


प्रकृति उपहार एवं असंख्य आकर्षणों और रंगों से भरी हुई है। प्राकृतिक रंगों को हृदय में धारण करना चाहिए कि कृत्रिम रंगों को ? 


गतिशील समृद्ध विचारशक्ति जगाने की आवश्यकता है कि नहीं विचारें...!


ऐसे कई महत्वपूर्ण बिंदु हैं जिस पर विचार-मंथन की आवश्यकता है। निर्णय परिपक्वता से बनेगा तभी दीर्घ काल तक चलेगा.!


हम अगर अपने लोक पर्वों की रक्षा करेंगे तो लोक पर्व हमारी संस्कृति और धर्म की रक्षा करेंगे। हमारे लोगों की रक्षा करेंगे।

इंसान को इंसान बनाए रखेंगे। 


स्वार्थ की प्रीति कहांँ तक उचित है विचारें ..!!

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शनिवार, 1 मार्च 2025

सूचना (इंफोर्मेशन) और ज्ञान (नालेज) ©डॉ. चंद्रकांत तिवारी There is a huge difference between information and knowledge.

 सूचना (इंफोर्मेशन) और ज्ञान (नालेज) 

There is a huge difference between information and knowledge.

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एक प्रश्न के सही उत्तर को लिखने के लिए अगर केवल विकल्प हो तो उसी प्रकार के प्रश्नों से विद्यार्थी केवल परीक्षा उत्तीर्ण कर सकता है। उसके सीखने की चुनौती बनी रहेगी।


कम से कम प्रश्नों के उत्तर लिखने के लिए विश्लेषणात्मक एवं विवेचनात्मक प्रश्नों की आवश्यकता है। प्रश्नों के उत्तर लिखने से एक साथ विभिन्न चरणों में मूल्यांकन हो सकेगा। 

जैसे - 

व्याकरणिक अशुद्धियांँ 

लेखन कला 

सृजनात्मक शक्ति 

सृजनात्मक कवित्व गुण 

पद लालित्य 

वाक्य संयोजन 

कथेत्तर गद्य के अनुरूप लेखन शैली 

भाषा एवं शैली 

तुलनात्मक समीक्षा लेखन कला

शोध दृष्टि के समीक्षात्मक बिंदु।


कुल मिलाकर बहुविकल्पीय प्रश्नों ने विश्लेषणात्मक और तर्कशील प्रश्नों के उत्तरों का नाश कर दिया। विद्यार्थियों के खोजी व्यक्तित्व को रटंत बनाकर समीक्षात्मक एवं तुलनात्मक अध्ययन पद्धति की परीक्षा को मूल्यांकन विहीन कर दिया। जिससे छात्रों का बौद्धिक क्षितिज मात्र परीक्षा पास करने तक ही सीमित हो गया है। आज डिग्री प्राप्त युवा बहुविकल्पीय प्रश्नों की भांँति अत्यधिक विकल्पों के मध्य स्थाई विकल्प तलाशने में व्यस्त हैं।

सूचना (इंफोर्मेशन) और ज्ञान (नालेज) दोनों में बहुत बड़ा अंतर है। 


©डॉ. चंद्रकांत तिवारी 

Fb-Chandra Tewari