रविवार, 31 अक्टूबर 2021

माइग्रेशन और रिवर्स-माइग्रेशन : एक पुनर्मूल्यांकन-* डॉ. चंद्रकांत तिवारी

*माइग्रेशन और रिवर्स-माइग्रेशन : एक पुनर्मूल्यांकन-             

*डॉ. चंद्रकांत तिवारी

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समाज समाजिक संबंधों का जाल है। समाज में रहकर ही मनुष्य रिश्ते-नाते भावनाओं का आदान-प्रदान करता है। नए रिश्ते बनाने के साथ-साथ पुराने रिश्तों को भी निभाता हुआ चलता है। समाज के संरचनात्मक ढांचे को कई कारक प्रभावित करते हैं, यही कारक उसके विकास की गति को भी बरकरार रखते हुए कभी प्रभावित करते हैं तो कभी उसकी गति को अवरुद्ध भी करते हैं। समाज में रहकर ही मनुष्य रिश्ते-नातों की नई आधारशिला को निर्मित करता है।

व्यक्ति एक स्थान से दूसरे स्थान, एक प्रदेश से दूसरे प्रदेश इस आशा और विश्वास से स्थानांतरण करता है कि वह नए स्थान में जाकर नये जीवन को नई दिशा दृष्टि देते हुए गति प्रदान करेगा। परंतु जीवन का वास्तविक यथार्थ समय की विपरीत गति को तय करता हुआ, तीव्र आवेगो को झेलता हुआ, विपरीत धाराओं को पार करने के समान है। कह सकते हैं कि जीवन कई विसंगतियों से भरा पड़ा है। इन विसंगतियों को संघर्षपूर्ण और धैर्य बनाए रखते हुए सतत एवं ईमानदारीपूर्वक ज़िया जा सकता है। मनुष्य अगर अपना आत्मबल धारण करते हुए अपने कर्तव्य पथ पर निरंतर सकारात्मक ऊर्जा के साथ चलता रहे तब।

मध्य हिमालयी पर्वतीय अंचल में बसा उत्तराखंड अपनी भौगोलिक संपदा के लिए विख्यात है। परंतु यहां का जनजीवन और यहां का समाज आज अपनी स्वयं की जड़ों से ही विमुख होता हुआ दिखता है। भौतिक सुख-सुविधाओं, संसाधनों के लिए स्थान का परिवर्तन व्यक्ति को भीतर से खोखला तो बनाता ही है साथ ही अपने पैतृक निवास की वस्तुओं के प्रति लापरवाह भी बनाता है। अपने बच्चों की शिक्षा के लिए और चिकित्सा और आवागमन के संसाधनों के साथ-साथ शहरी जनजीवन को भोगने की इच्छा व्यक्ति को अपनी जड़ों से विमुख बना रही है। और यह विमुखता व्यक्ति के भीतर स्वार्थ का गुण विकसित कर रही है। आज व्यक्ति अपने मूल स्थान, अपने पैतृक गांव को सिर्फ नगरीकरण की बढ़ती चमक-दमक एवं नगरीय जनजीवन को भोगने की चाह लिए अपने जन्म स्थान से पलायन कर गया और शहरी जीवन का मजदूर बन गया। पिछले कई वर्षों का अगर मूल्यांकन किया जाए तो यह स्थिति और भी डराने वाली है। क्योंकि सभ्यता और संस्कृति के केंद्र गांव आज सुनसान, बेजुबान बड़े-बड़े ताले दरवाजों पर  लटकाए हुए हैं। शहर की गलियां और सड़कें आधुनिकता के शोर-शराबे से बौखलाई हुई चिल्ला-चिल्ला कर इस बात का इंसाफ मांग रही हैं कि यह जनसंख्या का इतना बड़े पैमाने पर घनत्व कहां तक सही है? नगरीकरण और औद्योगिकरण की बढ़ती लोकप्रियता, शहरों की रोशनी, सड़कों की रंगीन लाइटें, कांच की बड़ी-बड़ी खिड़कियां और दरवाजे, ऊंचे भवन, अच्छे अस्पताल, इंग्लिश मीडियम के स्कूल और जीवन यापन करने के लिए एक छोटी सी नौकरी शहर में मिल ही तो जाता है। रहने के लिए तो इंसान समझौता कर ही लेता है। एक छोटे से कमरे में पूरा परिवार आराम की नींद निकाल लेता है। कभी-कभी तो मेहमान इस छोटे से कमरे में अतिथि सत्कार प्राप्त कर लेते हैं। ऐसा जनजीवन है शहर का, जो लोग गांव से पलायन करके शहरों में आ रहे हैं वह कुछ इस प्रकार का ही जनजीवन भोग रहे हैं। यह नगरीकरण की क्रांति है। इस नगरीकरण की क्रांति में व्यक्ति तंदुरुस्त होने के साथ-साथ बीमार भी होता है। एक बड़े पैमाने में स्थान परिवर्तन पलायनवादी सोच को जन्म देता है। मानसिक पलायन के साथ-साथ शारीरिक पलायन के विभिन्न आयामों को भी उजागर करता है। यह स्थिति पलायन की विभीषिका के रूप में सामने आती है।

इस बात पर ज़रूर गौर कीजिएगा कि उत्तर प्रदेश से अलग होने के बाद, नया राज्य बनने के बाद उत्तराखंड का विकास पलायन की डरावनी तस्वीर लेकर ही सामने नजर आता है। हालांकि पलायन पहले भी रहा है किंतु आज लोगों ने अपने पैतृक और मूल गांव केवल इस लोभ के कारण छोड़ दिए कि उन्हें शहरी जन जीवन के साथ अपने बच्चों के लिए बेहतर शिक्षा, चिकित्सा प्राप्त हो सके। वास्तविकता तो यही है कि आज तक उत्तराखंड के ग्रामीण और पर्वतीय क्षेत्रों में विकास बहुत धीमी गति से या नहीं के बराबर हुआ है या उस गति से नहीं हुआ जिस गति से होना चाहिए था। पर्वतीय प्रदेशों में इतनी आपदाएं हैं कि मौसम की कुछ भी छोटी-मोटी घटनाओं में कोई न कोई मरता जरूर है। यहां ध्यान देने की बहुत जरूरत है। 

अब ग्रामीण क्षेत्रों का विकास सरकार की पहली प्राथमिकता में होना चाहिए। सरकार को पलायन रोकने के लिए क्षेत्रीय विकास योजनाएं बनानी चाहिए। लघु व कुटीर उद्योगों को स्थाई रूप से स्थापित करना चाहिए‌। नए विश्वविद्यालयों का गठन करना चाहिए। अब समय आ गया है कि उत्तराखंड के ग्रामीण क्षेत्रों का विकास सरकार की पहली प्राथमिकता का एजेंडा होना चाहिए। शिक्षा, चिकित्सा और कृषि को लेकर उत्तराखंड राज्य में अपार संभावनाएं हैं। इस दिशा में सरकार कारगर प्रयास करें तो पलायन पर रोक लग सकती है। अभी रिवर्स माइग्रेशन के तहत सरकार को एक ब्लू प्रिंट तैयार कर लेना चाहिए। जिसके केंद्र में रोजगार प्रमुखता से होना चाहिए। आवागमन के संसाधनों के रूप में पक्की और स्थाई सड़कों का निर्माण भी प्रमुखता से होना चाहिए। अब निर्णय जनता द्वारा चुनी गई सरकार को ही करना है।

 विगत दो वर्षों में संपूर्ण विश्व के समक्ष ऐसी कई चुनौतियां सामने आई हैं जिनका सामना करना साधारण मानव के लिए एक दुष्कर कार्य था। परंतु भारतीय जन समाज अपना सनातन धर्म एवं साधारण जीवन परिवेश को जीने का अभ्यस्त होने के साथ-साथ अपने नैतिक आचरण के बल पर ही इन विसंगतियों के बीच जीवन यापन करता आया। विगत दो वर्ष भारतीय जन समाज के लिए बहुत ही घातक एवं मर्मस्पर्शी रहे हैं। संवेदना का अथाह सागर जिसकी नींव में जलती हुई चिताएं इस बात की गवाह बनी की संपूर्ण मानवता कुछ स्वार्थ लोगों की भेंट चढ़ती हुई नजर आ रही थी। परंतु मारने वाले से बचाने वाला बड़ा होता है।  विधाता ने ही मनुष्य को जन्म दिया है तो संघर्ष करने के लिए उसे विवेकशील प्राणी भी बनाया है। उसके शारीरिक ढांचे में सबसे ऊपर उसके मस्तिष्क को स्थान दिया है। आज भारत संपूर्ण विश्व में अगर अपनी कीर्ति एवं यश से जाना जाता है तो वह बुद्धिजीवी एवं बुद्धिमान प्राणियों के बल पर ही जाना जाता है। भारतीय जन समुदाय के प्रतिनिधित्व करने वाले ऐसे वीर, वीर पुरुषों का यह मस्तिष्क विजय पताका की तरह हवाओं के संग लहरें खाता हुआ तिरंगे की भांति शोभा पाता है।

विगत दो वर्षों में कोरोना महामारी ने संपूर्ण मानव समाज के सभी कारकों को प्रभावित किया। सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक, धार्मिक और भौगोलिक कारकों के साथ-साथ पर्यावरणीय जनजीवन भी कई विविधताओं के साथ बदलते समय में स्वयं परिवर्तित होता रहा। इसे संयोग कहें या विधाता की लिखावट एक अदृश्य दुश्मन जिसे वैज्ञानिक भाषा में विषाणु की संज्ञा दी गई और कोविड-19 नाम से चिन्हित किया गया। यह एक ऐसा प्रश्न चिन्ह बनकर उभरा जिसने आम लोगों की ज़िंदगियों को काल की भेंट चढ़ा दिया।

कोरोना के दौर में देश की आर्थिक स्थिति एक प्रकार से सुस्त पड़ गई और विकास के सभी पहिए मंद गति से चलने लगे। इसका एक बहुत बड़ा कारण लॉकडाउन की समस्या था। परंतु इस लॉकडउन के कारण जहां विकास की गति मंद हुई वहीं दूसरी ओर कई जिंदगियां काल का ग्रास बनने से बच गई। यह एक विरोधाभास ही था। परंतु इस विरोधाभास में मानवता विजय होकर अपनी मंजिल की ओर बढ़ रही थी और अदृश्य विषाणु से जंग लड़ रही थी। एक ऐसी जंग जिसमें मृत्यु आलिंगन करने को तैयार थी परंतु मनुष्य का आत्मबल विजयी होता दिखाई दिया और मानवता ने नया कीर्तिमान स्थापित किया।

करोना के दौर में जहां आर्थिक स्थिति, मज़दूर वर्ग, सामाजिक संरचना, विकास की गति, संवेदनाएं सभी स्तरों पर जिंदगी सहमी एवं ठहरी हुई सी लगने लगी थी, उसी बीच लोगों का बड़े-बड़े महानगरों से ग्रामीण क्षेत्रों की ओर रिवर्स पलायन भी देखने को मिला। यह एक ऐसा जनसैलाब था, एक ऐसा तांडव था जो विगत कई वर्षों से न जाने किस बात की प्रतीक्षा कर रहा था। परंतु वर्तमान समय इस बात का साक्षी बन गया कि महानगरीय जनजीवन इस जनसैलाब को अपने आंगन में स्थान न दे पाया और रिवर्स माइग्रेशन के तहत कई लोग अपने गांव की ओर बढ़ चले। यह दृश्य भावनाओं को तार-तार करने वाला था।

आवागमन के संसाधन एवं भौतिक चुनौतियों के मध्य भावनाओं को झंकृत कर देने वाले ऐसे कई दृश्य सामने आए जब कई सौ किलोमीटर लोगों ने पैदल यात्राएं की। कई लोग महानगरों से पैदल तो चले परंतु गांव पहुंचते-पहुंचते रास्ते में ही उनके प्राण चले गए। विधाता की ऐसी लिखावट शायद ही इतिहास में दर्ज होगी कि मजबूर, ग्रामीण मानवता ने अपने प्राणों को बचाने के लिए अपने प्राण गंवा दिए और भविष्य के गर्भ में ऐसे कई प्रश्न को छोड़ दिया जो आज भी उत्तर की तलाश में है। 

इस कोरोना काल में सबसे अधिक नुकसान हमारे विद्यालय स्तर की शिक्षा को हुआ है। विद्यालय में भी मुख्य रूप से प्राथमिक स्तर के विद्यार्थी जो पहले से ही पढ़ने में कमजोर थे उनकी शिक्षा व्यवस्था तो पटरी पर आ गई। पर्वतीय क्षेत्रों के विद्यालयों का तो क्या कहना क्योंकि वह भौतिक एवं शैक्षणिक दोनों ही संसाधनों की कमी से जूझ रहे थे, कोविड-19 महामारी ने तो इसे और बुरी तरह से क्षतिग्रस्त किया। देश में विद्यालयी शिक्षा बहुत विचारणीय बिंदु है। विद्यालयी शिक्षा की बात करते हैं तो मूल्यांकन और प्रश्न पत्र के ढांचे एवं उनके बीच का अंतर स्पष्ट रूप से ज्ञात होना चाहिए। क्योंकि पहले से अधिक प्रतिशत में विद्यार्थी स्कूली शिक्षा में अच्छे अंको से पास हुए हैं।यह तो मूल्यांकन पद्धति पर प्रश्न उठता है। साथ ही विद्यालयी शिक्षा की व्यवस्था को भीतर से खोखला भी करता है। विद्यार्थियों को अच्छे अंको से पास करना यह मूल्यांकन पद्धति का विचारणीय बिंदु है।

हालांकि दूसरी ओर हमारे अध्यापकों ने इस बीच ऑफलाइन और ऑनलाइन के अंतर को भी समझा और डिजिटल की नई दुनिया में प्रवेश भी किया। परंतु यह ऑनलाइन का विकल्प भारत जैसे देश में सभी विद्यालयों में कारगर एवं सटीक रूप से लागू न हो सका। बहुत सारे विद्यालय तो पिछले 2 वर्षों में अधिकांश तो बंद ही रहे। अगर एक आंकलन किया जाए तो कम से कम डेढ़ वर्ष तो पूरी तरह विद्यालय बंद ही रहे हैं। इतने लंबे समय का अंतराल विद्यार्थियों को मनोवैज्ञानिक रूप से, शैक्षिक रूप से एवं अकादमिक रूप से एवं पाठ्यचर्या संबंधी गतिविधियों एवं उपलब्धियों से भी कमजोर बनाता है। वर्तमान प्रतिस्पर्धा में ऐसे अंको का क्या महत्व रह जाता है। जो बढ़ा-चढ़ाकर विद्यार्थियों को दिए गए हैं।

हमारे देश में तो स्कूलों की शिक्षा व्यवस्था का स्तर एवं उसकी गुणवत्ता का स्तर पहले से ही चिंता का विषय बना हुआ है। इसको कोविड ने और भी बुरी तरह से प्रभावित किया है। कहीं ना कहीं तो सिस्टम की भी कमी रही है। आनी वाले कुछ वर्षों तक सरकार को अध्यापकों के साथ मिलकर लगातार विद्यालयी शिक्षा के स्तर को सुधारना होगा। इसके लिए सबसे पहले योग्य अध्यापकों का और सतत एवं सक्रिय उर्जावान शिक्षकों का शिक्षा व्यवस्था में चयन करना होगा। ऐसे अध्यापक जिनको अपना नैतिक कर्तव्य विद्यार्थी के हितार्थ समर्पित करना होगा और शासन- प्रशासन के द्वारा सर्वप्रथम विद्यालयी शिक्षा व्यवस्था को भौतिक एवं शैक्षणिक संसाधनों की पूर्ति को शत-प्रतिशत सुलभ करना होगा। आईसीटी संबंधी तकनीकी युग में अध्यापकों को निपुण भी बनाना होगा। इसके लिए अध्यापक प्रशिक्षण की भी जिला स्तर पर डाइट, एससीईआरटी, एनसीईआरटी एवं उच्च शिक्षा के क्षेत्र में टीचिंग लर्निंग सेंटर महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है।

शिक्षा व्यवस्था और स्थानीय जनजीवन इस भीषण महामारी की भेंट चढ़ गया। हालांकि गुरु का कर्तव्य बड़ा पावन एवं पुनीत होता है। फिर भी हमारा सिस्टम इस प्रकार परिपक्व नहीं था। कि यह महामारी के दौरान सुचारू रूप से कार्य कर पाता। शिक्षा व्यवस्था के सभी चरण इस कोरोना महामारी के दौर में बुरी तरह प्रभावित हुए। विगत दो वर्षों का इतिहास शिक्षा के क्षेत्र में एक ऐसे मूल्यांकन को लेकर आया जो कभी पहले देखने में न हुआ था। नियमित कक्षाएं जब चला करती थी, तब का मूल्यांकन और आज कोरोनावायरस के दौरान जो मूल्यांकन हुआ है, उसका तुलनात्मक अंतर यही बताता है कि हमें अपने विद्यार्थियों का मूल्यांकन नए संदर्भ में करना चाहिए था। मूल्यांकन का कई बिंदुओं पर पुनर्मूल्यांकन भी करना चाहिए। क्योंकि करोना महामारी के दौरान मूल्यांकन में अंको का ग्राफ बहुत तीव्र गति से बड़ा है। यह परंपरागत कक्षाओं और वर्चुअल क्लासरूम के तुलनात्मक अंतर को भी प्रश्नचिन्ह लगाता है। कि शिक्षा व्यवस्था आख़िर किस दिशा-दृष्टि की ओर बढ़ रही है? हम किस प्रकार के मूल्यांकन को सही समझ सकते हैं? कि हमें ऐसा कैसा मूल्यांकन करना चाहिए जो विद्यार्थियों को अंको की अपेक्षा व्यावहारिक एवं प्रायोगिक रूप से कुशाग्र एवं बुद्धिमान, सक्षम एवं प्रभावशाली, देशभक्त एवं राष्ट्रवादी नागरिक बनाएं। अपनी मिट्टी से जोड़ना सिखाएं, अपनी मिट्टी से प्रेम करना सिखाए, अपने वतन के लिए मरना मिटना सिखाएं, अपने लोगों से प्रेम करना सिखाए। क्या यह संभव है? क्या इन सब बातों पर हम गौर कर सकते हैं? हमें क्या करना चाहिए इस बात का मूल्यांकन कौन करेगा? इस बात की क्या गारंटी है कि हम जो कार्य कर रहे हैं उसके प्रतिफल सही दिशा-निर्देश पर आधारित होंगे? ऐसे कई प्रश्न है इन सब प्रश्नों पर हमें आत्ममंथन करना चाहिए। तभी हम सच्चे राष्ट्रभक्त बन सकेंगे और देश सेवा में अपना शत-प्रतिशत योगदान दे सकेंगे।

क्या उपर्युक्त इन प्रश्नों का पुनर्मूल्यांकन होना चाहिए? क्या कोरोना काल में शिक्षा का पुनर्मूल्यांकन होना चाहिए? क्या सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक, धार्मिक इन सब स्थितियों का वर्तमान संदर्भ में पुनर्मल्यांकन होना चाहिए? उपर्युक्त बिन्दुओं के पुनर्मूल्यांकन के मूल्यांकन का उत्तरदायित्व का मूल्यांकन कौन करेगा? यह शोध का विषय भी है और समझ का भी।