गुरुवार, 9 जनवरी 2025

स्वीकारोक्ति जीवन में आवश्यक है - ©डॉ. चंद्रकांत तिवारी

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स्वीकारोक्ति जीवन में आवश्यक है - (विश्व हिंदी दिवस पर -10 जनवरी) 

©डॉ. चंद्रकांत तिवारी 

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जागरूकता, प्रचार-प्रसार, सरकारी कार्यालयों में भाषाई प्रयोग, व्यावहारिक जनजीवन में आत्मिक भाषाई प्रयोग और शिक्षण पद्धति के क्षेत्र में भाषाई अनुप्रयोग द्वारा हिंदी भाषा को वैश्विक शीर्ष पर स्थापित करते हुए, अपनी भाषा में संपादन, लेखन, प्रकाशन, शिक्षण, प्रशिक्षण, अनुसंधान, प्रबोधन, नीति, पाठ्यक्रम, संगठन और प्रत्येक राष्ट्र की भाषा के साथ समन्वित-समान आदर-भाव ही हिंदी भाषा को संवर्धित, पुष्पित, पल्लवित और लोक व्यवहारिक धरातल प्रदान करने में भारतीय और भारतीयता के स्वधर्म की रूपरेखा तैयार करेगा। जैसे बज़री, कंकड़, सीमेंट, लोहा, ईंट, पत्थर आदि में जल मिलाने से इमारत की दीवार और सुंदर घर बनाया जा सकता है। तो ठीक उसी तरह भिन्न-भिन्न भाषा एवं बोलियों के शब्दों द्वारा हिंदी भाषा का निर्माण संभव हो सकेगा और हिंदी भाषा का पद लालित्य एवं अनूठापन बना रहेगा। इस बात में कोई अतिशयोक्ति नहीं यह सत्य है।


 प्रभात (संस्कृत भाषा), प्रणाम (संस्कृत भाषा), मंगलमय (हिंदी भाषा), अभिवादन (लैटिन भाषा) और हार्दिक शुभकामना (हिंदी भाषा) धन्यवाद (संस्कृत भाषा), बोतल (पुर्तगाली शब्द), रेल (अंग्रेजी शब्द) आदि भिन्न-भिन्न भाषाओं के शब्दों द्वारा नियमित लोक व्यवहार और कार्य क्या हिंदी भाषा का नियमित आधार स्थापित करेगा ? बिल्कुल करेगा। क्योंकि यह सभी शब्द नियमित लोक व्यवहार में प्रयुक्त हो रहे हैं और होते रहते हैं। हिंदी भाषा में कई शब्द हिंदी भाषा को गतिशील, समृद्ध और सामर्थ्यवान बनाए रखने में सहायक है। 


भूमंडलीकरण और बहुभाषी समाज के समक्ष, सभ्यता और संस्कृति की बदलती बयार के साथ सबकी अपनी-अपनी जिजिविषा है। अपने-अपने सपने हैं। महत्वाकांक्षाओं का क्षितिज व्यापक है। अपनी भाषा, अपनी संस्कृति, अपना समाज और एकांकी परिवार। यहांँ तक कि धर्म की आपसी गुटबाजी भी नव-परिवर्तित भविष्य को दिशा-निर्देश जारी किए हुए आगाह कर रही है। स्वराष्ट्र प्रगति की संकल्पना सर्वोपरि यथार्थ है। परंतु निज राष्ट्र और वैश्विक परिदृश्य के संदर्भ में भारतीयता का आदित्य रूपी ध्वज हमेशा वैश्विक स्तर पर फहराने के लिए स्व-भाषा, स्वधर्म, स्वचरित्र, स्व-कर्म और स्वराज बहुत जरूरी है।

स्वीकारोक्ति जीवन में आवश्यक है। धर्म, कर्म, लोक सेवा एवं भाषाई व्यवहार हेतु।

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असफलता और सफलता में मौन बने रहता है अद्वित्य

प्रखर-दीप्ति निशा-अमावस्य तपस्वी-सा हंसता आदित्य।

©डॉ. चंद्रकांत तिवारी 

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मंगलवार, 7 जनवरी 2025

भाषा का उदय और विस्तार - ©डॉ. चंद्रकांत तिवारी

 भाषा का उदय और विस्तार - ©डॉ. चंद्रकांत तिवारी 

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       जब समाज में विश्रृंखलता उत्पन्न होकर उसकी गति को अवरुद्ध कर देती है, चारों ओर अव्यवस्था का साम्राज्य छा जाता है, विरोध रूपी दानव का ताण्डव सर्वत्र दृष्टिगोचर होने लगता है, परिणामत: सामाजिक, धार्मिक,राजनैतिक,नैतिक एवं सांस्कृतिक मूल्यों में शैथिल्य आ जाता है। उसी समय परिस्थितियाँ किसी एक ऐसी भाषा को जन्म देती हैं जो संपूर्ण विरोधी तत्वों एवं गतिरूद्धता के निमित्तों का परिष्कार करके उसमें पारस्परिक सहयोग, समानता, समंवयता, समायोजित, संकल्पित, समायोजन, संस्कार और सौंदर्य की सुनिर्मित स्वीकारोक्ति का सुगठित सानिध्य समाधान उत्पन्न करती है ।


     मुट्ठी में आकाश को समेटे भाषा रेत की तरह है, जिसे मुट्ठी में संभालकर नहीं रखें तो फिसल जाऐगी। निस्संदेह भावों तथा विचारों का प्रकटीकरण ही भाषा है। भाषा सामाजिक वस्तु है। इसका प्रवाह अविच्छिन्न है। यह सर्व-व्यापक है। सम्प्रेक्षण का मौखिक साधन है । भाषा अर्जित वस्तु है,क्योंकि यह व्यवहार द्वारा अर्जित की जाती है । भाषा सहज और नैसर्गिक क्रिया है। सामाजिक दृष्टि से इसका स्तरीयकरण होता है। यह परिवर्तनशील है क्योंकि यह संयोगात्मकता से वियोगात्मकता की ओर उन्मुख होती है।भाषा स्थिरीकरण और मानकीकरण से प्रभावित होती है। यह पहले उच्चरित रूप में परिवर्तित होती है ।स्वतंत्र ढाॅचा लिए भौगोलिक रूप से स्थानीयकृत होती है। इतना सब होने के बावजूद भी भाषा में न जाने कितनी अर्थों की पर्तों का समागम होता है। न जाने कितने गूढ़ भावों का समंदर हिलोरें लेता रहता है। भाषा तो कवि हृदय की प्रेमिका का नयन बिंदु है। नायिका के अंग-अंग की उज्ज्वल आभा है। नेता का कलात्मक भाषण है तो अभिनेता का सचित्र रंगमंचीय मुद्राओं सहित नृत्य है। यह तो आलोचक की कलम से निकला मोती है, और पत्रकार की लेखनी का ज्वलंत मुद्दा है। कमोबेश सुनने को मिलता है कि यह भारतवर्ष के हिंदी विभाग द्वारा शिक्षित शोधार्थी बेरोजगार की मन की भड़ास है तो वहीं नये-नये यू-ट्यूबर्स की पत्रकारिता की मौलिक विचारोत्तेजना है। फिर भी भाषा शिक्षक के लिए यह उसके पुत्र के समान है। हिंदी भाषा के संदर्भ में यह जन-समूह के हृदय का विकास है। तो उसके शिक्षण पद्धति के संदर्भों में संपूर्ण धरती पर जैसे बीजारोपण के समान है।

*भाषा स्वचरित्र में घुलकर व्यक्ति के व्यवहार और आचरण को चरितार्थ कर चरित्रवान बनाती है।*


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