आंँखों पर हिमालय भाग-3
©डॉ. चंद्रकांत तिवारी fb-Chandra Tewari
कुदरत की रंगीनी और बर्फ की चादर और क्या है यहां चुराने के लिए। चंद बारिश की बूंदें और फ़ुहारों संग सरसराती हवाएं कानों पर स्पर्श होते ही सिहरन-सी पैदा कर देती है पूरे शरीर पर। ऊंची पहाड़ियों की चोटियों पर चढ़कर दूर तलक पर्वत श्रृंखलाओं को देखना आनंद का कोई अंतिम छोर नहीं होता। विस्तृत फलक पर बैठकर आनंद की अनुभूति गूंगे व्यक्ति के मीठे फल खाने के समान ही प्रतीत होती है। कितनी सुंदर है यह पर्वत श्रृंखलाएं एक दूसरे को अपने बाहु-पाश में जकड़े एकता का अभिन्न सूत्र स्थापित करते हुए असंख्य जीव जंतुओं एवं पादप, फूल-पौधों को अपने हृदय में स्थान देते हैं।कितना विशाल हृदय है इन पर्वत श्रृंखलाओं का। कितना अपार धैर्य है। इनके भीतर शांत कोमल भावना लिए हुए एक वीर पुरुष की भांति अपना मस्तकाभिषेक स्वयं ऊंचा किए हुए संपूर्ण चराचर जगत को इस प्रकार से निहार रहे होते हैं कि आओ मेरे प्रांगण में बुद्धियुग के प्रतिस्पर्धियों कुछ क्षण बैठो और मुझे शांत होकर निहारो और अपने भीतर भी धैर्य धारण करने का संकल्प लेते हुए चराचर जगत में अनवरत विकास कार्यों से जुड़े रहो। पर्वत की अपनी भाषा-परिभाषा है। हरे वृक्षों की अपनी भाषा है। इन पर्वतों पर विचरण करने वाले जीव जंतुओं और मानव समाज की भी अपनी भाषा-परिभाषा है। परंतु प्राकृतिक शक्तियों की केवल एक ही परिभाषा होती है। एक ही संस्कार होता है और वह है स्वयं से निर्धारित, आत्म संस्कारित अपनत्व की भाषा का यथार्थ। वह है नैसर्गिक सुंदरता के विहंगम दृश्य, मनभावन-मुग्धकारी सम्मोहित करने की शक्ति का व्यापक केंद्र, हृदय की भावनाओं का विस्तार, धरा और क्षितिज का समन्वय और एकांत की संस्कृति का नादमय सौंदर्य। जो मन को भीतर से संस्कारित करता है। जिसका न कभी आदि है ना कभी अंत हुआ है और ना कभी प्रारंभ हुआ है और ना ही कभी विश्राम होगा। यह अनवरत गंगा की धारा का जयघोष है। श्वेत हिमालय में लिपटा यथार्थ का जल और संकल्प का गंगाजल। सुंदरता इतनी पुरानी है जितना पुराना संसार और इतनी नई जितना प्रत्येक क्षण। ऐसी सुंदरता को अपनी आंखों में समेटते हुए बस यही जीवन जीने का संकल्प धारण करते हुए, काश ऐसा समय व्यतीत हो जाता परंतु समय और नियति कुछ अलग ही परिभाषाओं को लेकर चलती है। यह पर्वत श्रृंखलाएं जो दूर से देखने पर सौंदर्य का अप्रतिम स्वरूप प्रकट करती हैं, यहां का जीवन और यहां का रहन-सहन ना ही इतना सरल है और ना ही इतना आसान। पहाड़ का होने के लिए पहाड़ जैसा व्यक्तित्व होना भी बहुत जरूरी है।
यहां ऐसी ठंड जिसे घोलकर शहरवासी शरबत में पी जाएं। कितना सुंदर यथार्थ है। विशाल पर्वत श्रृंखलाओं पर श्वेत वसन-सा लिपटा हुआ। कुदरत की रंगीली और बर्फ की चादर और क्या है यहां प्रकृति का उपहार। ऊंची चोटी पर चढ़कर दूर तक पर्वतों और घने जंगलों को निहारना देवदार के घने वृक्ष अपना मस्तक ऊंँचा किए बरसात में कुछ और हरे हो चले हैं। ठंड भी ऐसी जो हृदय को नई स्फूर्ति एवं ऊर्जा प्रदान करने वाली है। पर्वतीय प्रदेशों की ठंड, यौवन की दहलीज प्रत्येक सैलानी के मन की भावनाओं के संसार को, उद्दीप्त सांसों में जीवन का रस घोल देती है और स्पर्श कर नई शक्ति देती है।
ऊंची पर्वत श्रृंखलाओं पर ऊपर चढ़ने के लिए शारीरिक क्षमता-भुजाओं से अधिक मनोबल की आवश्यकता होती है। हृदय में अपार धैर्य होने के साथ-साथ जीवन जीने की दृढ़ इच्छा भी होना बहुत जरूरी है। यह हिमालय मेरे आंगन में है। मैं इस हिमालय से निरंतर अपने व्यक्तित्व को निखारने का प्रयास करता हूं। हालांकि यह इतना सरल कार्य नहीं है फिर भी मैं प्रयास करता हूं कि कुदरत की इन रंगीनियों के संग कुछ समय बिताकर अपने भीतर यहां का नैसर्गिक सौंदर्य और विशाल धैर्य की क्षमता को हृदय में विकसित करते हुए जीवन जगत की ओर इस रूप राशि को बिखेरने का प्रयास किया जाए। परंतु समय साक्षी है, आंखों के देखे हुए दृश्य मेरे जीवन की अनुपम निधि है। ऊंचे पर्वत, गहरी-हल्की नदियां, घने जंगल, बांज-बुरांश और देवदार के वृक्ष, कंकड़-पत्थर, दो पहाड़ों के बीच से गुजरती छोटी-छोटी संकरी गलियां, छोटे बड़े पत्थरों पर दौड़ लगाती युवा जिंदगी, एक ही क्षेत्र की दो गांँवों की संस्कृतियों को जोड़ता भावनाओं का विशाल सेतुबंध, विशाल जलधाराएं और इन जलधाराओं के नजदीक सभ्यता के मुहाने, देवलोक की सभ्यता का निवास स्थान और नज़दीक बना यह नैसर्गिक प्राकृतिक संपदा का ग्रामीण परिवेश, यहीं मेरा बचपन बड़ा हुआ था और युवावस्था की कोशिशों ने इन पथरीले रास्तों से राजमार्ग तक पहुंचा दिया। परंतु उन पत्थरों पर चलना और कुछ क्षण हरी घास पर बैठना आज भी भूलने से नहीं भूला जाता। आज जब इन विशाल पर्वतों और बड़े-बड़े घास के मैदानों को जिनको स्थानीय भाषा में बुग्याल कहा जाता है देख कर आंखों की रंगीनियां-हरियाली लौट आई। धरती की रूप राशि को देख कर अपनत्व की संवेदनाएं भीतर से हृदय को भर देती हैं। वाह! कितना सुंदर है यह दृश्य। कितनी सुंदर रूप राशि है। दूर से देखने पर यह घने-घने बांज के जंगल, बुरांश के लाल-लाल फूल, देवदार के वृक्षों में बर्फ के छोटे-छोटे गोले उनके बीच में हरी-हरी देवदार के पत्तों की धारियां वाह! कितना सुंदर दृश्य है। एक या दो बार देखने से मन नहीं भरता। बार-बार हृदय में विचार आता है कि प्रत्येक हरे वृक्षों को गले से लगा लेता, हरे पत्तों से तन और मन का संबंध स्थापित कर लेता, भावनात्मक रूप से जुड़ते हुए आत्मिक रूप से भी जुड़ जाता। यही तो अपने सखा हैं। यही तो अपने प्रिय हैं। यही जीवन जीने की एक सच्ची कला सिखाते हैं। यही तो हमें वह शक्ति प्रदान करते हैं जिससे हमारा आत्मबल और मजबूत होता है। मानवता की विकास यात्रा का यही तो वह प्रारंभिक स्थल है जहां से हमने विकास के पदों पर चलना सीखा। पहाड़ का होने के लिए पहाड़ जैसा व्यक्तित्व भी चाहिए।