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स्वीकारोक्ति जीवन में आवश्यक है - (विश्व हिंदी दिवस पर -10 जनवरी)
©डॉ. चंद्रकांत तिवारी
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जागरूकता, प्रचार-प्रसार, सरकारी कार्यालयों में भाषाई प्रयोग, व्यावहारिक जनजीवन में आत्मिक भाषाई प्रयोग और शिक्षण पद्धति के क्षेत्र में भाषाई अनुप्रयोग द्वारा हिंदी भाषा को वैश्विक शीर्ष पर स्थापित करते हुए, अपनी भाषा में संपादन, लेखन, प्रकाशन, शिक्षण, प्रशिक्षण, अनुसंधान, प्रबोधन, नीति, पाठ्यक्रम, संगठन और प्रत्येक राष्ट्र की भाषा के साथ समन्वित-समान आदर-भाव ही हिंदी भाषा को संवर्धित, पुष्पित, पल्लवित और लोक व्यवहारिक धरातल प्रदान करने में भारतीय और भारतीयता के स्वधर्म की रूपरेखा तैयार करेगा। जैसे बज़री, कंकड़, सीमेंट, लोहा, ईंट, पत्थर आदि में जल मिलाने से इमारत की दीवार और सुंदर घर बनाया जा सकता है। तो ठीक उसी तरह भिन्न-भिन्न भाषा एवं बोलियों के शब्दों द्वारा हिंदी भाषा का निर्माण संभव हो सकेगा और हिंदी भाषा का पद लालित्य एवं अनूठापन बना रहेगा। इस बात में कोई अतिशयोक्ति नहीं यह सत्य है।
प्रभात (संस्कृत भाषा), प्रणाम (संस्कृत भाषा), मंगलमय (हिंदी भाषा), अभिवादन (लैटिन भाषा) और हार्दिक शुभकामना (हिंदी भाषा) धन्यवाद (संस्कृत भाषा), बोतल (पुर्तगाली शब्द), रेल (अंग्रेजी शब्द) आदि भिन्न-भिन्न भाषाओं के शब्दों द्वारा नियमित लोक व्यवहार और कार्य क्या हिंदी भाषा का नियमित आधार स्थापित करेगा ? बिल्कुल करेगा। क्योंकि यह सभी शब्द नियमित लोक व्यवहार में प्रयुक्त हो रहे हैं और होते रहते हैं। हिंदी भाषा में कई शब्द हिंदी भाषा को गतिशील, समृद्ध और सामर्थ्यवान बनाए रखने में सहायक है।
भूमंडलीकरण और बहुभाषी समाज के समक्ष, सभ्यता और संस्कृति की बदलती बयार के साथ सबकी अपनी-अपनी जिजिविषा है। अपने-अपने सपने हैं। महत्वाकांक्षाओं का क्षितिज व्यापक है। अपनी भाषा, अपनी संस्कृति, अपना समाज और एकांकी परिवार। यहांँ तक कि धर्म की आपसी गुटबाजी भी नव-परिवर्तित भविष्य को दिशा-निर्देश जारी किए हुए आगाह कर रही है। स्वराष्ट्र प्रगति की संकल्पना सर्वोपरि यथार्थ है। परंतु निज राष्ट्र और वैश्विक परिदृश्य के संदर्भ में भारतीयता का आदित्य रूपी ध्वज हमेशा वैश्विक स्तर पर फहराने के लिए स्व-भाषा, स्वधर्म, स्वचरित्र, स्व-कर्म और स्वराज बहुत जरूरी है।
स्वीकारोक्ति जीवन में आवश्यक है। धर्म, कर्म, लोक सेवा एवं भाषाई व्यवहार हेतु।
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असफलता और सफलता में मौन बने रहता है अद्वित्य
प्रखर-दीप्ति निशा-अमावस्य तपस्वी-सा हंसता आदित्य।
©डॉ. चंद्रकांत तिवारी
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